कविता

नोट बंदी

नोट कर लो
ये नोट
वक्त के साथ
आपका साथ छोड़ जाता है,
वक्त चाहे जितना हो
एक दिन वो भी खत्म हो जाता है।
अगर रह जाता है तो वह तुम
पर वह तुम में मैं नहीं रह पाता।
तुम समझ पाते हो
कैसे फर्क पड़ता है उन लोगों पर।
कुछ वक्त पहले तुम
काली तिजोंरी में
झांकते थे इठलाते थे,
जाने कितने इंसानों का मार हक
बंद था तुम्हारी तिंजोरी में,
नोटों की शक्ल में काली करतूत।

वक्त आज एक है
नोट अनेक
पर सब मिट्टी के ढेर।
सोचो जानो
एक बार फिर पढ़ लो
महावीर, गौतम को
क्या पता चले तुम
माया में जोड़ रहे हो नोट
कहीं हक मार रहे हो
कई जिंदगियों का।

काले तिंजोरी में कैद
उन नोटों को मिली अजादी
जिसे तुमने कामाया तिकड़म से।
फिर वक्त आ गया
तुम्हारी तिंजोरी में काली कमाई
वाली नोटे
साथ में रखी उन बेनामी कागजों
को भी क्रांति सिखा गई
अब वे कागज तुम्हारे
खिलाफ हैं

अभिषेक कांत पाण्डेय भड्डरी

अभिषेक कांत पाण्डेय

हिंदी भाषा में परास्नातक, पत्रकारिता में परास्नातक, शिक्षा में स्नातक, डबल बीए (हिंदी संस्कृत राजनीति विज्ञान दर्शनशास्त्र प्राचीन इतिहास एवं अर्थशास्त्र में) । सम्मानित पत्र—पत्रिकाओं में पत्रकारिता का अनुभव एवं राजनैतिक, आर्थिक, शैक्षिक व सामाजिक विषयों पर लेखन कार्य। कविता, कहानी व समीक्षा लेखन। वर्तमान में न्यू इंडिया प्रहर मैग्जीन में समाचार संपादक।