एहसान
जिन्दगी जीने के खेल में
आगे बढ़ने की होड़ में
लौटकर
पीछे नहीं देखना चाहता
हर पल
अग्रसर रहना चाहता
इसी भाग-दौड़ में
भूल जाता है
अपनी शक्तियों को
होने लगता है कमजोर
नहीं चलता उसका जोर
गति रुकने लगती
पीछे खिसकने लगती
नहीं होता सहन
बदलता है अपना रहन
ढूंढता है कहीं शरण
अन्ततः
कोई मिल जाता है
शरण दे जाता है
इसी एहसान तले दबकर
मजबूर होकर
करने लगता
उसके द्वारा कही
सभी गलत सही
सभी काम मजबूरी में
हर रोज जी हजुरी में
लगा रहता है
एहसान तले
दबकर
आगे बढ़ने की चाहत में
पुनः वापस लौटकर।
रचनाकार -:
© रमेश कुमार सिंह ‘रुद्र’