संन्यास
वह पगडंडियों के सहारे चला जा रहा था। गुस्से से काँपता उसका शरीर कभी इधर कदम रखता था तो कभी उधर। उसे खुद होश नहीं था कि आखिर वो जा कहाँ रहा है। इतना तो पता था कि कहीं दूर जा रहा है, अपनी घर-गृहस्थी से कहीं दूर, संन्यास लेने।
सूरज आकाश में तेज़ चमक रहा था। उसने सुबह की प्रथम बेला में ही लड़-झगड़कर घर त्यागा था। उसे चलते हुए लगभग तीन घंटे हो चुके थे। इस बीच उसने न एक घूंट पानी पिया था न एक लंबी साँस ही ली थी। साँस लेना तो वो जैसे भूल ही गया, ले लेता तो शायद गुस्सा ठंडा हो जाता।
उसने देखा खेतों से हटकर एक रास्ता जंगल की ओर जाता है। उसने फटाफट वह रास्ता पकड़ लिया। उसे लगा अब वह एकदम सही रास्ते पर चल पड़ा है। उसने गृहस्थी से नाता तोड़ लिया है और इस रास्ते को पकड़कर उसने सन्यास का रास्ता पा लिया था।
वह काफ़ी देर से कड़ी धूप में चल रहा था। उसे न लू की समझ आई और न धूप से तपते बदन की। मगर अब जंगल की छाँव थी और दोपहर बीतने लगी थी इसलिए धूप भी उतनी कड़क नहीं थी।
उसने एक जगह रूककर लंबी साँस ली और अपने चारों ओर के जंगल को गौर से देखा। उसे अब अपने सूखते गले और तेज़ी से उठती प्यास की खबर हो आई थी।
एक टहनी उठाकर उसने उसके पत्ते तोड़ लिए और उसे एक डंडे का आकार दे दिया। उसी से वह जंगल में अपना रास्ता बनाकर पानी का स्रोत ढूँढने लगा।
इतनी सूचना तो उसे थी कि इस जंगल में कुछ सन्यासी देखे गए हैं। कुछ कहानियां ऐसी भी प्रचलित थीं कि जंगल के बीचोंबीच एक बृहद मठ विद्यमान है जहाँ अलग-अलग स्थानों से सन्यासी जप-तप करने आते हैं। अपनी कपोल-कल्पना में उसने उस मठ का विशाल स्वरूप गढ़ लिया था और यही नहीं अपने को वहाँ एक तेजस्वी संन्यासी के रूप में स्थापित भी कर लिया था।
ऐसी सुंदर कल्पनाओं से वह थोड़ी देर तो अपनी प्यास को भुलावा दे सकता था मगर ज़्यादा देर नहीं। अब मठ को भूल उसका ध्यान वापस जल का स्रोत ढूँढने में लग गया।
उसने सोचा यहाँ-वहाँ भटकने से अच्छा है कि वो जंगल के भीतर ही भीतर जगह बनाता जाए। इससे वह जंगल के बीच जल्दी पहुँचेगा और रास्ते में कोई न कोई जल का स्रोत भी ज़रूर होगा, तभी तो संन्यासी इधर आते होंगे। साथ ही वह जितना देर करेगा उतनी रात घिर आएगी और एक बार सूरज डूब गया तो दिशा खोजनी मुश्किल हो जाएगी। यहाँ सूरज की हल्की-फुल्की किरण तो दिख रही है और पूरब-पश्चिम का थोड़ा-बहुत ज्ञान हो रहा है। मगर पत्तों के बीच तारे देख पाना तो बहुत मुश्किल होगा। फिर जंगली जानवरों का डर।
धीरे-धीरे सूरज ठंडा पड़ गया। उसे याद आया कि ठीक इसी समय तो वह काम से लौटता था और घर में कदम रखते ही सुनैना पानी हाज़िर कर देती थी। उसने अपने होंठ चाट लिए।
मगर असली लड़ाई तो उसके बाद शुरू होती थी, जिसकी वजह से वह घर छोड़ आया। घर में घुसते ही ‘ये लाए क्या’, ‘वो लाए क्या’। जब देखो तब नमक, चीनी, मसाला, आटा, चावल, दाल कम ही पड़ा रहता था। अकेले रहने का सुख ही अलग होता है। किसी बच्चे की शर्ट फट गई है, किसी के स्कूल का फीता खरीदना है। हद होती है सर नोंच खाने की।
