सात दिन की माँ
भारत देश की सबसे सौभाग्यशाली स्त्री वो होती है जो स्वयं स्त्री होते हुए लड़के को जन्म दे, फिर भागवती को चार-चार लड़के थे। भला उससे ज़्यादा भाग्यशाली कौन हो सकता है? तिस पर भी अब तक लगता था कि भाग्य की देवी घर में टांग पसार कर लोट गई हैं क्योंकि लड़की तो एक नहीं और पहली बहू को भी पहले लड़का ही हुआ। इससे भाग्य की बात भागमती को क्या हो सकती थी।
पर आदमी का लालच उसका पीछा कहाँ तक नहीं करता? भाग्य की देवी भी अब लेटे-लेटे ऊब गई थी और ऊबती भी कैसे न? आख़िर देवी भी तो स्त्री होते हुए केवल लड़कों के आने से ही भाग्य देती थीं। तो वे ऊब गई थीं और इसलिए उठकर चल दीं। राम-भरत-लक्षमण-शत्रुघ्न से लड़के हुए सो हुए अब रामायण को आगे बढ़ाते हुए भागमती उत्तर रामायण में प्रवेश करना चाहती थी और लव के बाद कुश के होने की राह देख रही थी।
प्रसवगृह में विशनपुरावाली जितना कराहती भागमती पोते के लिए उतनी प्रार्थना करती। वैसे उसका नाम विशनपुरावाली नहीं था। किसी लड़की का नाम ऐसा नहीं होता। पर औरतों का तो होता है न, क्योंकि इस गाँव में और आस-पास के सभी गाँव में शादीशुदा औरतों को उनके मायके के नाम से ही जाना जाता है। मायके का मतलब जिस गाँव से लड़की ब्याह कर लाई गई है, उस गांव का नाम ही अब उसका नाम है।
भागमती प्रसवगृह से निकलकर पुरुषों की बैठक की ओर चल दी। देखा तो गंगाधर मड़ैय्या में गाय के अभी-अभी दिए हुए बछ्ड़े को खड़े होने में मदद कर रहे है। घंटों से रंभा रही गाय भी अब चुप है।
बछड़े को देख भागमती के मुखारविंद से टपका-
“का हो? इहाँ भी….”
गंगाधर भागमती का मुँह देखकर समझ गए कि बड़ी बहू को अबकी लड़की हुई है। गंगाधर के जीवन में बड़े दिनों बाद ऐसा दुर्भाग्यशाली दिन आया था, दुर्भाग्यशाली क्योंकि गाय ने बछड़ा दिया था, जो किसी काम का नहीं और बहू ने बेटी, जो और भी ज़्यादा काम की नहीं। काम की नहीं सो नहीं उल्टे और कर्ज़ा बनकर ही आई समझो क्योंकि अभी तो ठीक से पैदा भी नहीं हुई कि अभी से ज़ायदाद का एक बड़ा हिस्सा उसके ससुराल की भेंट चढ़ता नज़र आ रहा था।
भागमती इस दुहरी हानि से त्रस्त हो, माथा ठोंक वहीं मचिया पर बैठ गई। अभी अपने भाग्य को कोसने ही वाली थी कि मड़ैया में शिवबाबू आए और आए भी गाज गिराने।
“अरे गंगा भैइया! भोला ख़ातिर लईकी-वईकी देखत हउअ कि ना।”
भागमती बिफर पड़ी। भला भोला के लिए लड़की क्यों देखेंगे? वह तो सबसे छोटा है। जबकी अभी तो बब्बन बाक़ी हैं।
भागमती के सारे दर्द आज फूट-फूट कर कराह रहे थे। छग्गन को आज लड़की हो गई और रज्जन तो तीस का हो चला मगर आठ कुछु नहीं हुआ। पढ़े-लिखे बब्बन को ढूँढ़े लड़की नहीं मिल रही। जो मिलती है तो घर वाले ठनठन गोपाल या लड़की ही में कोई दोष।
जहाँ कहीं गंगाधर घर-दुआर देखकर रिश्ता कर भी आते तो भागमती लड़की देखने जाती और जाते ही उसे ऐसे तौलती जैसे राजा ऑटोमन के बाज़ार में दास-दासियां तौली जाती थीं। बेखोट तो कोई लड़की पैदा ही नहीं हुई तो भागमती को मिले कैसे?
