हिंद,हिंदी और हम
कहने को तो हम सब हिन्दी हैं । हमारी राष्ट्रीय भाषा भी हिन्दी है । इतना ही नहीं बल्की हमारी राजभाषा भी हिन्दी ही है । अजेय हिन्दी । पर आज इस संसार में अगर कोई भाषा अपनों के द्वारा सबसे अधिक तिरष्कृत है तो वो भी हिन्दी ही है । हिन्दी संसार की सबसे समृद्ध भाषा होते हुए भी आज अपना वजुद खो रही है । हिन्दी के प्रति हम हिन्दुस्तानीयों का बेरूखी भरा रवैया हमारी इस गौरवमयी भाषा के लिए घातक सिद्ध हो रही है । हिन्दी को लेकर हम हिन्दीभाषीयों द्वारा किये जा रहे सौतले व्यवहार के चलते हिन्दी अपने ही देश में द्वितीय दर्जे की भाषा बन गई है । एक हिन्दी देश में हिन्दी का इस प्रकार से हो रहा पतन पूरी हिन्दुस्तानी सभ्यता के लिए घातक है ।
वैसे अगर बात हिन्दी के प्रचार-प्रसार कि करें तो हमें उस दौर को भी याद करना होगा जब बॉलीवुड के सिनेमाओं ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अभुतपूर्व योगदान दिया था । बस जबरदस्त संवाद के दम पे फिल्म चलनेवाले उस दौर में लिखे गये संवाद जो पूरी तरह हिन्दी के होते थे वे लोगों के मन में हिन्दी के प्रति अपनेपन का भाव जगाते थे । पूर्ण हिन्दी में लिखे गये उन लोकप्रिय संवादों को सुनकर लोग हिन्दी के प्रति आकर्षित होते थे । लोगों में हिन्दी बोलने व सुनने को लेकर अनोखा रूझान जन्म लेने लगा था । पर समय के साथ हिन्दी फिल्मों में भी बदलाव आने लगें । चंद ऐतिहासिक पृष्टभूमि पे बनने वाली फिल्मों को छोड़कर अधिकतर आधूनिक हिन्दी फिल्मों के संवाद हिंगलीस में लिखे जाने लगें । इसि के साथ बॉलीवुड सिनेमाओं के स्तर में भी निम्नता आती गई और दिखावे के चक्कर में इन हिंगलीस फिल्मों में बोलचाल की भाषा के तौर पर हिंदी से अधिक अंगरेजी भाषा का प्रयोग होने लगा । इतना ही नहीं बल्कि बॉलीवुड की सिनेमाओं में बजनेवाले गीतों में भी अंगरेजीयत का जलवा छाने लगा । गीतों के बोल हिंदी से अधिक अंगरेजी में लिखे जाने लगें । रेप सोंग के नाम पर अंगरेजी की अश्लीलता परोसी जाने लगी । इस तरह के दिखावों से अक्सर फिल्मों से प्रभावित होने वाली हमारी युवा पीढ़ी अपनी मातृभाषा से दूर होती चली गई और रही-सही बाकी कसर पूरी कर दी पश्चिमी सभ्यता ने । इंटरनेट के जरिए तेजी से फैलती पश्चिमी सभ्यता ने हमारे युवाओं को बहकाना आरम्भ कर दिया । अंगरेजी सभ्यता के गिरफ्त में आकर पहनावें के साथ-साथ लोग अपनी जुबान भी बदलने लगें । अपने को अधिक सभ्य व स्मार्ट दिखाने के चक्कर में युवाओं के साथ ही कुछ बड़ो ने भी अंगरेजी का दामन थाम लिया । आज तो नौबत ऐसी आ गई है कि हम चाहे किसी से भी बात कर रहें हों पर हमारे बोलचाल के वाक्यो में हिन्दी से अधिक अंगरेजी के शब्द होते हैं और इसका कारण है अपनी भाषा के प्रति हमारा अवहेलना