कहानी

कहानी : मेवे वाला

विजयपुर किसी जन्नत से कम नहीं था. पहाड़ पर बसा एक बेहद खुबसूरत गाँव. उसके ऊपर कुछ था तो केवल नीला आसमान और तलहटी पर बहती थी बलखाती सतलुज. सर्दियों में जब विजयपुर हिम की चादर ओढ़ता तो आभा देखते ही बनती थी. देवदारू-बान का घना जंगल इसकी खुबसूरती को चार चाँद लगाते थे.

नवंबर का महीना शुरु हो चुका था. हवा में हल्की हल्की ठंडक तैरने लगी थी. यशोधा गौशाला में काम निपटाकर रसोईघर में व्यस्त थी.
गाय के गोबर से लिपा हुआ रसोईघर का फर्श, फर्श पर मिट्टी व गोबर के मिश्रण से की हुई बारिक कलाकारी यशोधा की दक्षता को दर्शा रही थी.
चूल्हे के पास बिछाई हुई खजूर की चट्टाई ,एक ओर खजूर के बिन्ने पर बैठी यशोधा, लकड़ी की पुरात में आधा गीला-आधा सूखा मक्की का आटा ,चूल्हे में बिहूल की जलती हुई लकड़ियां ,अगले आंवदे पर रखा तवा ,तवे पर अधकच्ची रोटी, पिछले आंवदेे पर तांबिया जिसमें पानी गर्म हो रहा था ,दूसरे आंवदे पर भाडू में बन रही दाल..यशोधा ने तैंथू से अंगारों को आगे खींचकर तवे वाली रोटी को नीचे सेंका,रोटी एकदम फूल गई.
बीच-बीच में यशोधा एक भजन की कुछ पंक्तियां गुनगुना रही थी. रघुपति राघव राजा राम…. अगली रोटी बनाने के लिए आटे की लोई बनाने ही लगी थी कि अम्मा…ओ.. अम्मा..बाहर से किसी ने आवाज दी. अम्मा का संबोधन पाकर यशोधा चौंक गई. जहन में सबसे पहला ख्याल आया अपने बेटे मंगलू का. मंगलू-उसके कलेजे का टुकड़ा. उसे लगा जैसे आंगन में खड़ा होकर उसी को पुकार रहा हो.
खुद को आश्वस्त करने के लिए यशोधा ने बैठे-बैठे ही कहा ‘कौण है ओ बाहरे’…
रोशनदान से झांक कर देखा तो उसका मंगलू नहीं बल्कि 13-14 वर्ष का एक लड़का.. कंधे पर झोला लटकाए खड़ा था. कौन है बे तू ?क्या काम है तुझे ?यशोधा ने पूछा.
अम्मा! मेरा नाम बिरजू है ..मैं मेवा बेचने वाला हूं… मुझे नहीं चाहिए मेवा….अरे नहीं अम्मा! मैं आपको मेवा बेचने नहीं आया….मुझे तो रहने के लिए एक कमरा चाहिए. पिछले घर में पता किया तो उन्होंने कहा कि आपके यहां कमरा खाली है..मैं मुंह मांगा किराया देने को भी तैयार हूं..आप दे दोगी ना मुझे कमरा अम्मा ! मैंने हर जगह पता कर लिया….अब आपसे ही अंतिम उम्मीद है.. सर्दियां खत्म होते ही कमरा छोड़ दूंगा… आप दे दोगी ना मुझे कमरा अम्मा! यशोधा ने एकटक नजर से उस बातूनी मगर प्यारे से लड़के को देखा. एक मन करा की नहीं देगी कमरा. पता नहीं कौन है ?कहां से आया है ?कैसे रहेगा ?क्यों किसी को घर में घुसा ले? पर फिर सोचा कि आज अगर उसका मंगलू होता तो बिल्कुल उसी के जैसा होता…आखिर एक कमरा ही तो है….उसको भी एक साथ मिल जाएगा…सर्दियों तक की ही तो बात है…चार पैसों की आमदनी भी होगी..!
अम्मा ! बोलो …मंगलू ने फिर से कहा.
रुक जरा मैं नीचे आती हूं.. यशोधा ने आटे से सने हाथों को धोया और आंगन में चली गई. पास जाकर जब देखा तो उसमें अपने मंगलू का अक्स पाया..वैसी ही बड़ी बड़ी आंखें ,ऊँचा लंबा कद मजबूत शरीर और बातूनी भी पूरा मंगलू जैसा ही… एक पल को तो लगा जैसे मंगलू ही वापस आ गया हो.. शायद कुलदेवता ने उसकी फरियाद सुन ली हो…
उसे बैठने के लिए एक खजूर का बिन्ना दिया ‘अब बता कहां से आया है तू? कितने लोग होंगे तुम यहां रहने वाले ?’
अम्मा मैं अकेला ही हूं ..बाकी साथियों ने पास के गांव में अपने लिए कमरा ले लिया है..हम कुल पांच लोग हैं..मेवा बेचने का काम करते हैं..सर्दियों में पहाड़ की तरफ निकल पड़ते हैं और सर्दियाँ खत्म होते ही वापस अपने घर की ओर …
‘और तेरे मां-बाप?’ यधोधा ने पूछा.
मां बाप तो बचपन में ही छोड़ गए. दूर के एक रिश्तेदार ने जैसे-तैसे पाल पोस कर बड़ा किया..अब तो वह भी नहीं रहे..बस टोली के लोग ही अपने हैं…पर मैं एकदम शरीफ लड़का हूं ..ना बीड़ी पीता हूं ना मदिरा ना भांग न सूल्फा.. आप दोगी ना कमरा अम्मा..!
‘और तेरे घर कहां है?’
घर तो मेरे उत्तराखंड में है केदारनाथ धाम का वासी हूं मैं … जय भोलेनाथ.बिरजू ने जोर से जयकारा लगाया.
