जन्मभूमि
ये वीरान खंडहर मेरी जन्मभूमि है,
मेरी ही नहीं मेरे मां की मातृभूमि है।
नानी ने जन्म पाया, एक वंश को खिलाया,
जिसकी मिट रही पहचान मेरी जन्मभूमि है।।१।।
ऐसा नहीं की अक्षम है,
सारे संरक्षक सक्षम है।
सब अपनी पहचान जी रहे,
नानी की स्मृति विस्मृत है।।२।।
वीरान हुए इस आंगन में,
खुशियों में बचपन झूमा है।
नीम डाल पे डाल झूलना,
कइयों के संग झूला है।।३।।
पर आज खड़ा ये वृद्ध अकेला,
इस घर का न कोई संगी साथी।
कल जो सर चौखट पे झुके थे,
मदमस्त हुऐं हों जैसे हांथी ।४।।
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।। प्रदीप कुमार तिवारी।।
करौंदी कला, सुलतानपुर
7537807761