“गज़ल”
मापनी- 2221 2221 2221 22, काफ़िया- अल, रदीफ़- जाते
गर दरख़्त न होते तो कदम चल निकल जाते
यह मंजिल न होती तो सनम हम फिसल जाते
तुम ही कभी जमाने को जता देते फ़साने तो –
होते तनिक गुमराह सनम हम सम्हल जाते॥
कहती यह दीवार सितम कितना हुआ होगा
यह जाल मकड़ी के हटाते तो विकल जाते॥
उठें हाथ अपनों पर सुना दस्तूर के चलते
तक देखा नहीं उड़ते गुना भी फ़लक जाते॥
न ये दूरियाँ होती न हम ऐसे अलग रहते
दिल को राह मिल जाती खुशी हम बहल जाते॥
क्यों उठती यहाँ फरियाद है प्रेमी परिंदों से
जिस डाल पर बैठे तुरत पत्थर उछल जाते॥
तक नहिं दूर तक ‘गौतम’ इस अरमान को लेकर
जाने किस गली मुड़ना कहाँ कंकड़ निकल जाते॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी