स्त्री
झूठे प्यार की उम्मीद में आशियाना सजा लेती है ,
एक स्त्री त्यागकर अपनी सभी इच्छाएं खुद को मना लेती है ।
छोड़कर वो नीड़ बिताये थे जहां बरसों उसने ,
एक अनजानी डगर को बनाकर अपनी मंजिल उम्र गुजार लेती है ।
माँ बाप वो गुड़ियों का बसेरा सभी भुला देती है,
बनाकर झिड़कियों को अपना नसीब ताउम्र घर को बुहार लेती है ।
वो किताबें,वो सखियाँ,वो पुराने रास्ते थे कभी अपने
भुलाकर सपनों का शहर अपनी तमाम यादें खुद को संवार लेती है ।
कल्पनाओं के सफर में उड़ान अब भी याद आती है
रखकर पीछे अपनी यादें बच्चों में खुद को ढाल लेती है ।
ऐश आराम के ख्वाब तो सिर्फ सपने ही रह जाते हैं
एक स्त्री तमान उम्र जिम्मेदारियों से खुद को बांध लेती है ।
वो मर्द है कुचलना जानता है आज भी एक औरत को ,
ताउम्र जिसे सात बंधन के गुरूर में बनाकर मंगलसूत्र गले में टांग लेती है ।
शायद उड़ रही हैं आज भी हजारों लड़कियां ख्वाबों की आस में ,
एक स्त्री बनकर आज भी वो खुद को पराधीन बना लेती है ।
गजब की आत्म शक्ति है उसके रूप और रंग में ,
एक स्त्री ओढ़कर झूठी मुस्कान जख्मों को जेवर से लाद लेती है ।।
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़