नारी-संग
धन्य हुवा नर संगति पाकर।।
प्रकृति स्वरूपा ब्रम्ह अंग नारी श्रीपावन।
दया,क्षमा,उत्साह,प्रेम,श्रृंगार,सुहावन।।
ममता,त्याग,सरलता मूरत मोहक।
दिव्य अलौकिक लाजशील सम्मोहक।
यत्न सहेज श्री अपनाकर।।
शक्ति भक्ति पालन पूजन अर्चन बन्दन।
आत्म समर्पण कर करती अभिनन्दन।
तिरस्कार के कठिन क्लेश को सहती।
रहती तपस्वनी का सा जीवन यापन करती।
पुरुष रहा है जिसका चाकर।।
धन्य हुवा नर संगति पाकर।।
त्रिगुणी अनुपम सृष्टि सृजन श्री घर जन की।
संचालक रचना पालक संहारन की।
उपमाहींन रसों की स्वामिनी नारी ।
प्रेम ज्ञान सोपान पहचानो नारी।
कोटिन देव-अनंग निछावर।।
मर्यादा अनुशासन का आदर्श मनोहर।
सृष्टिकर्त्ता की अजब अमूल्य धरोहर।
मानवता के सृजन हेतु माँ कल्याणी।
देवियों की स्तुति करती देवों की वाणी।
धन्य सिंधु श्री सुता को पाकर।।
धन्य हुवा नर संगति पाकर।।
— जय प्रकाश शुक्ल