चोर
वह इधर-उधर भटक रहा था। शायद बेमतलब या हो सकता है मतलब से भी। पिछले तीन दिन से वह कोई चोरी नहीं कर पाया था। मिनिस्टर साहब को भी अभी आना था। और कहींजाते किसी बड़े शहर में आराम से चुनावी रैली करते, भाषण-वाषण देते। इस कस्बे में क्या धूल फाँकने आए हैं। जीना हराम कर दिया है। जहाँ देखो, तहाँ पुलिस।
उसने मेन रोड के किनारे छवाए हुए पान, चाय, नाश्ते, लस्सी की दुकानों को देखा। सूखे हुए होंठो पर जीभ फेरता हुआ एक नाश्ते की दुकान के बाहर खड़ा हो गया।
जेब में हाथ डाला तो ऊँगलियों ने एक पाँच का सिक्का महसूस किया। उसने फट से हाथ निकाल लिया और हवा में लहराकर चिल्लाया- “छोटू एक गिलास पानी तो पिला।”
उस छोटू ने दुकान के भीतर से सर उठाकर उसे देखा साथ ही गल्ले पर बैठे दुकान के मालिक ने। दुकान का मालिक ग्राहक देखते ही लपक लिया।
“अरे जनाब बाहर क्यों खड़े हैं? अंदर आकर चाय-नाश्ता-खाना किजीए।”
“नहीं-नहीं। केवल प्यास लगी थी। अभी दोपहर में तो खाना खाया था। थोड़ी देर बाद भूख लगेगी तो आऊँगा। वैसे भी अभी तो खाने का समय भी नहीं हुआ है।”
दुकान-मालिक ने अपनी दुकान की लंबी-लंबी खाली बेंचों को देखा और हाँ में सिर हिला दिया।
“सही कह रहे हैं। (उस छोटू से) चल पानी पिला दे साहब को।”
किसी के चेहरे पर कभी ये नहीं लिखा होता है कि उसके जेब में कितने रूपए हैं या फिर उसका पेशा क्या है। वरना दुकान-मालिक छन्नू को न तो साहब कहता न पानी ही पिलवाता।
छन्नू ने सड़क के किनारे लगे खेतों के उस पार देखा तो सूरज आज के दिन की अपनी यात्रा खत्म कर अपने घर लौट रहा था। पता नहीं सूरज का घर कैसा होगा? उसके घर में खिड़की-दरवाज़ें होंगे कि नहीं, चोर के घुसने लायक खिड़की होगी कि नहीं। लेकिन सूरज का घर पश्चिम में है तो अगले दिन वह पूरब से कैसे निकलता है? कहीं वह भी छन्नू की तरह एक चोर तो नहीं जो रात को आसमान की पश्चिमी खिड़की से घुसकर सुबह में पूरब की खिड़की से निकलता है।
छन्नू अपने कस्बे की गलियों से गुज़र रहा था। वैसे उसका नाम छन्नू नहीं था। थाने में भी उसके कई नाम दर्ज़ थे। मगर हाँ, कई नामों में एक छन्नू भी था।
उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि कहाँ जाए? जब से मंत्री जी के आने की खबर लगी है पुलिस रात में भी चौकसी से गश्त लगाने लगी है। कितनी लंबी उमर है पुलिस के साइरन की। अभी भी कहीं आस-पास बज रही है और नागरिकों को अपनी मुस्तैदी से आश्वस्त कर रही है।
ज़रूर थाने की ओर जा रही है पुलिस की जीप। छन्नू ने सोचा कि क्यों न वह भी थाने की ओर जाए। आस-पास की इतनी सारी पुलिस इकठ्ठा हुई है कि किसी एक का भी पर्स मार लेगा तो दो-तीन दिन का काम बन जाएगा। और नहीं मार पाया, पकड़ा गया तो भी दो-तीन दिन के लिए जेल के खाने का इंतज़ाम हो जाएगा।