अब उसका खून फिर उबलने लगा। आज सुबह ही तो बढियां से बहस हुई थी और उसने दिखा दिया की वो क्या चीज़ है। अब मांगे नमक, चीनी और रूपया-पैसा। देखें किससे माँगती है।
खून उबलने के साथ-साथ वह अपनी भूख-प्यास भूलकर जंगल में भीतर और भीतर चलता चला गया। जब अंधेरा होने लगा तो भूख-प्यास के साथ-साथ डर उस पर हावी होने लगा और उसका सर चक्कराने लगा।
अब तक घर पर होता तो कई बार खाना खा चुका होता। उसने सोचा जानवरों का खाना बनने से अच्छा है कि एकदम अंधेरा होने से पहले पेड़ पर चढ़ जाए।
बचपन में वह कई बार, कई तरह के पेडों पर चढ़ा था। तब शरीर रूई के फाहों की तरह आसानी से कूदता हुआ ऊपर की ओर उड़ सा जाता था। मगर अब तो लग रहा है कि यहाँ से फिसले तो यह हड्डी टूटेगी और वहाँ से हाथ छूटा तो वह हड्डी टूटेगी।
किसी तरह डरते-फिसलते वो एक मोटी डाल पर जा बैठा। पर जैसे ही नीचे देखा उसके होश उड़ गए। भूख-प्यास तो थी ही साथ-साथ डर के मारे उसे चक्कर आ गया। बहुत संभलने के बाद भी चक्कर तेज़ हुआ और सारा जंगल, पेड़ की शाखाएं, सब उसके आँखों के आगे घूम गई और वह धड़ाम से नीचे आ गिरा।
उसे याद नहीं वह कब तक उस मूर्छित अवस्था में पड़ा रहा। जब आँख खुली तो पैरों में भयंकर पीड़ा थी। उसने उठने की कोशिश की तो उसका दम उखड़ गया मगर वह उठ न पाया। वह दर्द से कराहता वहीं लेटा रहा और ऊपर की डाल देखता रहा जो उसे ऊँची और ऊँची दिख रही थी।
उसकी मद्धिम कराह, मद्धिम सांसो, मद्धिम रोशनी और मद्धिम खुली पलकों के बीच उसने महसूस किया कि कुछ लोगों की पदचाप उसके पास आकर रूक गई है।
उसने अपनी अधखुली पलकों के बीच से देखा कि कुछ साध्वी स्त्रियां भगवे वस्त्रों में उसे देख रही थीं और आपस में चर्चा कर रही थीं। उसने राहत की साँस ली कि साधु-साध्वी तो होते ही हैं परमार्थ के लिए। मेरी जान बच जाएगी और मैं मठ तक भी पहुँचा दिया जाऊँगा।
उसे स्पष्ट दिखाई तो नहीं मगर सुनाई अवश्य दे रहा था।
“गुरूमाता! देखें कोई मानव धरती पर पड़ा कराह रहा है।” एक विचलित युवती साध्वी ने उस समूह की सबसे वरिष्ठ महिला को सूचित करते हुए कहा।
बारी-बारी से दो-चार साध्वियों ने उसे करीब जाकर देखा और फिर दूर आकर अपने झुंड में खड़ी हो गईं। उस वरिष्ठा साध्वी ने भी उसे कुछ ज्यादा ही करीब जाकर देखा और फिर उतनी ही दूर जाकर खड़ी हो गईं जितनी करीब से उसे देखा, जैसे वह घायल शेर-चीता हो जो कभी भी मुड़कर उन पर झपट पड़ेगा और उन्हें खा जाएगा।
वह समझ न सका कि एक घायल व्यक्ति से वे इतना बच-बचकर क्यों हैं? आख़िर वह उनका क्या बिगाड़ लेगा।
