ज़रा सी बात
मेरी ज़रा सी बात पर वो खफा हो गया
न जाने क्यों इंसान से “खुदा ” हो गया,
न सोचा न समझा न देखा न भाला
पल भर वो जाने क्या से क्या हो गया ,
उसकी खातिर सहे थे मैंने कितने गम ,
भूल गया सब वो जो मैंने किये थे सुकर्म,
उसके मन में ग़लतफ़हमी का, विचार हो गया
वह गैरों से सुनी बातों का भी ,शिकार हो गया
नशा अपनी दौलत का उसको चढ़ गया
अपनी मस्ती की धुन में हद से बढ़ गया ,
न सुनी उसने दिल की न हकीकत ही समझी
अपने मन से करता रहा नित नयी नासमझी
मैं भी देखकर उनकी हरकतें, परेशान हो गया
पल भर वो जाने क्या से क्या हो गया ,
आज जो बन रहे हैं अकड़े अकड़े से हज़ूर .,
एक दिन टूट बस जायेगा यह उनका गरूर,
सच्चाई से जब हो जायेगा बस उनका सामना
इक दिन पड़ेगा उनको भी अपना दिल थामना ,
अपनी नासमझी पर वो उस रोज़ पछतायेगें,
अपने ही पुराने मित्र तब उन्हें याद आयेगें ,
फिर सोचेंगें बैठ कर यह सब क्या हो गया-
‘मैं क्यों ज़रा सी बात पे खफा हो गया” .
“मैं तो बस एक अदना सा इंसान था’ ,
पल भर वो जाने क्या से क्या हो गया ,
“क्यों ज़रा सी बात पर वो खफा हो गया”
न जाने क्यों इंसान से “खुदा ” हो गया. — जय प्रकाश भाटिया