उत्तराखंड़ का नाम सुनते ही यशोधा का दर्द जाग गया मानो भरते घावों को फिर से किसी ने कुरेद दिया हो.
दरअसल..कुछ वर्ष पहले उत्तराखंड में हुई भीषण त्रासदी ने यशोधा के पति और बेटे मंगलू को उससे छीन लिया था. कई महीनों तक तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा कुछ उसके साथ घट चुका है. बेचारी एक-दो बार उनकी तलाश में उत्तराखंड भी जाकर आई. वहाँ अनजान लोगों को उनकी तस्वीर दिखाती और पूछती कि देखा है क्या इनको..मगर सबका एक ही जवाब होता ना..नहीं देखा …
बह चुकी सड़कें,जड़ों समेत उखड़े हुए पेड़,बड़ी-बड़ी चट्टानें उस त्रासदी की भयानक तस्वीर पेश कर रहे थे जिन्हें देखकर किसी की भी रूह सिहर उठती.
यशोधा ने पिछले महीने ही अपनी जिंदगी के पचास बसंत देखे. पति हरिया और बेटे मंगलू की ग़ैरमौजूदगी ने उसे हिला कर रख दिया था….
मगर फिर भी यशोधा ने खुद को काफी हद तक संभाल लिया था.
विजयपुर गांव में उसकी 75 बीघा जमीन थी ,एक बड़ा घर, एक गाय ,दो भेड़ें भी पाल रखी थी. खुद को काम में इतना व्यस्त रखती थी ताकि काले अतीत की छाया उसके वर्तमान और भविष्य को प्रभावित ना कर सके…
गांव वाले उसकी हिम्मत और जिंदादिली की दात देते थे. इतनी जमीन में खेती हो रही थी. उजड़ नहीं डाली थी.
गांव वालों के बैल लेकर, किसी एक आदमी को दिहाड़ी पर लगाकर बीज बिजती थी.
कुछ खेतों में आलू लगाए थे ,कुछ में मक्की बीज रखी थी ,दो-तीन खेतों में धान रोपे थे.
अपने खेतों,अपनी फसलों को देखकर उसके चेहरे पर मुस्कान अनायास ही तैरने लगती थी. उसे लगता कि जैसे उसकी पति हरिया आज भी इन्हीं खेतों में बैलों की जोड़ी को हांक रहा है और उसका बेटा मंगलू पिता के पीछे पीछे चलकर फाट से ढ़ीली हुई मिट्टी में बीज डाल रहा है. ये खेत उसके खुशहाल अतीत की यादों को समेटे हुए थे.
इन्हें वह बंजर हरगिज़ नहीं डालना चाहती थी. मगर कुछ धूर्त लोगों की उसकी जमीन पर बुरी नजर थी जो सोचते थे कि कब जैसे मौका मिले और उसकी सारी जमीन हड़प ली जाए.
‘अम्मा…ओ अम्मा…’ अपने सुनहरे अतीत की यादों में खोयी यशोधा को मंगलू के शब्दों ने वापिस भविष्य में लौटा दिया था.. आंखों से आंसू निकलने ही लगे थे कि उसने अपने दुपट्टे से पोंछ लिए.
..तो कमरा मिल जाएगा ना… बिरजू ने उत्सुकता से पूछा.
बड़ा बातूनी है रे तू..चपड़ चपड़ बोलता ही रहता है.. कमरा तो है मेरे पास मगर कुछ बातों का ध्यान रखना है तुझे..समझा.. सफाई चाहिए मुझे..गंदगी मुझे जरा भी पसंद नहीं…झाड़ू लगाना पड़ेगा हर रोज़…दूसरा.. ऊंची आवाज में ना तो बोलना ..ना ही फिल्मी गाने चलाने ..किराया महीने की पहली तारीख को देना होगा. गांव में पहले भी कुछ लोग आए थे. पंद्रह दिन जमुना के घर रहे और एक दिन रातोरात भाग गए..सारा सामान भी ले गए कलमुँहे … कोई किराया भाड़ा भी नहीं दिया..
हा.. हा… हा… बिरजू हंस दिया मगर मैं ऐसा बिल्कुल नहीं हूँ अम्मा..मुझे सफाई पसंद है..और मैं किराया भी समय पर दे दिया करूंगा..बिरजू ने मुस्कुराते हुए कहा.

बिरजू को एहसास हो गया था कि उसे कमरा मिल गया है. यशोधा को कल सुबह सामान सहित आने की बात कहकर वह चला गया.
यशोधा सोचने लगी थी कि क्या उसने सही भी किया..है तो अजनबी और आजकल तो जमाना वैसे ही खराब है.. लूटपाट ,चोरी-डकैती तो बहुत ज्यादा होने लगी है पिछले साल भी गांव में चोरी हुई थी.. लक्ष्मी के जेवर गायब थे. कुल देवता के मंदिर में दान पात्र टूटा मिला था. वह तो जरूर उन प्रवासियों का काम होगा जो मनसाराम के घर लैंटर डालने आए थे. पर इस लड़के में जैसे शराफत थी भोलापन था और था भी बिल्कुल उसके मंगलू जैसा यशोधा ख्यालों के घने जंगल में खो सी गई.
अगली सुबह जब यशोधा गौशाला में गोबर हटा रही थी तो आँगन से किसी की आवाज आई …अम्मा ओ अम्मा… बाहर निकली तो देखा बिरजू था..सर पर एक बड़ा संदूक, कंधे पर एक झोला और साथ में दो और लड़के..उनके हाथों में भी सामान था.
संदूक को साथियों की मदद से जमीन पर रखते हुए बिरजू बोला. अम्मा ! ये हैं गोलू और पिंकू..मेरे ही गांव से है..दोनों लड़कों ने यशोदा को नमस्ते की और बिरजू को से कुछ बातकर चले गए.
