आजादी का प्रतिफल
कविता -: आजादी का प्रतिफल
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पराधीन था
अपना देश
शोषित थे अपने लोग
विवशता के
आगोश में
जकड़े हुए थे
अपने ही धरती पर
अपने स्तर से
निर्णय नहीं ले पाना
मजबूरियों को
पनाह दिए हुए
पल-पल हर-क्षण तड़-पन लिए
जीवन को
व्यतीत करते हुए।
गुलामी का जोर
बढता जा रहा था
शोषण का चरमसीमा ही
आवाम को आवाज़ दिया
और कुछ लोगो से
बहुत लोगों तक स्वतंत्र होने की
होड़ मच गई
और आग की चिंगारी
सन् सन्तावन से
बिकराल रुप धारण कर
अग्रसर लक्ष्य प्राप्त की ओर
अपने जान की परवाह न
करते हुए आगे बढी।
अन्ततः कई वर्षों बाद
मिली आजादी
छाई खुशियाँ
गमों की बारात लिए
कई घर उजड़ गये
लहूलुहान हुई
हिन्दुस्तान की धरती
बिछड़ गये कई परिवार
दंगा की आगजनी में
धर्म का सहारा लेकर
कुछ लोग
देश को बटने पर
मजबूर कर दिया
सत्ता के लोभियों ने।
देश बटा ,पद बटा
नियम बना
इमान्दारी से चलने के लिए।
इमान्दारी के बीच
आधिपत्य जमाईं
बेईमानी
स्वतंत्रता सेनानियों के
सच्चे सपने
आज ध्वस्त नजर आ रहे हैं
आजादी के प्यासे लोगों के
जीवन गवां देने की कीमत
सत्ता के लोभियों ने
अपने ही देश वासियों का
रोटियां छिनने में लगे हैं
दे दिया है निमंत्रण
भ्रष्टाचार को
गरीबी को लूट-खसोट को
बलात्कार को
झूठी शान-शौकत को।
शायद
यही कारण है
देश का आगे न बढना
आवश्यकता है
अपने देश में अपने लोगों से
आजाद कराने की
भ्रष्टाचार को दूर करने की
कागजी से जमीनी स्तर पर
पूर्ण रूप से संविधान
को लागू करने की
न्याय विभाग को भी
अपने अस्तित्व को समझने की
गरीब अमीर पर
समानता का भाव समझ कर
न्याय देने की।
आजादी का प्रतिफल
सही मायने में
अभी तक भारतीयों को
नहीं मिल पाया है।
तब-तक नहीं मिल पायेगा
जब-तक धुर्तबाज
सत्ता लोभी पद लोलुपता
हमारे देश से
खतम नहीं हो जाते।
@रमेश कुमार सिंह “रुद्र” (
रचनाकाल- 13/08/2017