छग्गन की शादी में जितना मिला था उससे तो ज़्यादा ही मिलना चाहिए बब्बन की शादी में, उसे ज़्यादा पढ़ाया-लिखाया गया ही है, इसी बात के लिए।
रज्जन? उसकी तो बात ही मत करो। उसकी तो धोखे से शादी हो गई। जिन्हें मालामाल समझकर ब्याह कराया था, कंगाल निकले क्योंकि ब्याह के समय खुलकर कुछ मांगा नहीं और ब्याह के बाद पता चला कि दे भी न पावेंगे।
सोचा था लड़की को ताने पड़ेंगे तो अपने आप लछनपुर वाले कुछ न कुछ दे जाएंगे। मगर विशनपुरा वाली का उदाहरण दे-देकर भागमती थक गई। कुछ न आया। आता कैसे? कुछ हो तो आए। जो बढियां शादी छग्गन की हुई थी विशनपुरा वालों के यहाँ, वैसी दुबारा न कर पाई। आज भी विशनपुरावाले आते हैं तो कुछ न कुछ बढियां ही लाते हैं।
मगर ई मरे लछनपुर वाले खरे बेशर्म के बेशर्म, भैंस की चमडी वाले, लडकी को इतना ताना दिया। आते हैं तो भी कोई आव-भगत नहीं, फिर भी कोई असर नहीं। विशनपुरावालों से कुछ नहीं सीखते।
इसलिए इस बार भागमती तय कर चुकी थी कि धोखा नहीं खाएगी। जो माँगना है, माँग कर रहेगी। फालतू की अटकलें नहीं लगाएगी। सब कुछ एकदम साफ़। भई जो है सो है। कोई चोरी-डकैती तो है नहीं। देना है तो वरना दूसरा घर देखो। हक है तभी तो माँग रहे हैं। कोई ज़ोर-जबरदस्ती थोड़े न है। करनी है करो, वरना रास्ता नापो।
भागमती के इतने सारे दर्द आज एक साथ उमड़ आए थे। पर उसे पता नहीं था कि शिवबाबू और भी तगड़ी गाज गिराने आए थे। भागमती तो समझी थी कि बब्बन की उम्र का ताना मार रहे हैं। पर वो क्या जाने की बात कुछ और ही है। सो सारे गम एक साथ गलत करती हुई शिव बाबू पर चीख पड़ी।
“अरे हाय हाय! इ का कहत हईं। लड़की खोजात ह। आज न त कल बियाह होई ए जाई।”
शिव बाबू मुस्कुराए। भागमती समझी रतन की शादी में खूब ऐंठे हैं, इसलिए मुसुकरा रहे हैं। जबकि रतन का ही गोइयां बब्बन अभी भी दहेज के लिए भटक रहा है। उसकी मुस्कुराहट भागमती की खिल्ली उड़ा रही थी। मगर तीन-तीन बेटियों वाले शिव बाबू का पलड़ा अभी भी हल्का ही था। एक रतन की शादी करा देने से भारी नहीं हो गया। यही सोचकर दुल्हा ढूँढने का ताना मार दिया।
“आप त अब बैलन क जोड़ी ढूँढीं। उ हो, तीन ठो।”
“अरे भौजी! काँहे खुन्सात हईं। हम त तीन ठो खोजबे करब। तोहार छुट्टी भइल बब्बन बो ढूँढला से।”
भागमती को करारा झटका लगा।
पिछले कई महीनों से आस-पास के गाँवों में पकड़उआ बिआह की जो घटनाएं हो रही थीं, उसके बारे में भागमती ने सुन तो रखा था मगर कभी ध्यान नहीं दिया। उसे क्या पता था कि जिस बेटे को सबसे होनहार दूल्हे की उपाधि देकर उसने गर्व से दूल्हों के बाज़ार में उतारा था वो बेमोल पकड़उआ बिआह की भेंट चढ़ जाएगा।
शिव बाबू जो गाज गिराने आए थे गिरा के चलते बने। मगर भागमती जो टूट कर गिरीं तो फिर न संभली।