यशोधा ने आंगन के कोने में बनी छोटी हौदी से नल खोल कर अपने गोबर वाले हाथ साफ किए. हौद के साथ वाले कमरे का ताला खोलते हुए बोली ..यह होगा तेरा कमरा बिरजू.. कमरा एकदम बढ़िया है…दीवारों पर पिछली दिवाली को ही चूना किया है.. रोशनदान भी है हवा के लिए.. बस तू सफाई का ध्यान रखना और दीवारें गंदी मत करना..
दरवाजा खुल चुका था. बिरजू ने कमरे में एक नजर दौड़ाई. कमरा उसे अच्छा लगा. उसे यशोधा की सारी शर्तें भी मंजूर थी. बिरजू सामान को कमरे में ले आया. एक थैला यशोधा भी ले आई. क्या लाया है बे इतना कुछ तू…ज्यादा नहीं अम्मा! कुछ कपड़े हैं..थोड़े से बर्तन है…एक थैले में मेवा है.. रुको मैं दिखाता हूं..बिरजू ने झट से थैला खोला. उस में छोटी-छोटी कपड़ों की पोटलियाँ थी..एक में बादाम, एक में किशमिश, एक में पिस्ता, एक में छुआरे, एक में मिश्री… बिरजू ने थोड़ा-थोड़ा हर पोटली से निकाला और यशोधा की ओर बढ़ाते हुए कहा..लो अम्मा.. खाकर तो देख..कैसा है.. यशोधा ने पहले तो थोड़ा इनकार किया मगर बिरजू के दोबारा कहने पर हथेली आगे बढ़ा ली.
यशोधा सोचने लगी कि जिद्दी तो बहुत है बिरजू.. बिल्कुल उसके मंगलू जैसा ,नटखट भी बातूनी भी….
कैसे प्यार से कहता है
.अम्मा जैसे मैं ही उसकी अम्मा हूं…पर कितना सुकून मिलता है उससे अम्मा सुनने में..जैसे मंगलू ही लौट आया हो..

कैसे लगे अम्मा मेरे मेवे? ..बिरजू यशोधा को विचारों के समंदर से वापिस ले आया. बहुत अच्छे हैं बे… हल्की मुस्कान के साथ यशोधा बोली. अगली सुबह से काम पर निकल जाऊंगा.. दिनभर मेहनत करूंगा..ताकि चार पैसे कमा सकूं..बाकि लड़कों ने भी काम शुरु कर दिया है..बिरजू ने सामान थैलों से निकालते हुए कहा. यशोधा ने भी सामान को लगाने में उसकी मदद की.
सर्दियां अब बढ़ने लगी थीं. सुबह जब सूरज सामने वाले पहाड़ पर से झांकने लगता तो विजयपुर में रौनक सी आ जाती थी वरना उस ठंडी सुबह में कोई बाहर नहीं निकलता. एक ऐसी ही सुबह यशोधा घर का काम निपटाकर गाय के लिए पत्ते लाने घासणी की ओर जाने लगी थी..अम्मा! मैं भी चलूंगा तेरे साथ पत्ते लाने यशोधा को जाते हुए देख बिरजू ने विनय पूर्ण ढंग से कहा. ‘तुझे मेवा बेचने नहीं जाना क्या !! रहने दे मैं खुद ले आऊंगी….’ ‘तो अभी इतनी धूप भी कहां खिली है अम्मा! जब अच्छी खासी धूप आएगी तब चला जाऊंगा….’
यशोधा समझ गई थी कि बिरजू अपनी जिद्द पर अड़ गया है…’चलो फिर’ मुस्कुराते हुई यशोधा ने कहा.
बिरजू के चेहरे की आभा बढ़ गई. दोनों घासणी की ओर बढ़ चले. यशोधा को बिरजू में अपने मंगलू की हर बात नज़र आती थी. उसे तो यही लगता था कि जैसे कुल देवता ने बिरजू के भेष में मंगलू को ही उसे वापस लौटा दिया है.
वह कौन सा मंदिर है अम्मा उस पहाड़ी पर ? बिरजू ने पहाड़ी की ओर इशारा करते हुए कहा. वह हमारे कुल देवता का मंदिर है ..यशोधा ने सर झुकाते लगभग दोनों हाथों को जोड़कर मंदिर की ओर देखते हुए कहा. बिरजू ने भी अम्मा को देखकर सर झुकाकर कुल देवता को प्रणाम किया. ये हमारी रक्षा करते हैं हमारी हर मनोकामना पूरी करते हैं और हमें खतरों से बचाते हैं. यशोधा ने चलते चलते हुए कहा. अच्छा इतने कृपालु है ये देवता बिरजू ने पूछा. बातें करते-करते दोनों कब घासणी पहुंच गए पता भी नहीं चला. यशोधा बिहूल के पेड़ पर चढ़कर पत्तियां निकालने लगी. बिरजू ने गिर रही पत्तियों के दो हल्के हल्के बोझे बनाए. दोनों ने बोझे पीठ पर उठाए और घर की ओर चल दिए.
जिस तरह समय आगे बढ़ता जा रहा था दोनों में आत्मीयता बढ़ने लगी थी. घर के बाकी कामों में भी बिरजू सुबह शाम मदद कर दिया करता था. काम भी पूरी तत्परता से करता जैसे उसके अपने घर का काम हो. शाम को जब मेवा बेचकर थका हारा घर आता तो यशोधा उसके लिए अदरक वाली चाय बनाती. जिसे वह सुड़प-सुड़प कर पी जाता.
एक शाम रोज की तरह बिरजू फेरी लगाकर लौटा. चेहरा कुछ उदास लग रहा था.
क्या हुआ बिरजूवा? आज कोई गाहक नहीं मिलया क्या?? बिरजू चुप रहा.
हुआ क्या तुझे? तबीयत तो ठीक है ना तेरी? यशोधा ने चिंता जताते हुए पूछा.
मन ही मन सोच रही थी कि कहीं गांव वालों ने तो नहीं डांट दिया इसे…या फिर प्रधान के लड़कों ने तो कोई शरारत नहीं करी इसके साथ….