छन्नो ने थाने से थोड़ी दूर एक चाय वाले के बेंच पर तशरीफ टिका दी। चाय वाले के यहाँ अपने ग्राहक बहुत थे। इतनी चहल-पहल में किसी को फुरसत नहीं थी कि देखे कौन खाली बैठा है, कौन सिगरेट फूँक रहा है और कौन चाय पी रहा है।
वैसे चाय यहाँ अच्छी बनती है। मगर सिर्फ चाय ही बनती है, साथ में खाने के लिए पकौड़ा-पकौड़ी नहीं। बनती भी तो छन्नू इस वक्त कुछ खरीदकर खाने की स्थिति में नहीं था। उसने पाँच रूपए की बचत इसलिए कर रखी थी ताकि वह उसका निवेश किसी चोरी में कर सके। मसलन किसी के आगे पाँच रूपए गिराकर, पीछे से पाँच हज़ार का बटुआ गायब कर सके।
बेंचपर बैठे-बैठे उसने दोनों कुहने घुटनों पर टिका दी और हथेलियों में मुँह छुपा दिया। हल्के से ऊँगलियों के बीच जगह बनाकर वह थाने पर ध्यान केंद्रित करने लगा।
थाने पर काफ़ी चहल-पहल थी। छन्नू को नए-नए चेहरे दिखाई पड़ रहे थे। नए-नए पुलिसवाले। पुराने वाले भी थे, इधर-उधर।
तभी एक जीप आकर रुकी और अचानक चहल-पहल रुक गई। उससे कोई बड़ा पुलिस का आदमी उतरा। अंधेरे का समय था और थाने की मध्यम रोशनी में छन्नू उस आदमी के रैंक नहीं देख पा रहा था वरना तुरंत समझ जाता कि कौन आला अधिकारी पहुँचे हैं जिन्हें देखते ही सारे पुलिस वाले लाइन से खड़े होकर सलाम ठोंकने लगे। एसपी हैं, एडीशनल एसपी हैं या फिर डीएसपी ही हैं। वैसे ही कुछ हैं शायद। ऐसे तो ऐसा कोई आला अधिकारी इधर नहीं आता।
उस आला अधिकारी ने कुछ निर्देश जैसे दिए और उन पुलिस वालों के बीच से गुज़रते हुए एक मोटे-थुलथुल सिपाही की बेल्ट पकड़कर ज़ोर से हिलाते हुए जाने क्या-क्या बोला। सब सहम गए।
सबसे ज़्यादा छन्नू सहम गया। क्योंकि यह मोटा-थुलथुल सिपाही छायाराम है जिसकी मदद से छन्नू को कभी-कबार जेल में भी सिगरेट और बाहर का खाना मिल जाया करता था। हाँलाकि इसके लिए छायाराम की अपनी फीस थी। पर कभी-कभी उसने बिना फीस के भी छन्नू के लिए यह काम किया था।
छन्नू ने सोचा था इस बार पकड़ा गया तो छायाराम की फीस उधारी पर रखकर उससे काम करवा लेगा। मगर उसने ये तमाशा देखा तो खुद छायाराम को असहाय पाया। उसका मन तो किया कि उस आला अफसर की जेब पेंट सहित उड़ा ले जाए।
पुलिस वालों की जेब पर हाथ साफ़ करने के छन्नू के इरादे अब ढीले पड़ते जा रहा थे और अगली घटना देखकर तो बिल्कुल ही बदल गए।
थोड़ी देर में एक आदमी को घसीटते हुए थाने की ओर लाए। उसके आते ही चार-पाँच पुलिसवालों ने उसे घेरकर धुनाई करनी शुरूकर दी। उसे थाने में ले जाना भी ज़रूरी नहीं समझा। सबसे ज़्यादा लात-घूँसे तो छायाराम चला रहा था जैसे वह रानू न हो वही आला अधिकारी जिसने उसकी बेल्ट पकड़कर हिलाई थी।
रानू? हाँ रानू ही तो है। छन्नू नज़र गड़ाकर देखा। सचमुच रानू है। उसने दो-एक चोरियां रानू के साथ मिलकर की थीं। मगर उनकी जोड़ी बन नहीं पाई। दरअसल चोरी करते समय रानू सबकुछ बटोरने के चक्कर में खतरा पैदा कर देता था जो छन्नू को पसंद नहीं था। छन्नू का सोचना था कि अगर अच्छा-खासा माल हाथ आ जाए तो छोटी-मोटी चीज़ें छोड़ देनी चाहिए, उसके लिए अपने को खतरे में नहीं डालनी चाहिए।
