धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा और उसकी पूजा विषयक ऋषि दयानन्द के तर्कसंगत विचार

ओ३म्

महर्षि दयानन्द ने वेदविरुद्धमत खण्डन’ नामक एक लघु पुस्तक लिखी है। इसमें उन्होंने मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करने व मूर्ति पूजा का तर्क व युक्तियों से खण्डन किया है। सभी पाठकों, मूर्तिपूजकों सहित मूर्ति में प्राणों को प्रतिष्ठा करने वालों को भी इस विषय में विवेचन करने व निष्कर्ष निकालने का अवसर प्राप्त नहीं होता। यदि मिले भी तो उनकी बुद्धि में ऐसा करने की क्षमता नहीं होती। ऐसे बन्धुओं को महर्षि दयानन्द के उक्त पुस्तक में प्रस्तुत विचार लाभप्रद व उपयोगी हो सकते हैं। इसी उद्देश्य से हम उनके विचारों को कुछ शब्दान्तर के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं।

किसी भी मूर्ति को बनवाकर उसे मन्दिर में स्थापित करने के साथ उसमें प्राण प्रतिष्ठा की जाती है जिसके बाद मूर्तिपूजक लोग उसकी पूजा अर्चना आरम्भ करते हैं। प्राण प्रतिष्ठा के विषय में ऋषि दयानन्द ने बहुत सार्थक व उचित प्रश्न अपनी उक्त पुस्तक में प्रस्तुत किये हैं। महर्षि दयानन्द कहते हैं कि यदि मूर्तिपूजा के समर्थक यह कहते हैं कि पाषाण आदि की मूर्तियों में वेद मन्त्रों द्वारा प्राण आदि का आह्वान कर प्राण स्थापन करना प्रतिष्ठा है, तो यह कहना ठीक नहीं है। यह इसलिए कि प्राण आदि और उनकी क्रिया, अर्थात् प्राण लेना व छोड़ना, आंखे खोलना व बन्द करना, सिर व शरीर को हिलाना-डुलाना आदि कृत्य मूर्तियों में नहीं दीख पड़ते। यदि पाषाण मूर्तियां जिनमें प्राणों की प्रतिष्ठा की गई होती है, उनमें प्राण व 5 ज्ञान व 5 कर्म इन्द्रियां आदि रहते तो उन मूर्तियों का चलना, बोलना, खाना, मलमूत्र त्याग करना आदि कर्म क्यों नहीं दिखाई पड़ते हैं, और वह मूर्तियां उन कामों को क्यों नही करती हैं? महर्षि दयानन्द वेद मन्त्रों से मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा करने वाले पण्डितों से पूछते हैं कि यदि प्राण आदि को जहां कहीं स्थापित करने की शक्ति उन लोगों में है, तो मृतक शरीरों के बीच प्राणादि को स्थापन कर क्यों नहीं उन्हें जीवित कर देते। यदि तुम ऐसा करोगे तो तुम्हें इसी एक काम से बहुत धन की प्राप्ति होगी और प्रतिष्ठा भी मिलेगी। वह प्राण प्रतिष्ठा करने वाले पण्डितों से कहते हैं तुम यह भी विचारो कि पाषाणादि मूर्तियों में मनुष्य व पशुओं के शरीरों की भांति प्राणादि के जाने आने का अवकाश ही नहीं होता है, न नाड़ी ओर इन्द्रिय छिद्र हैं, और मृतक शरीरों में तो प्राणों के प्रवेश करने के सब अवकाश व नाड़ी और इन्द्रियां आदि सब सामग्री विद्यमान ही रहती है, केवल प्राणादि के न रहने से वे शरीर जला दिये जाते हैं। अतः जब आप लोग उन शरीरों में आह्वान कर प्राणादि को स्थिर कर दो, तब तो किसी का मरण ही न होवे। इससे आपको बड़ा पुण्य होगा। इसलिए शीघ्र ही निश्चय कर यह कर्म करना चाहिये।