वाला रवैया । हमें ऐसा लगता है कि अगर हम शुद्ध हिन्दी में बात करेंगे तो लोग हमें गवार हमझेंगे । हम ये भूल जाते हैं कि शुद्ध हिन्दी में बात करने के लिए हमारे अंदर हिन्दी के समृद्ध शब्द भंडारों का ज्ञान होना भी अति आवश्यक है । अंगरेजी का क्या है ? अगर बात अंगरेजी में बात करने की हो तो हमारे यहां एक अनपढ़ शराबी भी शराब की एकाध चुस्की लगाकर अंगरेजी झाड़ने लगता है ।
अब समय आ गया है जब हमें यह समझने की जरुरत है कि हिंदी एक समृद्ध भाषा है । अपनी भाषा । एक ऐसी भाषा जिसके समृद्ध शब्द भंडार दिल के भावों को प्रकट करने के लिए एक से बढ़कर एक खुबशूरत व नायाब शब्द पुष्प हमें देते हैं । यह एक ऐसी भाषा है जो अनेकों अतुलनीय महाकाव्यों की साक्षी है । यह हिंदी ही है जिसे संसार की सबसे मिठी व सुरिली भाषा होने का गौरव प्राप्त है । पर आज वही हिंदी खुदको वृद्धाश्रम में रहती किसी वृद्धा की भांती बिल्कुल अकेली व असहाय महसूस कर रही है और इसके जिम्मेदार हैं हम । ‘हम’ अर्थात आप,मैं और हमारी ही तरह बाकी के सभी हिंदी को बोलने व समझने वाले लोग । याद रकिये आज हमने ही हिन्दी को गर्त में ढकेल दिया है । आज हम सभी आधुनिकता के चकाचौंध में ऐसे रम गए हैं कि हम अपने दूधमुहे बच्चे तक को अपनी मातृभाषा में “मां-बाबूजी” कहना सिखाने के बजाय “मम्मा-पापा” कहना सिखाते हैं और “क,ख,ग” के स्थान पे “A,B,C,D” लिखना-पढ़ना सिखाते हैं । यह बात सुनने में छोटी तो लगती है पर असल में यह बहुत मोटी बात है और इस पर अगर जरा सा गौर किया जाय तो पता चलता है कि वास्तव में हमसब कभी कोशिस ही नहीं करते हैं कि अपने बच्चों को ‘ए फॉर एपल’ के स्थान पे ‘अ से अनार’ कहना सिखाएं । यहां तो बच्चों को शिक्षित बनाने के बजाय दुनीया की देखा-देखी हम उन्हे कॉनवेन्ट स्कुलों में भेजते हैं,जहां वे बस जॉब सीकर बनके रह जाते हैं और ये सब बस यहीं खत्म नहीं होता है बल्कि अंगरेजियत के चंगुल में फंसकर हमारे बच्चे अपनी सभ्यता,संस्कृति व भाषा से दूर होते जाते हैं ।
यूं तो हम चाय की दुकानों पे बैठकर, चौपालों में,यार-दोस्तों संग गप्पे हांकते हुए हिन्दी की रूग्न अवस्था के लिए अफसोस जाहिर तो करते हैं,पर इसे बचाने की तिल बराबर कोशिस भी नहीं करते हैं । हमसब यह भूल जाते हैं कि जिस प्रकार जन्म देने वाली माता के प्रति हमारा कुछ कर्तव्य बनता है, ठीक उसी प्रकार मातृभूमि व मातृभाषा को लेकर भी हमारे अपने कर्तव्य हैं जिन्हें पूरा करना हमारा उतरदायित्व है । आज चंद लेखकों,पत्रकारों व व्योज्येष्ठों को छोड़कर कोई हिंदी में संवाद करना नहीं चाहता है क्योंकि इसमें उनके सम्मान की हानि होती है । पर क्या यह सोच सही है? अपने देश में, अपनी मातृभाषा में बात करने से क्या सही में हमारे सम्मान की हानि होती है ? अगर इसका जवाब हां है तो समझ लिजीए कि हम आज भी गुलाम हैं । अंगरेजों के सभ्यता-संस्कृति व भाषा के गुलाम और अब समय आ गया है जब हमें इन गुलामी की जंजीरों को तोड़कर अपनी मातृभाषा का परजम सारे जग में लहराना होगा । जब तक हमारी मातृभाषा सशक्त नहीं होगी तब तक हम भी सशक्त व आत्मनिर्भरशील नहीं बन सकतें और बिना आत्मनिर्भता के विकास असम्भव है ।