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दिनभर दादी ने कुछ नहीं खाया। छोटंकू थाली लेकर जबरदस्ती दादी को खिलाने में लगा था। लछनपुरवाली सब जानती थी। लछनपुरवाली, हाँ उसको भागमती तो लछनपुरवाली ही बुलाती थी। मगर अभी भी उसका पति उसे शांता ही बुलाता। कभी-कभी तो चंचला भी बुला देता था, क्योंकि शांत तो वो बिल्कुल नहीं थी। इसी बात की चिढ़ भागमती को भी थी कि भला इतना क्या प्रेम है इस लड़के को कि सीधा नाम से ही पुकार लेता है। जोरू का गुलाम कहीं का। और नहीं तो क्या, पत्नी से प्रेम का सीधा अर्थ जोरू का गुलाम ही तो होता है। वरना पत्नी प्रेम करने के लिए थोड़े न होती है।
तो लछनपुरवाली जानती थी कि उसके कहने से तो उसकी सास खाएगी नहीं और सौर में पड़ी विशनपुरावाली आ नहीं पाएंगी खिलाने, कहीं पोते के खिलाने से ही खा लें। इसलिए छोटंकू को ही समझा-बुझाकर भागमती के पास भेजा उसने।
दादी महारानी ठहरी कठोर पत्थर, अधहन के खौलने से कहाँ गलने वाली थीं। पर फिर भी अभी पसीजने ही वाली थीं कि बर्फ का ठंडा पानी पड़ गया। दरवाज़े पर बब्बन, मुँह लटकाकर अपनी दुल्हन के साथ खड़ा था।
भागमती कहाँ मानने वाली थी। झनककर उठी और ऐसे बोलीं जैसे कोई बिजली की नंगी तार छूकर बोल रहा हो।
“अकेले अईह।”
…दरवाज़ा दे मारा।
भागमती जो थाली खाने भी वाली थी, वह नहीं खाई। उसी थाली को उठाकर शांता ने रसोई में ढक दिया और ढककर जैसे ही मुड़ी कि उसका सिर घूम गया। चक्कर से आने लगे और दरवाज़ा का पल्ला धरकर झूल गई। झूलती-झूलती धम्म से गिर पड़ी।
शांता को अकेले सारा काम करने की आदत नहीं थी मगर विशनपुरावाली के प्रसव ने अचानक ही उसके माथे पूरा घर-भर का काम दे मारा था।
सौर में विशनपुरावाली के बगल में बैठी दाई ने वहीं से शांता को गिरते देख लिया और उसकी ओर लपकी। उठाकर बिठाया और पानी-वानी दिया।
तब तक शोर सुनकर भागमती भी कमरे से निकल आई कि आज के दिन बस धरती या आसमान का फटना बाक़ी है। कहीं वही तो नहीं हो गया।
जब भागमती घटनास्थल पर पहुँची तो उसने देखा न आसमान फटा न धरती ही बल्कि दाई उसे देखकर बेतहाशा मुस्कुरा रही थी। वह जितना मुस्कुरा रही थी भागमती को मन ही मन उतनी ही खीझ बर रही थी – बूड़बक को किस बात की खुशी है जो दाँत चिआर रही है। लड़का पैदा होता तो खाँची भर कर पहनने-ओढ़ने-खाने को मिलता। अभी किस बात की खुशी मना रही है, वो भी लछनपुरवाली के गिरने पर। ये लछनपुर वाली भी एक ही बम्मड़ है, हाथ-पैर तोड़ लेगी तो घर का काम करने के लिए भी कोई न होगा।
पर दाई ने मुस्कुराते हुए भागमती के जागे भाग्य की सूचना दी।
“लक्ष्मी क गोड़ ह तोहार नतिनी के।”
“काहें? का भईल?”