यशोधा को चिंता होने लगी थी. नहीं अम्मा..तबीयत तो ठीक है…फिर इतना उदास क्यों है बे तू? पहले जैसा हंसता मुस्कराता भी तो नहीं है ? वो अम्मा…. बोल क्या बोलणा चाहता है…..यशोधा ने कारण जानने की उत्सुकता से कहा. वो अम्मा!!.. गांव की एक महिला ने मुझे आपके बारे में बताया…उसने कहा कि आपका परिवार उत्तराखंड…… बिरजू बोलते बोलते रूक गया.
यशोधा के चेहरे पर दर्द उभर आया था.. कोई हरकत नहीं..कोई शिकन नहीं..
अम्मा मुझे बहुत बुरा लगा.. बहुत दुख हुआ जानकर… सच में अम्मा… बिरजू की आंखों में आंसू छलछलाने लगे थे.
यशोधा उस घटना को याद करने लगी. ‘मेरा मंगलू…मेरा परिवार…’ कहते कहते यशोधा फफक-फफक कर रोने लगी.. अम्मा!! रो मत अम्मा!! भगवान की मर्जी के आगे किसका जोर है.. अम्मा देख मेरा भी तो कोई नहीं है दुनिया में…अनाथ हूं मैं अनाथ… यूँ कहते ही बिरजू की आँखों से गंगा जमुना बहने लगी.
चुप कर बे बिरजूवा.. मैं हूं ना तेरी अम्मा… अम्मा बोलता भी है और मुझे पराया भी समझता है तू…पगला कहीं का. यशोधा ने बिरजू को गले लगाते हुए कहा. बिरजू अब और जोर जोर से रोने लगा. कुछ देर दोनों सुबकते रहे. एक दूसरे को ढ़ाढ़स बनाते रहे. दोनों की आँखों से वर्षों का इकटठा हुआ दर्द रिसता रहा जिसे गंवाकर दोनों बहुत हल्का महसूस करने लगे थे.
अगली सुबह यशोधा ने गौशाला का काम निपटाया.. चाय बनाई..दो गिलासों में डाली और ओबरे में बिरजू के पास आ गई..बिरजू..ओ बिरजू! उठ!! दरवाजा खटखटाते हुए यशोधा ने कहा.. जब थोड़ा और दरवाजा खटखटाया तो पाया कि बिरजू अंदर नहीं था. कहां चला गया यह लड़का सुबह सुबह.. मेवों की पोटलियाँ भी अभी यहीं पड़ी है…
यशोधा ने आंगन में खड़े होकर इधर उधर देखा तो वहां भी बिरजू नहीं था. आँगन में एक कोने के पास जाकर जब नजर घर के सामने वाली पहाड़ी पर पड़ी..सूर्य उदय होने वाला था. पहाड़ी पर कुल देवता का मंदिर चमक उठा था.. जय सूरज देवा…नमस्कारी तेरे नाम की…जय कुलदेवा..!
यशोधा ने सर झुका कर नमस्कार की… कुल देवता के मंदिर को निहार रही थी कि उसी रास्ते किसी को गांव की तरफ आते देखा..’अरे !यह तो बिरजू है ..सुबह सुबह इतनी ठंड में कहाँ घूम रहा है ये पगला! .यशोधा ने खुद से बात करते हुए कहा…बिरजू बिजली की तेजी से पहाड़ी से नीचे उतर रहा था. कुछ समय बाद वह आँगन में पहुंच गया. ‘कहां गया था तू ?. देख तेरे लिए चाय लाई थी..अब तो ठंडी भी होने लगी है…’
बस अम्मा मंदिर तक गया था..बहुत अच्छा मंदिर है…. वो आपने कहा था ना कि देवता बड़ा दयालु हैं सबकी कामनाएं पूरी करता है तो मैं देवता से कुछ मांगने गया था…यशोधा ने बिरजू की बातों में छुपी मासूमियत देख कर मुस्कुराई. अच्छा… तो सुन ली क्या कुलदेवता ने तेरी फरियाद?
यशोदा ने बिरजू की ओर देखते हुए कहा.
पता नहीं ..बाद में ही पता चलेगा…वैसे क्या मांगा तूने आज कुलदेव से सुबह-सुबह ठंड में जाकर ? यशोधा ने चाय का गिलास बिरजू को थमाते हुए कहा.
दोनों आंगन की दिवाल पर बैठ गए थे. वो मैंने देवता को कहा… हाँ क्या कहा तूने ? कि आपको मंगलू और उसके बाबू जी को वापिस लौटा दे.
यशोधा ने एक बाजू बढ़ाकर बिरजू को गले लगा लिया और सामने वाली पहाड़ी पर स्थित कुल देवता के मंदिर को निहारने लगी. मानो जैसे पूछ रही हो कि देवा क्या इस मासूम की मन्नत को पूरा कर देगा तू? क्या कोई चमत्कार कर सकता है ?
मंदिर के ठीक ऊपर आसमान में पंछी उड़ रहे थे. नीला आसमान बहुत ही सुंदर दिखाई दे रहा था. धूप गांव के हर घर में दस्तक देने लगी थी. सारा गांव हरकत में आ चुका था. गांव की औरतें अपने अपने डंगरों की सेवा करने में लग गई थी
. बच्चे विद्यालय जाने की तैयारियां करने लगे थे.
यशोधा को बिरजू के रूप में एक भावनात्मक सहारा मिल गया था. वह उसे अपने बेटे के रूप में मान भी चुकी थी. बिरजू भी यशोधा को न केवल अम्मा कहता बल्कि दिल से मानता भी था. यशोधा बिरजू की हर हरकत में मंगलू को देखती थी. उसका ख्याल रखती थी हालांकि उसे भी पता था कि बिरजू उसका अपना बेटा नहीं है वह तो महज कुछ महीने बाद उसे छोड़ कर चला जाएगा. फिर क्यों इतनी भावनात्मक हुई जा रही है? आखिर यह मोह ममता कैसी जिसका कोई आधार ही नहीं? अब तो गांव की औरतें भी बातें बनाने लगी थी .. कहती फिरती थी कि एक अजनबी पर इतना विश्वास करना ठीक नहीं. माना की बेटे जैसा है पर है तो गैर की औलाद ही ना..’
