मधुगीति : आए कहाँ हैं आफ़ताब !
आए कहाँ हैं आफ़ताब, रोशनी लिए;
रूहों की कोशिका के दिये, झिलमिले किए !
मेघों की मंजु माला, अभी गगन है गुथी;
दायरे दौर कितने अभी, आँधियाँ मखी !
मन मयूरों के नाच, लखे नियन्ता रहे;
वे वसन्ती लिवास लिए, कहाँ हैं चहे !
चाहे कहाँ हैं जीव अभी, अपनापन लिए;
अपनी किताब औ ख़िताब सिर्फ़ वे लखे !
आए हैं समझ अब भी कहाँ, असली माज़रे;
‘मधु’ सुने भी नमूने कहाँ, उनकी ग़ज़ल के !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा