धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर को जानकर ही सब मनुष्य सुखी होते हैः ऋषि दयानन्द

ओ३म्

मनुष्य के सुख का कारण क्या है? इस प्रश्न का उत्तर महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में ऋग्वेद के एक मन्त्र संख्या 1/164/39 सहित अन्य चार मन्त्रों को प्रस्तुत कर दिया है। प्रथम मन्त्र है ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः। यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति इत्तद्विदुस्त इमे समासते।।’ इस मंन्त्र का अर्थ करते हुए ऋषि दयानन्द जी कहते हैं कि ईश्वर सब दिव्य गुण, कर्म, स्वभाव व विद्या से युक्त है और उसी में पृथिवी व सूर्यादि लोक स्थित हैं। ईश्वर आकाश के समान व्यापक है, वह सब देवों का देव अर्थात् महादेव है। उस परमेश्वर को जो मनुष्य न जानते न मानते और उस का ध्यान नहीं करते वे नास्तिक मन्दमति लोग सदा दुःखसागर में डूबे ही रहते हैं। इसलिए सर्वदा उस ईश्वर को जानकर सब मनुष्य सुखी होते हैं। यहां ऋषि दयानन्द जी ने ईश्वर को सब दिव्य गुणों व विद्या से युक्त बताया है और कहा कि पृथिवी व सूर्य आदि आकाशस्थ सभी लोक लोकान्तर उसी में स्थित हैं अर्थात् उसी ने समस्त ब्रह्माण्ड को धारण कर रखा है। ईश्वर कोई एकदेशी व मनुष्य की जीवात्मा के समान एक स्थान में सीमित सत्ता नहीं है अपितु वह आकाश के समान सर्वत्र व्यापक अर्थात् सर्वव्यापक है। संसार में अन्न, जल, पृथिवी, अग्नि, वायु, आकाश, समस्त विद्वान आदि जितने भी देवता हैं, ईश्वर उन सब देवों का भी देव है। इसका एक अर्थ यह भी है कि इन भौतिक देवों में जो शक्ति व सामथ्र्य है, वह इन्हें सब ईश्वर प्रदत्त है। इन गुणों से युक्त परमेश्वर को जो मनुष्य जानते और मानते नहीं हैं वह सब मन्दमति और नास्तिक हैं। ऐसे अज्ञानी लोग दुःसागर में डूब रहते हैं और जो ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जानता है वह उस सत्य ज्ञान से सुख को प्राप्त होता है। अतः सुख की प्राप्ति के लिए ईश्वर के सच्चे स्वरूप का ज्ञान व तदनुसार उसका स्तुति, प्रार्थना व उपासना से सत्कार करना आवश्यक है, यही सुख का आधार व कारण है।

इसके बाद ऋषि ने कुछ प्रश्नोत्तर प्रस्तुत कर शंका समाधान किया है जिसके बाद अन्य वेद मन्त्रों के अर्थों पर प्रकाश डाला है। ऋषि दयानन्द जी ने जो दो प्रश्न दिये हैं वह हैं (1) वेद में ईश्वर अनेक हैं इस बात को तुम मानते हो या नहीं? व (2) वेदों में जो अनेक देवता लिखे हैं उस का क्या अभिप्राय है। प्रथम प्रश्न का उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि वह अनेक ईश्वर नहीं मानते क्योंकि चारों वेदों में ऐसा कहीं नही लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक है। दूसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए वह बताते हैं कि देवता दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण कहलाते हैं। जैसी कि पृथिवी, परन्तु इस को कहीं ईश्वर या उपासनीय नहीं माना है। देखो ! इसी मन्त्र में कि जिस में सब देवता स्थित हैं, वह जानने और उपासना करने योग्य ईश्वर है।’ यह उनकी भूल है जो देवता शब्द से ईश्वर का ग्रहण करते हैं। परमेश्वर देवों का देव होने से महादेव इसीलिये कहाता है कि वही सब जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयकत्र्ता, न्यायाधीश और अधिष्ठाता है।

इसके आगे ऋषि दयानन्द कहते हैं कि जो त्रयस्ंत्रिशत्ंत्रिशता0’ इत्यादि वेदों में प्रमाण हैं इस की व्याख्या शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में की है कि तेंतीस देव अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से यह आठ वसु हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय और जीवात्मा, यह ग्यारह रुद्र इसलिये कहाते हैं कि जब शरीर को छोड़ते हैं तब रोदन कराने अर्थात् रुलाने वाले होते हैं। संवत्सर के बारह महीने बारह आदित्य इसलिये हैं कि ये सब की आयु को लेते जाते हैं। बिजली का नाम इन्द्र इस हेतु से है कि परम ऐश्वर्य का हेतु है। यज्ञ को प्रजापति कहने का कारण यह है कि जिस से वायु वृष्टि जल ओषधी की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना प्रकार की शिल्पविद्या से प्रजा का पालन होता है। यह तैंतीस पदार्थ पूर्वाक्त गुणों के योग से देव कहाते हैं। इनका स्वामी और सब से बड़ा हाने से परमात्मा चैतींसवां उपास्यदेव शतपथ ब्राह्मण के चैदहवें काण्ड में स्पष्ट लिखा है। इसी प्रकार अन्यत्र भी लिखा है। जो लोग वेदों में अनेक देवों का होना मानते हैं वह यदि वेद और शतपथ ब्राह्मण आदि शास्त्रों को देखते तो वेदों में अनेक ईश्वर माननेरूप भ्रमजाल में गिरकर क्यों बहकते।