खेतों से लौटते वक्त यशोदा को गोमती ने कहा कि ‘यशोधे.! है कौन ये लड़का जिसको इतना मानती है तू… इन फेरी वालों का क्या भरोसा कब हाथ साफ कर जाए …और तेरे पास तो कपड़े गहने भी बहुत है घर पर… क्या पता कब उसका दिमाग फिर जाए ?
यशोदा चुप रही.. कुछ नहीं बोली. एक मन तो कर रहा था कि सुना दे उसे खरी-खरी.. मगर एक अच्छी पड़ोसन होने के नाते सब सह गई. उसका एक मन कहता कि लोग सही भी तो कह रहे हैं. बिरजू तो कुछ ही दिन उसके पास है फिर तो वह चला जाएगा ..अपने घर..अपने प्रदेश..फिर इतना लगाव क्यों ? मगर दूसरे ही पल उसका दिल उसे बिरजू पर ममता की घनी छांव करने से नहीं रोक पाता. बेचारी यशोधा कशमकश में जी रहे थी.
सर्दियां खत्म होने की कगार पर थी. पहाड़ों पर बर्फ अब कम ही दिखने लगी थी. सर्दियों का अंत मतलब बिरजू का वापस अपने घर लौट जाना.
अम्मा…!! इन सर्दियों में मैंने तेरह हजार के मेवे बेचे. अच्छी कमाई हो गई. बिरजू ने पैसे यशोधा को दिखाते हुए कहा.
अरे वाह बिरजू… खूब मेहनत करता है बे तू…अच्छी रकम लेकर जाएगा अपने घर इस बार…यशोधा की बातों में हल्की सी निराशा भी थी ..
पता अम्मा! तुम्हारे दिए हुए ऊनी दस्तानों और स्वेटर ने मेरी बहुत मदद की. तभी तो ठंड में इतनी बिक्री हुई. बिरजू थोड़े उत्साह के साथ बोला जिसमें यशोधा के प्रति कृतज्ञता साफ झलक रही थी.
अम्मा गोलू ने ₹10000 और गोलू ने 11000 के मेवे बेचे.
गोलू कह रहा था कि वह अपनी मां के लिए एक साड़ी, छोटी बहन के लिए किताबें और अपने बापू के लिए कुर्ता ले जाएगा और पिंकू अपने छोटे भाई के लिए बल्ला , मां के लिए चप्पल ले जा रहा है.
दोनों बहुत खुश है…
हम्म्म्म्म…यशोधा बिरजू की भावनाओं को समझ गई थी. एक लड़का जिसका कोई परिवार है ही नहीं किस पर अपना पैसा खर्च करें ? किसके साथ अपनी खुशियां मनाए? किसे अपना दर्द सुनाए ? यशोधा बिरजू के दर्द को महसूस कर रही थी.
बिरजू के वापस जाने के दिन पास आने लगे थे
. यशोधा ने बिरजू से बात करना कम कर दिया था. उसे वह चाय भी कभी-कभार बना कर देती. न बिरजू की किसी काम में मदद मांगती.न शाम को उसके पास दिन भर की बातें सुनाती. प्यार का भूखा बिरजू यशोधा में आए इस बदलाव को भांप गया था.
..अम्मा !! क्या हुआ है तुझे? अब तू पहले जैसे क्यों नहीं रही ? ना मुझसे बात करती है? ना मुझे प्यार करती है? मुझसे कोई गलती हो गई है क्या ? बता मुझे अम्मा…
चुप कर तू…ज्यादा चपड़ चपड़ करता रहता है …अपने काम से काम रख…ज्यादा बात करना जरुरी है क्या ? क्यों करूं मैं तुझे प्यार ? यशोधा गुस्से में बोल गई जिसमें उसकी विवशता साफ नजर आ रही थी.
यह तू क्या कह रही है? क्या मैं तेरा बेटा नहीं हूं ?तूने खुद ही तो कहा था ना….
हां हां नहीं है तू मेरा बेटा… तू नहीं है मेरा मंगलू…मेरा मंगलू तो…..
बस अम्मा!!बस.. अब और न बोल..मुझ अनाथ को तूने इतना प्यार दिया. वह भी कम नहीं. आखिर क्यों देगी तू मुझे प्यार ? मैं तो पराई औलाद हूँ ना..पर तूने जितना भी प्यार मुझे दिया मैं उसे जिंदगी भर नहीं भूलूंगा.
यशोधा ने बिरजू की ओर पीठ कर ली थी. न जाने कैसे उसने खुद को इतना कठोर बना दिया था. कैसे वो इतना कुछ कह गई. उसकी आंखें समंदर हो चुकी थी. मन ही मन बिरजू से कह रही थी कि मुझे माफ कर दे बिरजू.. माफ कर दे मेरे बच्चे ! मैंने जो कुछ भी कहा सब झूठ है. मैं तुझ से बहुत प्यार करती हूं कितना कुछ कह गई तुझे..मुझे माफ कर दे….
बिरजू का गला भी भर आया था.
अम्मा.. मैं कल जा रहा हूं.. पिंकू और गोलू मेरा सामान बस अड्डे तक पहुंचा देंगे. फिर हम तीनों शाम की बस से चले जाएंगे. क्या..? तू जा रहा है यशोधा ने आंसू पोंछकर बिरजू की तरफ मुड़ते हुए कहा.
हाँ..अभी कुछ सामान बांधना है.
यशोधा भारी मन से बिरजू का सामान बंधवाने में उसकी मदद करने लगी.
