कविता

कविता—बिन साजन के सावन कैसा

बारिश की बूंदों से जलती हीय में मेरे आज सुलगती

पीपल के पत्तो की फडफड जैसे दिल की धडकन धडधड

चूल्हे पर चढ़ गयी कढाई दूर हुई दिल की तन्हाई

लेकिन सबकुछ लागे ऐसा बिन साजन के सावन कैसा.

चलती है सौंधी पुरबाई हुए इकट्ठे लोग लुगाई

उनके वो और वो हैं उनकी खड़ी अकेली मैं हूँ किनकी

हाय रे हाय ये शाम का ढलना रात बिरहिनी सुबह का खिलना

लेकिन सब कुछ लागे ऐसा बिन साजन के सावन कैसा.

रात में मोहे चाँद चिढाता दिन में सूरज सिर चढ़ आता

आँखों में यादों के डोरे साजन मैं तुम चाँद चकोरे

बहुत हुई तेरी रुसवाई जाता सावन ओ हरजाई

लेकिन सब कुछ लागे ऐसा बिन साजन के सावन कैसा.

सास ननद का ताने कसना तेरी यादें खट्टी रसना

सखी सहेली करें ठिठोली मोहे न सुहाए उनकी बोली

बारिश की ठंडी बौछारें सिहरन मुझको मारे डारें

लेकिन सब कुछ लागे ऐसा बिन साजन के सावन कैसा.

अब के आजा ओरे सईयाँ डाल दे मोरे गले में बहियाँ

मैं बन जाऊं तेरी चेरी सौलह की हो जाऊं छोरी

लाल लिपस्टिक मांग सिंदूरी रेशमी जुल्फें बदन अंगूरी

लेकिन सब कुछ लागे ऐसा बिन साजन के सावन कैसा.

सजनी से साजन का मिलना शरबत में चीनी का घुलना

रात चांदनी और मिलन सजन का मन से मन और मिलन बदन का

मैं बगिया की हुई मोरनी साजन के दिल की हूँ चोरनी

लेकिन सब कुछ लागे ऐसा बिन साजन के सावन कैसा.

[समाप्त]

 

धर्मेन्द्र राजमंगल

लेखक- कहानी और उपन्यास / प्रकाशित उपन्यास- मंगल बाज़ार, अमरबेल. amazon.in पर उपलब्ध. ईमेल- authordharmendrakumar@gmail.com