जो की हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है अतः बोझिल मन से हर वर्ष हमारे देश में निरस भाव के साथ अंगरेजी के सौतेले बेटों से आंखें चुराकर हिन्दी दिवस मनाई जाती है । सितम्बर महिने के १४ तारीख को हर वर्ष बड़े-बड़े भाषनों, एकाध कविता पाठ व भजन के कार्यक्रम के साथ हिन्दी दिवस की औपचारिकता पूरी कर ली जाती है । पर अपनों के द्वारा छली गई हिंदी पहले की ही भांती चरम उदासीनता का शिकार बनी रहती है।
अब समय आ गया है जब हम सब को मिलकर हिंदी भाषा को संसार की सबसे समृद्ध व आदर्श भाषा के तौर पर स्थापित करने की जरूरत है । समय की सूई को घुमाकर हिंदी के प्रभाव वाले समय के सृजन की आवश्यकता है और इसकी शुरूवात हमें अपने घर से ही करनी होगी । हमें अपने बच्चों को अपनी भाषा से प्रेम करना सिखाना होगा । उन्हे जापान,चाईना,कोरीया जैसे देशों से सीख लेने की प्रेरणा देनी होगी । हमें भारतवर्ष को विश्वगुरु बनाने के प्रण को दोहराते हुए उन्हे अपने स्वाभिमान को जगाने की भी सीख देनी होगी और देश का स्वाभिमान जागेगा मातृभाषा के सम्पन्न होने से और मातृभाषा की सम्पन्नता आएगी निसंकोच उसके व्यवहार से । हमें अपनें बच्चों को बताना होगा कि जिसे हम अपना समझ गले लगाये बैठे हैं वो असल में हमारी सौतेली मां है, वो सौतेली मां जो चुपचाप से हमें बिन बताये हमारा शोषन कर रही है । हमें आत्मकेन्द्रिक बनाने के बजाय हमें परनिर्भरशील बना रही है । जिसके फल स्वरूप हम आज भी मानसिक तौर पे अंगरेजों के या यूं कहें की पश्चिमी सभ्यता के गुलाम बने रहें हैं । जो देश कभी सोने की चिड़िया था आज वह देश अपने को सक्षम प्रमाणित करने की अथक चेष्टा कर रहा है । हमें देश सशक्त बनाने के लिए अपने नींव को सशक्त बनाना होगा और नींव को सशक्त बनाती है सशक्त मातृभाषा ।
अतः इस वर्ष हमें हिन्दी दिवस के इस शुभघड़ी में खुद से प्रण करना होगा कि अब हम अधिक से अधिक हिंदी भाषा का प्रयोग करेंगे । हम हिंदी के उत्थान के लिए हर सम्भव प्रयासरत रहेंगे और पूरे गर्व के साथ हिन्दी को अपनी अपनी मातृभाषा के रूप में स्वीकारेंगे । अब से हमारा हमारा एक ही उद्देश्य होगा, अपनी प्यारी हिन्दी को अन्तराष्ट्रीय दरबार में समृद्ध व सम्पन्न भाषा के रूप में स्वीकृती दिलाने की ।
— मुकेश सिंह
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