उसका ममता भरा दिल तो कह रहा था कि बिरजू रुक जा बेटा..मत जा… रुक जा मेरे पास..अपनी अम्मा के पास…वहां किसके पास रहेगा ?कौन तेरा ख्याल रखेगा ? किसको मां कहेगा तू ?
रुक जा मेरे बेटे मेरे पास…
मगर उसके हाथ सामान बांधने में लगे थे. बिरजू यशोधा की तरफ देख रहा था मानो मन ही मन कह रहा हो कि अम्मा मुझे रोक ले…मुझे नहीं जाना तुझे छोड़कर…मुझे तेरे साथ रहना है तेरा बेटा बनकर….
मगर बिरजू अपनी इस ख़्वाहिश को यशोधा के सामने शब्द रुप नहीं दे पाया. सोचता रहा कि कहीं अम्मा मुझे गलत ना समझ बैठे और मुझ फेरीवाले की औकात ही क्या है ? कहां पूरे गांव परगने में अम्मा की इतनी इज्जत-सम्मान और कहां मैं? लोग, इनके नाते रिश्तेदार क्या सोचेंगे ? क्या कहेंगे कि एक अनजान को अपने घर में पनाह देकर परिवार का सदस्य ही बना लिया ..!! कितना कुछ सुनना पड़ेगा बेचारी अम्मा को मेरी वजह से…
नहीं..नहीं मेरी वजह से भोली अम्मा को कोई कुछ कहे..मुझे मंजूर नहीं ….
शाम होने को थी. यशोधा गाय को दूहने के लिए गौशाला में गई. बिरजू ने अम्मा की रसोई से मिट्टी का घड़ा उठाया और पानी लाने चौराहे के पास वाले हैंडपंप के पास चला गया. आज उसकी चाल बिलकुल धीमी थी. हर एक नजारे को बड़े गौर से देख रहा था मानो जैसे हर दृश्य को अपनी आंखों में सदा के लिए समेटकर रख लेना चाहता हो. प्रधान के घर के साथ वाले छोटे मंदिर के पास पहुंचकर थोड़ी देर रुका रहा.. देव पिंडियों को निहारा,सर झुकाकर नमन किया और आगे बढ़ गया. थोड़ा आगे जाकर दोराहे पर फिर रूका जहाँ से वह अम्मा के साथ घासणी की तरफ घास पत्तियां लाने जाया करता था. हर एक चीज़ जैसे उससे निवेदन कर रही हो कि बिरजू मत जा…यही का होकर रह जा….
ख्यालों में आकंठ डूबे बिरजू ने कब पानी से घड़ा भरा… कब घर पहुंच गया…पता ही नहीं चला. अम्मा रसोईघर में आ चुकी थी. बिरजू ने घड़ा कंधे से उतार कर फर्श पर एक कोने में त्रिड़े पर रख दिया.
बिरजूवा आ बैठ…बिन्ना ले बैठने को… यशोदा ने खजूर के बिन्ने को बिरजू की तरफ सरकाते हुए कहा.
बिरजू बैठ गया.
आज रात का खाना यहीं खा लेना बिरजू…मैं तेरे लिए सिडडू बना रही हूँ ..फिर तो तू चला जाएगा अपने घर….
सिड्डू का नाम सुनकर भी बिरजू का उत्साह ठंडा रहा. वरना वह तो अम्मा के हाथों बनी हर चीज की बड़ी तारीफ करता. बड़े चाव से खाता. मगर आज एकदम चुप रहा.
रात का खाना खाकर बिरजू अपने कमरे में आ गया. सारी चीजों को बांध चुका है यह सुनिश्चित कर रहा था ताकि सुबह जल्दी ही निकल सके. आराम करने के लिए खाट पर लेटा तो था मगर आज नींद कहीं गायब थी वरना उसे तो लेटते ही गहरी नींद आ जाया करती थी. मन में अनेक विचार कौंध रहे थे. अम्मा को छोड़ कर कहां जाएगा..? अम्मा का भी तो कोई नहीं है..
इसका ख्याल कौन रखेगा? बेचारी अकेली है….एक बार अम्मा से बात करके तो देखूँ.. मगर कहूंगा क्या…कैसे कह दूं कि मुझे तेरे साथ रहना है अम्मा….तेरे पास रहना है…तेरा बेटा बनकर…. तेरा मंगलू बनकर….
मगर कैसे? क्या अम्मा समझ पाएगी? क्या यह मेरी कोरी कल्पना ही तो नहीं है…
हाँ..कल्पना ही तो है…ऐसा कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता… हरगिज़ नहीं….’
बाहर टिड्डीओं के दल ने निशा गान शुरु कर दिया था तो बिरजू के भीतर विचारों की उठापटक लगी हुई थी.
यशोधा की आंखों से भी आज नींद गायब थी. एक मन कह रहा था कि बिरजू को रोक ले ..उसको मना ले..उस बेचारे का भी तो कोई नहीं है दुनिया में…कहां भटकता रहेगा? सोचती की क्या एक अनाथ को अपनी ममता की छांव भी नहीं दे सकती हूँ मैं? कैसी माँ हूं मैं ? क्या पता देवा की भी यही इच्छा हो…बिरजू को मंगलू की जगह मुझे सौंप दिया हो…मगर गांव वाले क्या कहेंगे? रिश्तेदारी में कई बातें होगी
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विचारों का ऐसा बवंडर उठा था कि कुछ भी निर्णय ले पाना मुश्किल था.
आखिर वो सुबह भी आ ही गई. यशोधा आज जल्दी उठ गई थी. गौशाला का काम निपटाकर रसोईघर में दही मथने के लिए घड़े को हिलाने लगी थी कि आँगन में किसी की आवाज सुनाई दी. रोशनदान से झांक कर देखा तो गोलू और पिंकू बिरजू का सामान कमरे से बाहर निकाल रहे थे. बिरजू दरवाजे को बंद कर रहा था. ‘तुम लोग रुको मैं अभी आता हूँ..बिरजू अम्मा से मिलने के लिए रसोई घर की तरफ बड़ा. ‘अम्मा ठीक है तो..मैं जा रहा हूं…आप अपना ध्यान रखना. यशोधा के पैर छूते हुए बिरजू ने कहा.