“आठ बरिस क ऊसर कोख फूट पड़ल।”
लछनपुरवाली शांता शर्म से गड़ गई।
भागमती के चहरे पर अगले कुछ पलों में ही कई रंग आए और गए। पहले तो उसे बात समझ नहीं आई कि दाई किस ज़मीन की बात कर रही है।
फिर जीवन के सारे अनुभवों को दिमाग़ में निचोड़ा तो जाना कि औरत भी तो ज़मीन होती है जिस पर लड़के उगते हैं और आठ बरस से कुछ न उगानेवाली तो लछनपुरवाली ही है।
फिर उसे तनिक खुशी हुई और होंठ के कोरे खींच गए कि विशनपुरावाली ने आज जो नुक़सान कर डाला है, शायद भाग्य की देवी आज उसकी भरपाई का मौक़ा दे रही हैं। आज शुक्रवार भी है, लक्ष्मी जी का दिन।
खुशी उसकी बिजली से भी कम समय के लिए चमकी क्योंकि अचानक उसे ख़्याल हो आया कि वह तो दोनों मियां-बीबी पर कड़ी निगरानी रखती थी, फिर कैसे? लेकिन हो भी सकता है। रज्जन तो है ही मऊगा। मेहरारू के पल्लू से बंधा, जोरू का गुलाम। लखेद-लखेद के कितना भगाओ आँगन से फिर परिकल कुकुर की तरह आँगन में ही घूमता नज़र आ जाता है और पूरे गाँव में भला कौन है ऐसा जो अपनी मेहरारू को नाम से बुलाता है भला कहो तो।
काश विशनपुरावाली की तरह लछनपुरवाली के मायकेवालों ने भी कुछ हाथ गरम किया होता शादी में, तो भागमती के हर क्रोध का भागी नहीं बनती शांता और विशनपुरावाली शान से तो नहीं रहती मगर कम से कम शांति से तो रहती है। ताने भी नहीं सुनाती भागमती उसे। सुनाएगी भी कैसे? अपना मन, तन, जीवन और सबसे बड़ी बात धन जो लगा दिया है इस घर को सँवारने में उसने। उसके घरवाले दे सकते थे और दिया भी, औकात से बढ़कर दिया।
मगर लछनपुरवाली के घरवालों की औकात? छोड़ो ये कौन सोचता है कि क्यों नहीं दे सके, दिखता तो बस यही है न कि नहीं दिया। औक़ात हो या नहीं हो, नहीं दिया बस।
तो भागमती के चेहरे पर कुछ देर के लिए मायूसी छा गई कि उसकी कड़ी निगरानी विफल हो गई। उसके कड़े अनुशासन में कैसे इन मियां-बीबी ने सेंध लगा दी। भले ही इन मियां-बीबी में मियां उसका अपना बेटा रहा हो।
इस मायूसी ने भी भागमती के चेहरे पर स्थायी भाव नहीं लिया। यह भाव पलट कर शंका का भाव चेहरे पर उभर आया। कहीं दाई से गलती तो नहीं हुई है। भला उसे कैसे पता कि सच में…। नहीं-नहीं दाई धोखा नहीं खा सकती, यह तो उसका बरसों पुराना काम है।
भागमती ने दायी के चेहरे को ध्यान से देखा, जैसे उसे समझ ही न आ रहा हो कि वह कह क्या रही है। उसने उसका दिनोंदिन बढ़ती झुरियोंवाला चेहरा देखा, उसके झुरियाते हाथ देखे जो कुछेक साल में निष्प्राण हो जाएंगे। बुढ़ापा आने के साथ-साथ यह दाई भी बौराने लगी है। इसे कुछ समझ नहीं आ रहा है, कुछ भी आयं-बायं बक रही है। पता नहीं सौर का काम भी ठीक से कर पा रही है आजकल या नहीं। लड़के कि जगह पेट से लड़की निकाल दे रही है।
अंतत: भागमती ने शांता का लजाता चेहरा देखा और उससे उसकी लाली बर्दाश्त नहीं हुई। उसने मान लिया कि दाई की बात का विश्वास नहीं किया जा सकता।
दाई को डपटकर बोली – “पगला गईली का रे?”
दाई को घोर अपमान महसूस हुआ। आज तक कभी नहीं हुआ कि किसी के गर्भवती होने की सूचना देने पर उसे पागल की उपाधि दी गई हो। लोगों ने तो इस खबर पर क्या-क्या नहीं लुटाया है और वह भी आठ साल तक शादीशुदा रहने के बाद जो गर्भ ठहरा होतो उसकी सूचना पर उसे ईनाम मिलना चाहिए था। मगर ईनाम मिला तो ये? पागल?
“तू ही पगलाइल बाड़ू, तोहार कुल खानदान पागल…..”
भागमती को कोसती और बड़बड़ाती हुई दायी आँगन पार कर घर से बाहर हो गई और कसम ली कि अब इस घर में ना घुसेगी। जहाँ उसकी गरज नहीं वहाँ से उसे कोई नाता नहीं।
पर जाते-जाते भागमती के मन में किरौना तो छोड़ ही गई। आख़िर बिना डॉक्टर को दिखाए कैसे पता चले?
