लघुकथा

मुक्ति

पंडित रामलाल की गिनती प्रकांड पंडितों में होती थी । उनके एक बेटी श्यामा और एक बेटा सुधीर थे । बेटी श्यामा बड़ी ही कुशाग्र बुद्धि और सुसंस्कारी थी । पंडितजी मेधावी छात्रा श्यामा के कॉलेज में दाखिले के सख्त खिलाफ थे । वह कहा करते थे ‘ बेटियां तो पराया धन होती हैं । वह दूसरों के वंशवृद्धि का जरिया हैं  । दूसरों का ही घर गुलजार करती हैं । विवाह के बाद उनसे क्या लेना देना ? जबकि बेटे आजीवन साथ ही रहते हैं और हमारी वंशवृद्धि के साथ हमारी मुक्ति का भी कारण बनते हैं । ‘
इसी सोच के चलते पंडितजी ने दसवीं उत्तीर्ण करने के कुछ ही दिनों बाद श्यामा का विवाह कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए ।
कालांतर में सुधीर अपनी उच्च शिक्षा के लिए विदेश चला गया । उसे विदेश भेजने के चक्कर में पंडितजी को अपनी पुश्तैनी जमीन बेचनी पड़ी थी ।
सुधीर को विदेश गए हुए लगभग तीन साल हो चुके थे । एक दिन अचानक सुधीर की माँ का हृदयाघात से स्वर्गवास हो गया । ऐसी दुखद घडी में भी सुधीर परीक्षाओं में व्यस्तता का हवाला देकर घर नहीं आया था जबकि श्यामा अपने पति के संग आकर लगभग एक महीने आकर रही थी । इस बीच उसने अपने पिताजी की हर तरह से सेवा की । सुधीर के न आने से पंडितजी खासे निराश हो गए थे । इसी परेशानी के चलते अब वह बीमार रहने लगे । अकेले बनाना खाना भी उनके लिए मुश्किल हो गया । अपने पिता की जरुरत को महसूस करते हुए श्यामा अपने पति का तबादला अपने गृहनगर में कराकर उनके साथ ही रहने लगी । उसकी सेवाभावना से प्रभावित पंडितजी अब अपनी पहले की सोच पर लज्जित थे ।
एक दिन उन्हें खबर मिली सुधीर ने वहीँ विदेश में एक लड़की से शादी कर ली है और वहां  की नागरिकता भी हासिल कर ली है ।
अब पंडितजी ने अपनी वसीयत बनवा ली थी । पत्नी की असमय मौत और बेटे की बेरुखी से पंडितजी बुरी तरह टूट चुके थे और इसी गम को सीने में लिए एक दिन दुनिया को अलविदा कह गए  ।
दरवाजे पर पंडितजी की अर्थी सजी थी और श्यामा के कानों में उनके कहे शब्द गुंज रहे थे जो वह अक्सर कहा करते थे ‘ बेटे हमारी मुक्ति का कारण बनते हैं ।’
सुधीर विदेश से जब तक पहुंचा पंडितजी का अंतिम संस्कार उनके अन्य परिजनों द्वारा किया जा चुका था । तेरहवीं के रस्म के दिन सबकी उपस्थिति में वकिल सुबास बाबु ने उनकी वसीयत पढ़ी । वसीयत के मजमून कुछ कुछ ऐसे थे ‘ मैं पंडित रामलाल अपनी समस्त चल अचल संपत्ति का वारिस अपनी पुत्री श्यामा को घोषित करता हुं । पुत्र सुधीर को लेकर मेरी धारणाएं कितनी गलत थीं इसका अहसास मुझे पत्नी के स्वर्गवास के समय ही हो गया था और मैं दावे से कह सकता हुं कि वह मेरे अंतिम संस्कार में भी उपस्थित नहीं हो सकेगा । ऐसे में मेरी मुक्ति का साधन बेटा नहीं मेरी बेटी है । ‘
वसीयत से उनकी पीड़ा साफ झलक रही थी और सुधीर अपराधी सा सीर झुकाए खड़ा था ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।