वो और रानू कई बार पकड़े गए थे मगर थाने वालों ने थोड़ी बहुत बदसलूकी के बाद उनको जेल का जमाई बना लिया था। ऐसा कभी नहीं हुआ कि इतनी बेरहमी से पीटे गए हों जितनी आज।
छन्नू काँप गया। खाली पेट पिटने का गम और ज़्यादा होगा। उसने सोचा पता नहीं पकड़े गए तो इस समय थाने का नाम रोशन करने के चक्कर में कौन-कौन सी तगडी धाराएं लगा दीं जाएं और उनके मुताबिक थर्ड डिग्री भी दी जाए। सिर्फ चुनाव में अपनी मौजूदगी जताने के वास्ते।
छन्नू चुपचाप अंधेरे में गायब होकर उन्हीं गलियों में भटकने लगा। और भटकते-भटकते एक गली के बीचोंबीच पहुँचा। चारों तरफ पुलिस की मुस्तैदी देखकर छन्नू ने चुनाव को एक ज़ोरदार गाली दी और उस घर के बाहर बह रहे नाले में थूक कर खड़ा हो गया। सिगरेट के लिए आदतवश उसने जेब में हाथ डाला तो पाँच का सिक्का हाथ में आया। उसने सिक्का हवा में उछालकर पकड़ना चाहा मगर चूक गया।
अभी वह नीचे गिरे सिक्के को उठा रहा था कि उसके कानों में एक ऊँची आवाज़ पड़ी। उसने देखा नाली के ऊपर एक खिड़की है जो थोड़ी सी खुली हुई है और उससे रोशनी छनककर नाले में पड़ रही है। सिर्फ रोशनी ही नहीं आवाज़ें भी छननकर उसके कानों में पड़ रही हैं।
उसने उस सास-बहू के वार्तालाप को बड़े ध्यान से सुना और नोट किया। वैसे वह नहीं ध्यान से सुनता तो भी उनकी आवाज़ आराम से उसके कानों में पड़ जाती क्योंकि अपनी जगह से हिलने की बजाय सास उस मकान के किसी आगे वाले हिस्से से बैठे-बैठे चीख-चीखकर उस बहू से बाते कर रही थी जो किसी भीतरी कमरे में थी।
“हाँ अम्मा, ढूँढ रही हूँ। पर मिल नहीं रही।”
सास ने मातम मनाने के लहज़े में अपना कोई पिछला प्रलाप दुहराया।
“अरे आठ भर की अँगूठी थी। मेरी अम्मा की आखिरी निशानी थी। हाय भगवान जी कहाँ ले गए मेरी सोने की अँगूठी।”
छन्नू खड़ा-खड़ा हँस पड़ा। भला भगवान जी को इनकी अँगूठी से क्या काम? काम तो मुझे है, मगर मैंने तो ली नहीं।
सास तो बेवकूफ थी ही जो चीख-चीखकर खोई अँगूठी की मुनादी पिटवा रही थी। बहू भी कम नहीं थी। वो भी अपनी ही जगह से चीख-चीखकर पूछ रही थी।
“कहाँ रखी थी अम्मा?”
“वहीं अपने तकिए के नीचे। और कहाँ?”
“तकिया तो क्या मैंने सारा बिस्तर उठाकर देख लिया, इसके नीचे तो है नहीं।”
“अच्छा… तो फिर मंदिर में टंगी थैली में देख। शायद वहाँ रख दिया हो।”
“कौन सी थैली अम्मा? अरे छोटी सी, पीले रंग की, कपड़े की थैली जिसमें रूद्राक्ष रखती हूँ।”
बहू ने थोड़ी देर बाद उत्तर दिया।
“नहीं अम्मा। इसमें तो पाँच गिन्नियां हैं बस और रूद्राक्ष की माला है।”
“अच्छा…”
सास शायद सोच में पड़ गई। कोई जवाब न पाकर बहू ने ही भीतर से सुझाया।
“अम्मा…..चावल का डिब्बा देखूँ क्या, जहाँ तुम दस हज़ार छुपाकर रखी हो।”
“नहीं पगली….चावल में अंगूठी क्या करेगी।”
“फिर अब कहाँ ढूँढूँ?”