बाहर दाई ऐसा हो-हल्ला मचाती गई कि घर में तो घर में मुहल्ले तक में सबको बात पता चल गई। भागमती न माने दाई की बात को ठीक है। पर डॉक्टर को दिखाना तो चाहिए। घर के सभी सदस्यों ने ज़ोर दिया तो उसे मानना पड़ा।
उसकी इससे भी बड़ी समस्या यह थी कि लछनपुरवाली को अस्पताल भेजे तो भेजे किसके साथ? भोला शहर में पढ़ रहा है; बब्बन तो बिआह करके बिला गए; भसुर के साथ भेज नहीं सकती और रज्जन के साथ शांता को देखकर तो रगों में अधहन खौलने लगता है।
सुलगे हुए चूल्हे जैसा मुँह बनाकर भागमती ने दोनों मियाँ-बीवी को साथ अस्पताल जाने की इजाजत तो दे दी मगर शांता को झूमता देख भागमती के दिल में भरसाईं झौंकने जितना धुँआ उठ रहा था।
अस्पताल की बेंच पर बैठे दोनों रेडियोलोजिस्ट के बुलाने का इंतजार कर रहे थे और याद कर रहे थे कि पाँच-छ: हफ्ते पहले ही तो माई गाँव में किसी के घर सत्यनारायण कथा सुनने गईं थी और भौजी को भी साथ ले गईं थी कि उनको सत्यनारायण भगवान के आशीर्वाद से लड़का ही हो। लड़का होता तो हमारे घर भी कथा होती। लेकिन, खैर इस बीच रज्जन को शांता घर में अकेली मिल गई थी।
यह ज़रूर उस सत्यनारायण कथा का प्रताप है। वरना मौक़ा कहाँ मिलता था? माई भी तो आते ही घरभर खोजने लगी रज्जन को। मगर अपना ही कमरा खोजना भूल गई। हे हे हे।
रज्जन अभी मन ही मन उसी दिन को याद कर हंस रहा था कि शांता का नंबर आ गया।
रेडियोलोजिस्ट ने अपना काम खत्म किया तो वह बिस्तर से उठकर कंप्यूटर की स्क्रीन देखने लगी। स्क्रीन पर एक काला-काला सा धब्बे जैसा कुछ था जिसमें कभी-कभी लालिमा की चमक भर जाती थी। कमाल है न इस वैज्ञानिक युग का। राई से भी छोटी औलाद दिख जाती है। भरा-पूरा बच्चा बाहर आने से पहले कहाँ कोई पेट में झाँककर बच्चा देख पाता। अब भाभी को ही देख लो, जब तक दाई ने बाहर नहीं निकाला तब तक कहाँ कोई देख पाया। कोख में सेंध लगाने वाली बढ़ियां मशीन है।
नर्स ने भी पुष्टि की कि वो बच्चे की ही तस्वीर है। शांता का दिल बल्लियों उछलने लगा। उसने अपने अस्त-व्यस्त कपड़े ठीक किए और रेडियोलोजिस्ट से ही पूछ लिया कि कितने दिन का है।
“यही कोई साढ़े पाँच हफ्ते।”
शांता बाहर आई तो उसके चेहरे की चमक ने ही रज्जन को गुदगुदा दिया।
भागमती अब तक जरल हरेठा होकर रह गई थी। मगर उस जलते हुए हरेठा पर शीतल जल पड़ गया जब दाई वाली ख़बर की पुष्टि हुई। उसने तुरंत दोनों को लड़का होने का आशीर्वाद दिया।
शांता के मन में आया कि पूछे, भला वह कैसे लड़का ही पैदा कर सकती है। आम उगाने से आम होता है और केला उगाने से केला। मगर लड़का कैसे उगता है ये तो भागमती ही बता सकती है कि जाने क्या खा कर चार-चार लड़का ही पैदा की है।
ख़ैर इस तरह का सवाल कर शांता अपने जीवन में पहली बार आई इन खुशियों को आग नहीं लगा सकती। आख़िर उसकी सास ने पहली बार इतने मान से उसके सर पर हाथ धरा और विशनपुरावाली तो अक्सर गले से लगाती है, आज भी लगा लिया।
शांता इतनी खुश है, इतनी खुश है कि चिड़िया सी फुदकती हुई घर के सारे काम करती जा रही है। विशनपुरावाली को भी नहीं करने दे रही। भागमती भी सोच रही है कि चलो कभी तो घर के सारे काम वह भी कर लिया करे।
विशनपुरावाली ने हुज्जत की तो भी नहीं मानी। लेकिन दो बच्चों की माँ ठहरी। उसे चिंता सताने लगी एक होनेवाली माँ की। जब शांता नहीं मानी तो उसने हिम्मत जुटाकर पहली बार मुँह खोला और भागमती से कहा कि उसका इतना ज़्यादा काम करना ठीक नहीं है।
भागमती की भौंहें तन गई कि इस गाय-बाछी के मुँह में भी ज़बान आ गई। ये मुझे बताएगी कि क्या ठीक है और क्या नहीं। मुझे नहीं दिख रहा क्या कुछ? तुनकर घुड़क दिया।
“तू ना करत रहलू?”