कुछ देर की खुसर-फुसर के बाद उस वरिष्ठा ने लगभग घोषणा के लहज़े में कहा –“देखो! हम सबके लिए यह धर्म संकट की घड़ी है। हमने जो ब्रह्मचर्य का यह व्रत लिया है उसके चलते किसी भी पुरुष को हम छू नहीं सकते। छूते ही हमारा सारा धर्म, हमारी सारी तपस्या, ब्रह्मचर्य नष्ट हो जाएगा। कहा भी गया है कि प्राण जाए पर वचन न जाए। अर्थात धर्म सर्वोपरि है। अत: मेरा निर्णय है कि हम इसे यहीं छोड़कर जाने के लिए विवश हैं। हमारी धर्म नीति यही है।”
यह सुनकर अर्धमूर्छित अवस्था में भी उसे भद्दी-भद्दी गालियां सूझने लगी। उसने मन ही मन कहा कि मूर्खों, प्राण जाए पर वचन न जाए अपने प्राणों पर लागू होता है दूसरे के नहीं।
उसे अब अपने निर्णय पर पछतावा हो रहा था। इन सबसे ज़्यादा अकलमंद तो मेरी पत्नी थी। अपने कभी भूखे पेट सो भी जाती थी पर कभी परिवार के सदस्यों या अतिथियों को भूखे पेट सोने नहीं देती थी। परम सेवा में तो वह लगी थी। भले कभी अगरबत्ती जलाने की फुरसत न रही हो उसके पास।
वरिष्ठा ने अपने समूह को आगे भी संबोधित करते हुए कहा –“वैसे भी हमारे पीछे धर्मगुरू तथा उनके अनुयायी आ ही रहे हैं। वे ऐसे किसी बंधन से बाध्य नहीं होंगे और यह प्राणी अवश्य ही उनकी कृपा का पात्र होगा।”
एक तिरछी नज़र उस पर डालकर उसने फिर कहा –“चलो अब तेज़ी से आगे बढ़ो। संध्या पूजन का समय निकला जा रहा है।”
साध्वियों का समूह वहाँ से चल दिया। मगर उनको जाता देख उसकी टाँगों की टीस और बढ़ने लगी, और बढ़ने लगी। वह कराह उठा।
उसकी कराह सुनकर शायद किसी साध्वी ने मुड़कर देखना चाहा क्योंकि तभी कड़क आवाज़ में उस वरिष्ठ साध्वी के स्वर उसके कानों में पड़े।
“मालविका!!! किसी पुरुष के प्रति सहानुभूति भी प्रेम के अंकुरित होने का परिचायक होता है। इससे तुम्हारा मानसिक ब्रह्मचर्य भंग होता है। अपने पर संयम रखना सीखो और आगे देखकर चलो।”
उसे इस समय सुनैना की बहुत याद आ रही थी। वह उसकी सीमित आय में किसी तरह घर को ठेल-ठाल कर चला रही थी। जब और पैसे कमाने के लिए वह ज़ोर देती तो वह खीझ जाता था। जब उसके घर की तंग हालत पर उसके अड़ोस-पड़ोस से भी सुनने को मिलने लगा तो वह और तंग आ गया। उसे लगा हो न हो सुनैना जगह-जगह उसकी घर न चला पाने की असमर्थतता का प्रदर्शन कर रही है।
उफ! लेकिन आज से ज़्यादा असहाय और असमर्थ तो वह कभी न था। वह तो अकेलेपन का स्वाद उठाने आया था, सभी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो। मगर अब वह किसी के सामीप्य के लिए तरस रहा है। वह प्रतीक्षा कर रहा है उस धर्मगुरू कि जो अभी थोड़ी देर में यहाँ से गुज़रेंगे।
धर्मगुरु आए। साथ में सब चेले-चपाटे भी आए। उसने चैन की साँस ली कि अब वह अवश्य बच जाएगा। उसने पूरा दम लगाकर “पानी-पानी” की गुहार लगाई। पर फुसफुसाने से ज़्यादा कुछ न कर सका। मगर गनीमत कि उसकी फुसफुसाहट सुन ली गई।
“गुरुदेव! एक घायल व्यक्ति वहाँ पड़ा पानी के लिए पुकार रहा है।”
सबने करीब जाकर देखा। गुरुदेव के आदेश से एक अनुयायी उसे पानी पिलाने के लिए कंमडल नीचे करते हुए झुका।
