रिश्ते
प्रीत बरसती थी रिश्तों में
अंगारे क्यों भभक रहे हैं ?
बोए हमने फूल यहाँ थे
काँटे फिर क्यों उपज रहे हैं?
संस्कार अब विलुप्त हो गए
माँ -बहनें यहाँ लजाती हैं,
सरे आम लज्जा लुटने पर
अपराधिन सी बन जाती हैं।
कलयुग की काली आँधी ने
मान-सम्मान सब उड़ा दिया,
जिन मात-पिता ने जन्मा था
निज जीवन से ही हटा दिया।
वृद्धाश्रम में आज खड़े वे
नयनदीप नित जला रहे हैं,
घर-आँगन को तरस रहे उर
रिश्तों की बाट निहार रहे हैं।
रिश्तों की मंडी में हमने
निज देश दाव पर लगा दिया,
पाखंडी सैनिक ने देखो
अपनों का खून बहा दिया।
रिश्तों के कच्चे धागे में
गाँठ हर पल पनप रही है,
नफ़रत ,द्वेष, स्वार्थ में अंधी
मानवता भी धधक रही है।
खंडित रिश्तों की वेदी पर
अब पुष्प चढ़ाऊँ मैं कैसे ?
वटवृक्ष तन मुरझा सा गया
रंग जीवन में भरूँ कैसे ?
— डॉ. रजनी अग्रवाल ”वाग्देवी रत्ना”