सामाजिक

क्या हमें आजादी मिल गयी ?

१५ अगस्त १९४७ को ब्रिटिश हुकूमत इस देश को इन देश वासियों के हवाले कर उन्हें अपनी गुलामी से मुक्त कर गयी । अपनी बनाई ट्रेनें, पटरियां, इमारतें, कारें, बसें, मशीनें इत्यादि कई चीजें वह यहीं छोड़ गए क्योंकि यह उनकी मजबूरी थी वह इन चीजों को अपने साथ नहीं ले जा सकते थे । एक और चीज जो वह यहां छोड़ गए वह है उनकी स्वंय को मालिक, सरकार और अपने से आधीन को  गुलाम समझने की मानसिकता । सत्ता के हस्तांतरण के साथ साथ नए सत्ताधारियों ने, व्यवसायिओं ने, आम जनता ने इस मानसिकता को बखूबी अपना लिया । यह धरोहर में मिली हुई मानसिकता कब कैसे ट्रांसफर होकर भारतीयों के मन में समा गयी उन्हें आज तक इसका अहसास तक नहीं हुआ ।

भारतीयों ने अंग्रेजों के अधीन काम किया था । उनके आने पर वह अदब से खड़े हो जाते थे । उनके घोड़ो की देखभाल किया करते थे, उनके घरों में नौकरों का काम करते थे ।  उनके आने पर अदब से झुक कर सलाम किया करते थे । कुर्सियों पर बैठ कर काम करने वाले अंग्रेजों के आने पर उठ कर खड़े हो जाया करते थे । कोई अंग्रेज यदि किसी भारतीय से खड़े होकर बात कर लिया करता था तो भारतीय अपने आप को गौरवान्वित अनुभव करता था । अंग्रेजों की नोकरी मिल जाने पर भारतीय अपने को नौकर और नौकरी देने वाले को अपना मालिक समझते थे ।

आज भी हम उस मानसिकता से मुक्त नहीं हो सके हैं । आज भी हम काम को नौकरी कहते और समझते हैं । नौकरी पर रखने वाले को हम आज भी मालिक, साहब  कहते और समझते हैं । यहाँ तक की घरेलू काम करने वाले और उसे काम पर रखने वाले के बीच आज भी नौकर-मालिक का रिश्ता उन्हीं अंग्रेजों के वक़्त से आज तक उसी प्रकार बना हुआ है ।

जब स्वयं गुलाम थे तो उससे मुक्ति चाहते थे । जब आजाद हुए तो जब कोई पैर छूता है, झुक कर सलाम करता है, अदब से खड़ा हो जाता है तो चरम सुख की अनुभूति होती है । जब कोई सम्मान से खड़े होकर बात नहीं करता तो अंदर ही अंदर गुस्से से भर जाते हैं उससे बदला लेने की सोचते हैं । यह   प्रवृति  अंग्रेजों से ली हुई मानसिकता है । अमेरिका की तरह कई देशों में  मालिक- नौकर की तरह का कोई रिश्ता नहीं होता । अधीनस्थ अपने से ऊपर वाले को उसके नाम से बुलाता है, उसके आने पर खड़ा नहीं हो जाता ।  नौकर- मालिक  का वही ब्रिटिश रवैया भारत में आज भी बदस्तूर जारी है । भारत के अतिरिक्त शायद ही किसी देश में ऐसी मानसिकता देखने को मिलती हो ।

अमेरिका में हर काम करने वाले व्यक्ति  का स्वयं का सम्मान होता है । व्यक्ति कहता है मैं अपना काम कर रहा हूँ जिसके बदले मुझे मेहनताना मिलता है । कोई मुझ पर एहसान नहीं कर रहा । मुझ से ऊपर वाला अपना काम कर रहा है । कई वर्षों पहले मैं अमेरिका गया हुआ था । मैंने एक कॉलेज में प्रवेश लिया था । कॉलेज बिल्डिंग के अंदर लगभग वहां की सभी बिल्डिंगों की तरह सिगरेट पीना  मना  था । सिगरेट पीने के लिए बिल्डिंग के बाहर बेंचें लगी हुई थी ।एक दिन उस कॉलेज का प्रिसिपल उस बेंच पर सिगरेट पीने आया । वहां पहले से कॉलेज का सफाई कर्मचारी बैठा सिगरेट पी रहा था । मैं यह देखकर हैरान रह गया की वह प्रिंसिपल उसी बेंच पर कर्मचारी के साथ बैठ गया उसने उस कर्मचारी से लाइटर लेकर  सिगरेट जलाई और दोनों गप्पें मारने लगे ।

एक बार मैं वहां एक डॉक्टर मित्र से मिलने उसके अस्पताल गया । मेरे वहां पहुँचने पर वह डॉक्टर मेरे लिए कुर्सी लाने चला गया , जबकि वहां की नर्स और दूसरे असिस्टेंट वहीँ थे । वह मुझे दवाई की दूकान तक लेकर गया और कहा की नंबर आने पर दवा ले लेना । अपने ब्रेक का वक़्त होने पर वह मुझे कॉफ़ी पिलाने अस्पताल की कैंटीन में ले गया अन्य लोगों की तरह लाइन में खड़ा रहा नंबर आने पर कॉफ़ी लेकर हम एक टेबल पर बैठ गए और कॉफ़ी पी । जरा तुलना कीजिये अपने देश के एक डॉक्टर की जो उसी अस्पताल में काम करता हो तो इस स्थिति में वह क्या करेगा ?