“अपना कमंडल संभालों चिदानंद। उसे छुआकर कमंडल अपवित्र मत करो। यह पूजा का पात्र है। ऊपर से ही जल गिराओ।”
उस एक क्षण के लिए घायल अवस्था में भी उसके शरीर का एक-एक रोयां काँप उठा कि क्या वो इसी प्रकार के जीवन का वरण करने घर से निकला था।
अभी चिदानंद ने कमंडल से जल गिराना शुरु ही किया था कि लगभग गरजते हुए से गुरू बोले-“ठहरो! इसकी कोई मदद न की जाए। पंद्रह दिन पहले श्री जी की मूर्ति चुराने वाला चोर यही है। इसे ईश्वर इसके पापों का दंड दे रहा है। दूर हट जाओ सभी और ईश्वर के विधान में हस्तक्षेप न करो।”
अभी कमंडल से एक बूँद भी नहीं गिरी थी और कमंडल वापस उठा लिया गया।
सभी स्तब्ध हो अपने गुरू के चमत्कार को देख रहे थे। तभी एक शिष्य ने उनकी महिमा का मंडन किया।
“गुरुदेव को क्या दिव्यदृष्टि प्राप्त है। जय हो! जय हो! इस चोर की दाढ़ी देखकर पता चलता है कि पंद्रह दिन पुरानी है।”
इस बार वह घायल अवस्था में भी अपने ही ऊपर खीझ गया कि घर त्यागने से पहले उसने दाढ़ी क्यों नहीं बनाई।
गुरु की जय-जयकार करते हुए वह झुंड वहाँ से चलता बना। इस बार किसी ने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा। देखते भी कैसे, सबको जल्द से जल्द पहुँचकर संध्यावंदन करना था, नहीं तो आज की पूजा में विघ्न पड़ जाता जो नियम के विरुद्ध था।
उसने सारी उम्मीद छोड़-छाड़कर अपने आप को दर्द के हवाले कर दिया और शीघ्र ही अर्धमूर्छित अवस्था से पूर्णमूर्छित अवस्था को प्राप्त हो गया।
उस अवस्था में जहाँ-कहीं उसकी चेतना जागती थी, उसे आभास हो रहा था कि किसी ने उसका हाथ खींचा था। उसके हाथ के बल थोड़े देर के लिए पूरा शरीर था और फिर लगभग शून्य में तैरता हुआ उसका शरीर किसी अन्य शरीर से चिपक गया था।
उसने जब आँखें खोली तो उसके ऊपर किसी मड़ैया की छत थी। उसने दाएं-बाएं सिर हिलाया तो अपने को एक सुतली की खटिया पर लेटा पाया। उसने उठने का प्रयास किया तो पैरों में फिर टीस उठी और उठ न पाया। उसकी दृष्टि अपने पैरों के ऊपर गई। उसके पैरों पर चारों ओर बाँस के डंडे लगाए थे और डंडों के भीतर केले के पत्ते साफ़ नज़र आ रहे थे। पत्तों के भीतर कोई ठंडा-ठंडा लेप लगाया गया था जिसकी ठंडक उसके सूजे पैरों में महसूस हो रही थी।
उसके सिरहाने कहीं चूल्हा जल रहा था जहाँ से “नहीं-नहीं उठना नहीं” कहती हुई एक काली सी पसीने से लथपथ औरत उसकी ओर दौड़ी आई।
उस औरत को देख एक पल के लिए वह डर गया। बिना ब्लाउस की मैली-कुचैली साड़ी लिपटी उस औरत के शरीर में केवल सफेद दाँत ही चमक रहे थे और बाकी सब अंधकार में विलीन लगता था। मगर उसकी ममतामय आँखों को देखकर वह थोड़ा आश्वस्त हुआ।
“उठना नहीं। नहीं तो पैर का सब मरम्मत टूट जाएगा।”
इतने में उस झोंपड़ी में एक उतने ही काले आदमी ने सिर पर लकड़ियों का ढेर सा गठ्ठर और दूसरे हाथ में कुल्हाड़ी लेकर प्रवेश किया। उसने झोंपड़ी के एक कोने में गठ्ठर फेंककर इन दोनों को देखा।