“बाथरूम में देखले ज़रा। मेरा मंगलसूत्र रखा है, शायद अँगूठी भी रखी हो वहीं ताखे पर।”
बहू धीरे से भुनभुनाई। सास को सुनाई तो नहीं दिया मगर छन्नू ने उसकी बड़बडाहट सुनी और सुनकर मुस्कुरा दिया।
“बुढिया खुद तो तीन दिन से मंगलसूत्र बाथरूम में फेंके हुए है और मुझे एक सेकेंड भी बिना मंगलसूत्र के देख लेते तहलका मचा दे। जैसे सच में उसके बेटे के प्राण-पखेरू इसी में बसते हों। हुंह।”
थोड़ी देर बाद वह फिर आंगन से चिल्लाई।
“नहीं है अम्मा, बाथरूम में भी।”
“तो एक काम कर। तिजोरी खोलकर देख ले। शायद बाकी गहनों के साथ रख दिए हों।”
“तिजोरी का नंबर तो मुझे नहीं मालूम अम्मा। नंबर बताओ तो खोलूँ।”
“पागल समझा है क्या जो यहाँ से चीख-चीखकर सारी दुनिया को नंबर बताऊँगी। वहीं अलमारी के दाएं पल्ले पर लिख दिया है। पढ़ ले और खोल ले।”
छन्नू गदगद हो गया, जैसे उसी से कहा गया हो कि ‘पढ़ ले और खोल ले।’
थोड़ी देर बाद बहू फिर चिल्लाई।
“नहीं अम्मा। वहाँ भी नहीं है।”
सास ने सारी उम्मीद स्वाहा करते हुए प्रलाप शुरू कर दिया।
“फिर तो गई मेरी अँगूठी। पूरे आठ भर की थी। चमचमाते सोने की। हाय अम्मा तुम अँगूठी देकर कहाँ चली गई। किस मुँह से तुम्हारे पास आऊँगी। तुम्हारी आख़िरी निशानी गुमा दी मैंने। हे भगवान जी जैसे अँगूठी उठा ली, मुझे भी उठा ले।”
छन्नू उस प्रलाप को सुनने की बजाय उस घर का मुआयना करने में वयस्त था। उसने देखा लंबा-चौड़ा घर था जिसकी चौहद्दी बहुत ऊँची थी और फाँदा नहीं जा सकता था। घर के बरामदे में बहुत मज़बूत दरवाज़ा लगा था और हर खिड़की पर मज़बूत सलाखे लगीं थी जिसे तोड़ पाना या काट पाना शातिर से शातिर चोर के लिए संभव नहीं था।
छन्नू निराश हताश हो गली से जाने लगा कि बहू की चीखें सुनकर यों ही रूक गया।
“मिल गई। मिल गई। अँगूठी मिल गई अम्मा।”
“कहाँ से?”
“यहीं चारपाई के सुतली में फंसी पड़ी थी।”
“अच्छा, मैं तो समझी कोई चोर ले गया।”
छन्नू के मुख पर दर्द भरी मुस्कान फैल गई। जैसे किसी ने दुखती रग पर हाथ रख दिया हो।
“चोर कहाँ से आ जाएगा अम्मा। इत्ती ऊँची-ऊँची तो दीवालें बनवाई हैं। देखती नहीं हो क्या।”
“अरे कैसे नहीं आ जाएगा। पिछली दीवाल की ईंटे कैसी बाहर निकलीं हैं, देखा है न तूने। एकदम सीढ़ी की तरह। कोई बच्चा भी चढ़ कर आ जाए। कितनी बार कहा कि ईंटे कटवा दो या सीमेंट से मुँदवा दो। कोई सुनता कहाँ है।”
छन्नू एकदम आहलादित हो उठा और लगभग उछलता-कूदता गली के अँधेरे में गुम हो गया।
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