अपने ऊँचेपन के एहसास के लिए किसी का अपने से नीचा होना आवश्यक है । इससे व्यक्ति को मानसिक संतुष्टि मिलती है ।  अंग्रेजों की दी हुई मानसिकता के शिकार सिर्फ वह नहीं जो किसी को अपने से नीचे देखकर खुश हैं वह व्यक्ति जो अपने से ऊपर वाले की चाटुकारिता करते हैं समान रूप से जिम्मेवार हैं । अंग्रेजों की दी हुई कुछ परंपराएं आज भी भारत में देखी जा सकती हैं ।

१. अपने को नौकर और अपने बॉस या अफसर को अपने से श्रेष्ठ समझना ।  उसके ऑफिस में आते ही कुर्सी से उठकर खड़े हो जाना । उसे यस सर यस सर कहना ।

२. होटलों,  बड़ी बड़ी बिल्डिंगों में  दरबानों चौकीदारों या अन्य कर्मचारियों द्वारा ग्राहकों, संपन्न व्यक्तियों के पहुँचने पर खड़े होकर सल्यूट मारना ।

३. घऱेलू नौकरों से ऐसा व्यवहार जैसे हम मालिक हों और वह गुलाम । उनसे अपने लिए सम्मान की अपेक्षा करना । अपने से अधीनस्थों को डाँटना फटकारना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझना ।

४ जापान चीन कोरिया रूस इत्यादि देशों  में लोग अपने देश की भाषा बोलने में  गर्व महसूस करते हैं । इंग्लिश न आने को वह अपनी कमजोरी नहीं वर्ना अपनी देशभक्ति समझते हैं । हमारे देश के लोगों का हाल तो आपको पता होगा, इंग्लिश जानना इतना जरूरी समझा जाता है जैसे की इंग्लिश आती हो तो आप पढ़े लिखे हो वर्ना आप जाहिल गंवार हो। इंग्लिश बोलने में भारतीय इतना गर्व महसूस करते है की थोड़ी बहुत इंग्लिश बोलने वाला भी इंग्लिश बोल कर दूसरों पर रोब झाड़ना चाहता है  । कितनी दयनीय अवस्था है अपने देश की । यह है हमारी अंग्रेजों से ली हुई विरासत ।

बड़े बड़े व्यापारी, उद्योगपति , सरकारी अफसर ,जनता के चुने पंच, सरपंच , पार्षद, विधायक , लोक सभा सदस्य  आज भी अंग्रेजों की दी हुई मानसिकता से ग्रस्त हैं । जब इनके अधीनस्थ इनके पाँव छूते हैं इन्हें झुक कर सलाम करते हैं तो इनका सीन ५२ इंच का हो जाता है ।

जनता के चुने हुए प्रतिनिधि वोट के लिए हाथ जोड़कर अपने को आपका सेवक बताते हैं, चुने  जाने पर राज करने का इनका सपना पूरा होता है ।  फिर शुरू होता है इनका असली रूप । इन्हें वोट देने वाले इनके जीत जाने पर इनके पीछे दौड़ते हैं हाथ जोड़ कर अपना काम करवाने के लिए इनकी मिन्नतें करते हैं । विडम्बना यह है की आज भी मानसिक गुलामी कर रहा व्यक्ति  गुलामी का इतना अभ्यस्त हो चला है की उसे पता ही नहीं होता की वह गुलामी कर रहा है । उस पर राज कर रहे व्यक्ति को यह एहसास ही नहीं होता की वह कुछ गलत कर रहा है । अंग्रेजों की दी हुई परंपरा को बढ़ाने में हर भारतीय अपना पूरा योगदान कर रहा है ।

आज के नवयुवक जरा इस बात की ओर ध्यान दें, कुछ मजदूर संगठन अपने सदस्यों को आत्मसम्मान का पाठ पढ़ाएं । अफसरों के आने पर खड़े होने की परंपरा को तोड़ें । कुछ असंभव नहीं है आवश्यकता है दृढ़ इरादे की । जब भगत सिंह, चंद्रशेखर, वीर सावरकर गुलामी से मुक्ति के लिए अपनी जान दे सकते हैं तो अपने आत्मसम्मान के लिए हमारी पीढ़ी थोड़ा बहुत तो कर ही सकती है । जयहिंद ।

रविन्दर सूदन

शिक्षा : जबलपुर विश्वविद्यालय से एम् एस-सी । रक्षा मंत्रालय संस्थान जबलपुर में २८ वर्षों तक विभिन्न पदों पर कार्य किया । वर्तमान में रिटायर्ड जीवन जी रहा हूँ ।