जिंवदा रैह! यशोधा ने बिरजू के सर पर हाथ फेरते हुए कहा. ज्यादा कुछ नहीं बोल सकी.. बोलती तो फिर खुद को रोक नहीं पाती.
अपना ध्यान रखना बिरजूवा.. रोटी की पोटली को बढ़ाते हुए यशोधा बोली.
तेरा सफर लंबा है..रास्ते में दोस्तों के साथ खा लेना..बिरजू ने पोटली को लिया और आंगन की तरफ बढ़ चला.
यशोधा दरवाजे तक आ चुकी थी. बिरजू ने दहलीज पर खड़ी यशोधा के अंतिम बार पाँव छुए. यशोधा कुछ नहीं बोली.
गोलू और पिंकू ने दोनों हाथों में थैले पकड़ लिए थे. जल्दी चल बिरजू! बस निकल जाएगी. पिंकू बोला.
बिरजू ने संदूक सर पर उठाया एक हाथ में थैला लिया एक नजर यशोधा को देखा और साथियों के पीछे पीछे चलने लगा.
दहलीज पर खड़ी यशोधा नंगे पांव ही आंगन में दौड़ पड़ी. बिरजू को जाते हुए देखने लगी. एक मन कह रहा था कि आवाज देकर बिरजू को वापस बुला ले.. उसको यूं जाने ना दे..मगर न जाने क्यों चुप रही. यशोधा के पाँव ठंड़ से सुन्न होने लगे थे. आंगन में लगे पत्थर किसी ग्लेशियर की तरह ठंडे लग रहे थे. मगर यशोधा को जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ रहा था. उसकी आंखों से आंसुओं की धार उसके कपोलों से गुजरती में एक लंबी रेखा बना रही थी.
आखिर क्यों नहीं रोका बिरजू को ? क्यों जाने दिया उसको? क्या खुशहाल जीवन जीना गुनाह है ?
जितने तीव्र वेग से यशोधा के मन में विचार कौंध रहे थे उतनी ही तेजी से आँसू निकलने लगे थे. वह सोचने लगी कि देवता ने भी इंसाफ नहीं किया उसके साथ.. उसकी भक्ति में आखिर क्या कमी रह गई थी?
आज यशोधा देवता से मानो जैसे कुछ सवाल करना चाहती थी. बहुत रूष्ठ थी देवता से ,नाराज़ थी.
यशोधा ने दरवाजे के पास पड़ी चप्पल पहनी और कुलदेव के मंदिर की ओर बढ़ गई मानो जैसे वह देवता को सामने बिठाकर अपने लिए ईंसाफ मांगना चाहती हो.
दूसरी तरफ बिरजू साथियों संग बस अड्डे की ओर बढ़ तो रहा था मगर मन अभी भी पीछे रह गया था. आंसूओं से उसकी आंखे भर आई थी. मानो जैसे आंखों के आगे अंधेरा छा रहा हो.
सोच रहा था कि क्या वह यूँ ही खानाबदोश जिंदगी जीता रहेगा? क्या यही उसकी जिंदगी है ?क्या यूं ही गुजर जाएगा उस का पूरा जीवन?
उसे लग रहा था जैसे भगवान ने सारे ज़माने के दुख उसी के भाग्य में लिख दिए हो. लग रहा था जैसे भगवान खुद कितना असंवेदनशील और लाचार है ..
उधर यशोधा मंदिर की चढ़ाई चढ़ने लगी थी. वह जल्द से जल्द मंदिर पहुंचना चाहती थी. विचारों की ऐसी उधेड़बुन में फंसी थी कि मंदिर तक की चढ़ाई कब चढ़ गई पता ही न चला.
मंदिर परिसर में कोई नहीं था इतनी सुबह होता भी कौन. यशोधा ने मंदिर परिसर की सबसे निचली सीढ़ी पर चप्पल उतार दिए. परिसर के एक कोने में बनी पानी की टंकी से नल खोलकर हाथ धोए. कुछ छींटें खुद को डालकर पवित्र किया. सर पर दुपट्टा आगे बढ़ा लिया.
वर्गाकार भूखंड पर बना हुआ मंदिर. चारों तरफ का नज़ारा साफ दिख रहा था. मंदिर परिसर के ठीक मध्य में देवता का वास स्थान. मंदिर की घंटी बजाकर यशोधा देव प्रतिमा के ठीक सामने आकर बैठ गई. कुछ देर देव प्रतिमा को एकटक देखती रही. चेहरे से भावशून्य , न कोई शिकन न कोई हावभाव. फिर अचानक फफक-फफक कर रोने लगी.
देवा ! मेरे साथ ऐसा क्यों किया तूने? क्यों किया देवा? पहले मुझसे मेरे परिवार को छीना. आज तक मुझे उनकी कोई खबर नहीं है. क्या पता जिंदा है भी या नहीं……
देवा ! मुझ अभागिन पर ऐसा जुल्म क्यों ? क्या कमी रह गई थी मेरी भक्ति में देवा?
हर साजी को तेरी पूजा करती हूँ. फसल के आने पर सबसे पहले तुझे भोग लगाती हूँ. हर रोज तेरे नाम का दीपक जलाती हूँ.. तुझे तो पता है ना देवा कि मेरे मन में कोई खोट नहीं. क्या कमी रह गई थी मेरी ममता में कि तूने बिरजू को भी मुझसे छीन लिया ?
यशोधा के प्रश्न एक के बाद एक निकलते जा रहे थे. ऐसे प्रश्न कि कोई सुनता तो उसका दिल भी पसीज जाता. उसकी दारुण्य हालत देख कर कोई भी पलकें भीगो देता.