इसके बाद चार और मन्त्रों का भाव प्रस्तुत करते हुए ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि हे मनुष्य ! जो कुछ इस संसार में जगत् है उस सब में व्याप्त होकर जो नियन्ता (सबको नियम में रखने वाला व जीवों को उनके कर्मानुसार फल देनेवाला) है वह ईश्वर कहलाता है। उस से डर कर हे मनुष्यों ! तुम अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत करो। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरण रूप धर्म के पालन से अपनी आत्मा से सर्वाधिक सुख अर्थात् आनन्द का भोग करो। इसके आगे वह कहते हैं कि ईश्वर सब को उपदेश करता है कि हे मनुष्या ! मैं ईश्वर सब के पूर्व विद्यमान सब जगत् का स्वामी हूं। मैं सनातन जगत्कारण और सब धनों का विजय करनेवाला और दाता हूं। मुझ  ही को सब जीव जैसे पिता को सन्तान पुकारते हैं, वैसे पुकारें। मैं सब को सुख देने हारे जगत् के लिये नाना प्रकार के भोजनों का विभाग पालन करने के लिये करता हूं। परमेश्वर वेद द्वारा शिक्षा करते हुए कहते हैं कि मैं परमैश्वर्यवान्, सूर्य सदृश सब जगत् का प्रकाशक हूं। कभी पराजय को प्राप्त नहीं होता और न कभी मृत्यु को प्राप्त होता हूं। मैं ही जगत् रूप धन का निर्माता हूं। सब जगत् की उत्पत्ति करने वाला मुझ ही को जानो। हे जीवों ! ऐश्वर्य प्राप्ति के यत्न करते हुए तुम लोग विज्ञानादि धन को मुझ से मांगो और तुम लोग मेरी मित्रता से अलग मत होओ। वेदों में ईश्वर मनुष्यों को उपदेश करते हुए यह भी कहते हैं कि हे मनुष्यों ! मैं सत्यभाषणरूप स्तुति करनेवाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूं। मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करनेहारा और मुझ को वह वेद यथावत् कहता, उस से सब के ज्ञान को मैं बढा़ता, मैं सत्पुरुषों का प्रेरक, यज्ञ करनेहारे को फलप्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है, उस सब कार्य का बनाने और धारण करने वाला हूं। इसलिये तुम लोग मुझ को छोड़ किसी दूसरे को मेरे स्थान म मत पूजो, मत मानो और मत जानो।

महर्षि दयानन्द ने वेद मन्त्रों के आधार पर उपर्युक्त जो व्याख्यान दिया है वह यथार्थ एवं व्यवहारिक है। ईश्वर को जानने, मानने व उसकी उपासना से जो सुख मिलता है वह स्थाई सुख होता है जिसका परिणाम जन्म व मरण के चक्र से मुक्ति का मिलना और उसके बाद लम्बी अवधि तक ईश्वर के सान्निध्य में रहकर आन्नद का भोगना होता है। ईश्वर को न मानने व न जानने वालो वास्तविक सुखों से वंचित रहते हैं। भौतिक पदार्थों को प्राप्त कर उनसे जो सुख प्राप्त किया जाता है वह क्षणिक व सीमित होने के साथ परिणाम में दुख देने वाला होता है। धन बड़ी कठिनाई से कमाया जाता है। यदि वह चोरी हो जाये तो कष्ट होता है। कई बार धन के कारण लोग धनिकों की हत्या व उनके बच्चों का अपहरण जैसे कार्य भी कर देते हैं जो परिणाम में दुःखदायी ही होते हैं। स्वादिष्ट भेाजन करने का सुख जब तक वह जिह्वा के सम्पर्क में होता है, तभी तक होता है। उससे पृथक होते ही वह सुख समाप्त हो जाता है। कई बार कुछ विशेष भोजन ही रोग का कारण बन कर दुःखदायी हो जाते हैं। अतः स्थाई सुख के लिए मनुष्यों को वैदिक शिक्षा के अनुसार ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानने का प्रयास करना चाहिये और उसे जानकर वेद व योगाभ्यास से ध्यान विधि से उपासना कर स्थाई आनन्द प्राप्त करना चाहिये। हम आशा करते हैं कि पाठक सुख की उपलब्धि का प्रमुख स्रोत ईश्वर का ज्ञान व उपासना को जानकर जीवन में सुख का लाभ करेंगे। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य