और चारपाई के करीब आ गया। एक मचिया पास खींचते हुए वह लकड़हारा चारपाई के करीब बैठ गया।
“होश आ गया साहब को तो चावल का पानी पिलाओ।”
“हाँ – हाँ। अभी लाई।”
फिर वो लकड़हारा उससे बातें करने की कोशिश करने लगा।
“वो तो अच्छा हुआ जो कड़ी काटने में मुझे देरी हो गई तो आप मिल गया। नहीं तो उधर पड़ा-पड़ा तो आपको कोई जानवर खा जाता था रात में।”
वो टुकुर-टुकुर लकड़हारे को देख रहा था। बोलने की कोशिश की तो सूखे होंठ हिलकर रह गए।
“आप आराम करो साहब। अभी तो ठीक होने में आपको बहुत समय लगेगा। अभी तो चार दिन के बाद होश आया है।”
वह भीतर ही भीतर बुदबुदाया “चार दिन” वह चार दिन से पड़ा है और उसे होश ही नहीं।
इतने में दो बच्चे उछलते-कूदते उसकी खाट के करीब आए। छोटे लड़के ने उसे और करीब आकर देखा और आँखें खुली देखकर अपने पिता से सवाल किया।
“ये लंगड़े आदमी को होश आ गया बाबा।”
लकड़हारे ने गुस्से से थप्पड़ दिखाते हुए उसे डाँटा।
“अभी थप्पड़ दूँगा कसकर। ऐसे बात नहीं करना।”
बच्चा सहम गया और धीरे से खाट के करीब आकर बोला “आपको चोट लगी है न। कोई बात नहीं। सब ठीक हो जाएगा। मेरे बाबा सब ठीक कर देंगे। मेरे बाबा को सब कुछ आता है।”
उसे अपने बच्चों की याद आ गई। यों ही घर पर जब बच्चों की बातें सुनता था, खासकर छोटे वाले की, तो हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाया करता था। घर में बच्चों के कारण ऐसी रौनक होती थी कि कभी-कभी वह कहीं चले जाने का ख़्याल भी भूल जाया करता था।
एक बार उसे किसी रिश्तेदार की बारात में दो दिनों के लिए जाना था तो बच्चे छोड़ ही नहीं रहे थे। बड़ी मुश्किल से खिलौने और मिठाइयों का झूठा वादा किया तो माने। वापस आने पर पता चला कि उसकी उपस्थिति में दो दिन से ऐसे शांत बैठे हैं कि खाना-पीना त्याग दिया है। वापस लौटने पर बच्चे इतने खुश हुए कि खिलौने और मिठाइयों के उसके वादे को भी भूल गए।
जाने अब बच्चे क्या कर रहे होंगे? सुनैना उन्हें क्या-क्या भुलावा देकर मना रही होगी?
मन में एक टीस उठी और पैरों में भी।
उसने अपने आप को उस लकड़हारे और उसकी पत्नी की दया पर छोड़ दिया। उस दंपति ने बड़े ही मनोयोग से उसकी सेवा की। उनके आपस के ताल-मेल को देख उसे दांपत्य जीवन के सुख की अनुभूति हो आती थी।
उसे लगा यही जीवन है। परमार्थ के कारण साधु-संत शरीर धरते हैं परंतु आज तक उन्हें सेवा करते नहीं लेते ही देखा है। असली सेवा तो पारिवारिक जन उनकी करते हैं और ये उनसे लेते हैं।
वह चाहता था कि दान-दक्षिणा के असली पात्र तो ये दंपति हैं, उन्हें कुछ दे। मगर उल्टा उसे ही उनसे लेना पड़ा ताकि वह घर लौटते समय खिलौने-मिठाइयां ले सके।
कुछ ही दिनों में वह आस-पास में चलने-फिरने लायक हो गया। वह जल्द से जल्द घर जाने को उतावला हो रहा था। मगर उस दंपति ने उसे पूरी तरह ठीक होने पर ही विदा किया।
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