अपने आंसू पूछते हुए यशोधा ने ध्यान दिया कि देव प्रतिमा के पास एक पोटली में बादाम ,एक में पिस्ता ,एक छुआरे, एक में किशमिश रखी है. यह बिरजू ने देवता को चढ़ावा लगाया था. उन्हें देख यशोधा फिर से रोने लगी. ओ देवा! मुझ कुल्च्छिणी को तो तू सजा दे रहा है पर उस भोले बिरजू की पुकार तो सुन लेता. देख तेरे दर पर आकर प्रार्थना करके गया है वो. उसकी फरियाद तो पूरी कर देता तू… यह क्या किया तूने देवा? यह क्या किया ?
यशोधा ने अपना सिर देव प्रतिमा के आगे मंदिर के फर्श पर टिका दिया. आँखों से आंसुओं की जैसे बाढ़ सी आ गई थी.
यशोधा ने इसी बीच पाया कि जैसे किसी ने उसके कंधे को छुआ. खुद को संभालते हुए ,आँसू पोंछे. पीछे मुड़कर देखा तो बिरजू खड़ा था.
अम्मा !…मुझे नहीं जाना है कहीं … नहीं जाना मुझे….तेरे पास रहना है…तेरे साथ रहना है…तेरी सेवा करनी है..तेरे हर काम में हाथ बटाना है…तेरे हाथ की बनी रोटी खानी है… मुझे अपना ले अम्मा… मुझे अपने पास अपना नौकर रख ले….
बिरजू रोते-रोते एक ही सांस में सब कह गया.
मेरे बच्चे….मेरे बिरजू….तू नहीं जाएगा कहीं भी….मेरे पास रहेगा तू…मेरे साथ रहेगा..मेरा नौकर नहीं पगले मेरा बेटा बनकर…तू मेरा मंगलू है…मेरा बच्चा है तू…कहते कहते यशोधा ने बिरजू को गले से लगा लिया और ममतावश उसके चेहरे को न जाने कितनी बार चूम लिया.
मानो जैसे उसका मंगलू वापस आ गया हो. मानो जैसे देवा ने उन दोनों को अपने ही दर पर मिला कर उनकी भक्ति और साफदिली का सुफल दिया हो.
कुछ देर दोनों सुबकते रहे, एकदूसरे के आँसू पोंछते रहे.
अम्मा! यह लो गेहूँ के दाने ,चंदन की धूपणी और फूल आज साजी है ना.. तू देवा को चढ़ावा चढ़ाना भूल गई थी. बिरजू ने एक पोटली यशोदा को थमाते हुए कहा.
यशोधा ने देवता को चढ़ावा चढ़ाया. दोनों ने देव प्रतिमा के समक्ष घुटनों के बल झुककर माथा टेका …अपनी अपनी मन्नत पूरी होने पर देवता का धन्यवाद किया और मंदिर की सीढ़िया उतरने लगे.
दूर पहाड़ी पर आसमान सुर्ख लाल होने लगा था. सूरज उदय होने वाला था. गांव में हलचल होने लगी थी. सूर्य की पावन किरणों ने गांव के साथ-साथ बिरजू और यशोदा के जीवन में भी प्रकाश कर दिया था.

क्षेत्रीय शब्दों के अर्थ :-
1. बिन्ना :- एक तरह की चट्टाई जिसे रसोईघर में बैठने के लिए प्रयोग किया जाता है.
2. त्रिड़ा :- रसोईघर में बर्तन आदि रखने के लिए कपड़े या किसी धातु का गोला जिससे बर्तनों को रगड़ लगने से व फर्श गंदा होने से बचाया जाता है.
3. दिवाल:- आँगन के एक तरफ बनी मिट्टी /पत्थरों की छोटी सी दीवार
4. भाडू:- दाल आदि बनाने के लिए प्रयोग किया जाने वाला बर्तन जिसे चूल्हे पर ही अधिकांश ईस्तेमाल किया जाता था
5. चूल्हे का आंवदा:- चूल्हे का वह भाग जिस पर बर्तन रखकर आंच लगाई जाती है.

मनोज कुमार शिव

पिता का नाम : श्री गोकुल राम ठाकुर वर्तमान/ स्थायी पता : गाँव – लोअर घ्याल,पत्रालय – नमहोल, तहसील – सदर, जिला – बिलासपुर (हिमाचल प्रदेश ), पिन – 174032 मोबाइल – 08679146001/8219995180 - व्हाट्स एप नंबर ) ई - मेल : shivkumarmanoj@gmail.com शिक्षा : बी.एस.सी (मेडिकल), एम.बी.ए.(वित एवं मार्केटिंग) l जन्म तिथि : 15 दिसम्बर , 1986 व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश ग्रामीण बैंक में कार्यालय सहायक के पद पर कार्यरत l प्रकाशन : हिमप्रस्थ, कथादेश, परिकथा, गिरिराज साप्ताहिकी, शब्द मंच जैसी विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएं प्रकाशित l साँझा संग्रह:- दिल्ली से प्रकाशित 'भारत के प्रतिभाशाली रचनाकार', 'हम-तुम', संपादक जितेंद्र चौहान जी के 'लघुकथाऐं' में रचनाएँ प्रकाशित। प्रकाशित पुस्तकें : पहले कविता संग्रह की पाण्डुलिपि तैयार हो रही है, शीघ्र ही प्रकाशन l संस्था : बिलासपुर लेखक संघ (हि .प्र.) के सदस्य हैं l सम्मान : बिलासपुर लेखक संघ (हि .प्र.) द्वारा आशुतोष नवोदित लेखन पुरस्कार से सम्मानित l प्रसारण : दूरदर्शन, शिमला (हि.प्र.) से कविता पाठ का प्रसारण एवं हिमाचल प्रदेश में कवि सम्मेलनों में भागीदारी l