विशनपुरावाली को आगे बोलते नहीं बना कि हां मैं तो करती थी, मगर मुझे तो आदत भी थी। उसे कहाँ आदत है इतना काम करने की। पर बोल न सकी।
आख़िर वही हुआ जिसका डर था। शुक्रवार की रात थी। खून तो शांता को बहुत पहले से बह रहा था मगर उस रात पेट में ऐंठन और दर्द के साथ ज़्यादा ही बह गया तो उसे बताना ही पड़ा। दाई ने आने से मना कर दिया और फिर अस्पताल का ही सहारा लेना पड़ा।
अगले दिन फिर रज्जन और शांता उसी बेंच पर बैठे रेडियोलोजिस्ट के बुलाने का इंतजार कर रहे थे और याद कर रहे थे कि पिछले हफ्ते कितने खुशी-खुशी वे यहाँ से लैटे थे। आज फिर ऐसा ही हो। तरह तरह कि मन्नतों से दोनों का सिर भर गया।
रेडियोलोजिस्ट ने अपना काम खत्म किया तो वह बिस्तर से उठकर कंप्यूटर की स्क्रीन देखने लगी। सात दिन पहले ऐसे ही स्क्रीन पर एक काला-काला धब्बा सा था, जो अब दिखाई नहीं पड़ रहा था। बिना उस धब्बे वाले सपाट स्क्रीन को देख शांता का दिल धक से हो गया।
फिर भी अपने आप को सँभालकर उसने अपने अस्त-व्यस्त कपड़े ठीक किए और रेडियोलोजिस्ट के चेहरे की ओर देखा। रेडियोलोजिस्ट उससे आँखें चुरा रहा था।
उसने उसे आँखें चुराने का मौका देते हुए स्क्रीन की ओर देख कर कहा।
“डॉक्टर ई कंप्यूटरवा में का देखलीं आप?”
रेडियोलोजिस्ट इस सवाल से बचने की कोशिश कर रहा था और चाहता था कि जो बताना है डॉक्टर ही इन्हें बताए। पर शांता को अपनी शंकाओं का समाधान जल्द से जल्द चाहिए था।
रेडियोलोजिस्ट ने फिर नाक-नुकुर की तो शांता ने अपनी कांपती हुई उंगली को स्क्रीन की ओर दिखाकर और गोल-गोल घुमाकर अपनी शंका जता ही दी।
“पेछली बार एमें एक ठो करिया-करिया धब्बा जईसन रहे।”
इस भोलेपन से माँगे गए उत्तर से रेडियोलोजिस्ट के गले में कुछ अटक सा गया। उसकी हिम्म्त नहीं हुई शांता को सीधे मुँह कुछ कहने की।
“आपके साथ कोई और भी है?”