इसके आगे स्वामी जी कहते हैं कि हम जानते हैं कि यदि कोई मरे हुए को जीवित कर देवे, ऐसा मनुष्य संसार में न हुआ है और न होगा क्योंकि ईश्वर के नियम के अन्यथा व असफल करने में किसी का सामथ्र्य न हुआ है न कभी होगा, यह निश्चय जानना चाहिये। जैसे जीभ से ही रस का ज्ञान हो सकता है अन्य किसी इन्द्रिय से नहीं, यह ईश्वरकृत नियम है, इसके अन्यथा करने में जैसे किसी का सामर्थ्य नहीं है, वैसे ही ईश्वर के किये सब विषयों में जानना चाहिये। ईश्वर ने जो जड़ पदार्थ बनायें हैं, जिनसे मूर्तियां बनाई जाती हैं, वह कभी चेतन अर्थात् जैसा हमारा जीवात्मा है, वैसे कभी नहीं हो सकते। इसी प्रकार चेतन जीवात्मायें भी कभी जड़ नहीं हो सकती हैं, यह निश्चित व सर्वमान्य है। इससे यह सिद्ध हो गया है कि कितने भी मन्त्र पढ़ लिये जायें व कैसी व कितनी भी क्रियायें कर ली जायें, किसी जड़ मूर्ति में प्राण स्थापित नहीं किये जा सकते। इससे यह भी स्पष्ट है कि किसी भी मूर्ति में परम्परागत विधि से अनुष्ठान करने के बाद भी उस मूर्ति में प्राणों की प्रतिष्ठा नहीं होती, वह प्राणों से वंचित व पृथक ही रहती है। ऐसा मानना कि मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठित हो गये हैं, यह सर्वथा असत्य होता है।

इसके बाद मूर्ति पूजा का खण्डन करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि यदि कहो कि ईश्वर सर्वत्र व्यापक है, इससे पाषाणादि मूर्तियों में भी वह विद्यमान है, तो पाषाणादि मूर्तियों के पूजने में क्या दोष है और क्यों खण्डन करते हो, तो इसका उत्तर यह है कि यदि ऐसी भावना रख पूजा करते हो तो पुष्प तोड़ना, चंदन घिसना और हाथ जोड़ कर नमस्कार आदि कर्म क्यों करते हो, क्योंकि ईश्वर पुष्प, चन्दन, हाथ और मुख आदि में भी व्यापक है। जैसे पाषाणादि में व्यापक होने से ईश्वर पूजित होगा वैसे पुष्प व चन्दन आदि के साथ उसका टूटना व घिस जाना भी सम्भव है। यदि नहीं मानते तो अन्य घृणित पदार्थों का पूजन क्यों नहीं करते? जब ईश्वर सर्वव्यापक सिद्ध है तो एक छोटी सी किसी मूर्ति आदि वस्तु में उसको मानना बड़ा पाप है। जैसे चक्रवर्ती राजा से कोई कहे कि आप दश हाथ भूमि के राजा हैं, उसके प्रति जैसे राजा का बड़ा कोप होता है, वैसे ईश्वर के इस प्रकार मूर्ति के रूप में स्वीकार करने से ईश्वर उस मूर्ति पूजक पर बड़ा कोप करेगा, यह जानना चाहिये। इन कारणों से मूर्ति पूजा व्यर्थ सिद्ध होती है। वेद और महर्षि के अनुसार तो ईश्वर की पूजा उसे सर्वव्यापक अर्थात् सब जगह व्यापक मानकर मन को एकाग्र करके उसका स्तुति गान करते हुए उसको नमन करके ही की जा सकती है। इसके लिए तो एक आसन में बैठकर मन को इन्द्रियों के सभी विषयों से हटाकर व उसे ईश्वर में एकाग्र कर उससे ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का चिन्तन कर व उसके उपकारों के लिए उसका ध्यान कर ही उसकी उपासना व पूजा की जा सकती है। इसी को भक्ति भी कहते हैं। इसके विपरीत जो किया जाता है वह उपासना, भक्ति व पूजा कदापि नहीं होता। उससे तो जड़ मूर्ति की संगति के प्रभाव के कारण मनुष्य की बुद्धि का जड़ हो जाना सम्भव होता है, ऐसा ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है।

ऋषि के उपर्युक्त विचारों से यह सिद्ध होता है कि मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करना असम्भव होने से मिथ्या है। ईश्वर की पूजा के लिए मूर्ति में ध्यान करने, उस पर पुष्प व जल आदि चढ़ाने से पूजा सिद्ध नहीं होती अपितु शुद्ध मन व शरीर से ईश्वर के वेद वर्णित गुणों का कीर्तन, नमन व धन्यवाद कर ही उसकी उपासना होती है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य