रज्जन को भी सोनोग्राफी वाले कमरे में बुला लिया गया। उसने रज्जन को तन्मयता से बताया कि फिलहाल शांता के पेट में कुछ नहीं है। अगर कुछ रहा होगा तो वह अब गिर चुका है और साफ़ हो चुका है। उन्हें चाहिए कि आगे की कार्रवाई के लिए डॉक्टर से जाकर मिलें।
रेडियोलोजिस्ट चला गया। दोनों कमरे से बाहर आकर एकदम स्तब्ध से बेंच पर बैठे रहे और रिपोर्ट आने का इंतज़ार करने लगे ताकि वे रिपोर्ट लेकर डॉक्टर से मिल सकें और डॉक्टर बता सके कि कुछ नहीं हुआ है बल्कि रिपोर्ट में ही कुछ खराबी है।
सोनोग्राफी की रिपोर्ट देखते ही डॉक्टर के माथे पर बल पड़ गए। वैसे तो डॉक्टर रोज़ ही ऐसे केस देखता था। रोज़ ही उसे मरीज़ों को बताना पड़ता था कि अब उनके पेट का बच्चा नहीं रहा। फिर भी मरीज़ों की प्रतिक्रिया का अनुमान लगाकर उसके माथे पर बल पड़ ही जाते थे क्योंकि कब कोई रोना-चीखना-चिल्लाना शुरू कर दे, पता नहीं। फिर कोई न भी रोए-चिल्लाए, दु:ख तो सब को होता ही है।
डॉक्टर के माथे पर पड़े एक-एक बल से शांता और रज्जन के माथों पर सैकड़ों बल पड़ गए। सच्चाई तो रेडियोलोजिस्ट उन्हें बता ही चुका था पर वे मानने को तैयार नहीं थे। डॉक्टर के चिंतित चेहरे ने उन्हें मानने पर मजबूर कर दिया। अब तो डॉक्टर का कुछ बोलना न बोलना बराबर था। फिर भी बताना तो पड़ेगा।
शांता के पीड़ादायी चेहरे को एक बार देखकर डॉक्टर ने अपनी नज़र रज्जन की ओर घुमा ली।
“मुझे अफसोस है।”
“मगर कईसे साहब? कौनो कारण त होई?”
डॉक्टर रिपोर्ट में दिए पति का नाम पढ़कर फिर उससे मुखातिब हुए।
“नहीं राजेंद्र। कोई कारण हो भी सकता है और नहीं भी। ऐसी चीज़ें बस हो जाती हैं। कुछ किया नहीं जा सकता।”
डॉक्टर के इतना भर कह देने से कि कुछ किया नहीं जा सकता, दोनों ने मान लिया कि अब कुछ नहीं किया जा सकता। दोनों के चेहरे से पीड़ा बह निकली। मगर आँसूं नहीं निकले। एक-दूसरे को हैंसला देने के लिए दोनों ही ने अपने आँसूं थामें रखे। आज तो रज्जन उसे चंचला भी नहीं कह सकता था क्योंकि आज वो सच में शांता थी, शांता देवी।
“आप बस कुछ दिन ख्याल रखिए इनका और जल्द ही खून गिरना बंद न हो तो वापस आइएगा, डी एंड सी करनी पड़ सकती है। एक बार और चेकअप तो करना ही पड़ेगा, अगले हफ़्ते।”
दोनों बाहर आ गए। घर लौटने की हिम्मत नहीं हो रही थी तो वहीं मरीज़ों के बीच बेंच पर बैठ गए।
बेंच पर बैठे-बैठे ही दोनों ने गम गलत किया। बाएं हाथ से बेंच थामें और दाएं हाथ को शांता के घुटने पर रखकर रज्जन अस्पताल के खंभे को निरंतर ताक रहा था कि शांता ने कहना शुरू किया।
“रोहण भैया याद हं?”
रोहण रज्जन के मौसेरे भाई थे, जो पिछ्ली गर्मियों में ट्रेन से कटकर मर गए थे। रज्जन से छोटे थे पर पढ़े-लिखे कुछ ज़्यादा थे। शादी भी नहीं हुई थी उनकी। रज्जन की मौसी ने बड़ी ज़िद से उन्हें पढ़ाया-लिखाया था और गोबर-गोइंठा से दूर ही रखा था।
शांता आगे बोली।
“मौसी केतना रोअली?”
रज्जन अभी भी दूर देख रहा था उसकी ओर नहीं पर सुन सब कुछ रहा था। सुनने से ज़्यादा समझ रहा था। समझ रहा था कि वो अपना गम छोटा करने के लिए एक बड़े गम की लकीर खींच रही है। बता रही है कि कैसे कोई पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया बच्चा खो देता है। हमने तो अनदेखा, अनजाना बच्चा खोया है।
“इतना बुरा भी नईखे?”
दोनों के मुँह दूसरी ओर थे। मगर रज्जन के दाएं हाथ पर गिरी एक बूँद ने बता दिया कि बुरा तो है और इतना ही बुरा है। उसने शांता की ओर नहीं देखा। देखना भी नहीं चाहता था। जानता था कि ये बूँद कहाँ से गिरी और नहीं चाहता था कि शांता के अपने आपको मज़बूत करने के प्रयासों की बीच आए।
वो जानता था कि हाथ पर बूँद क्यूँ गिरी? और गिरती भी कैसे नहीं? सात दिन से जो माँ बनी फिर रही थी, थी तो माँ ही।
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