लघुकथा

“झिनकू के चचा और दुर्गापूजा”

जी हाँ सर, मुझे आज भी याद है 1978 की वह शाम जब मैंने माँ दुर्गा जी का दर्शन कलकत्ता के आलीशान पंडाल में किया था और आप मेरे बगल में खड़े थे। मुझे बंगाली नहीं आती थी और मैं मन में कुछ प्रश्न भाव लिए हुए किसी हिंदीभाषी को तलाश कर रहा था कि इतने में आप ने अपनी बिटिया श्यामा का नाम पुकारा और मेरी बाँछें खिल गई, मानों मुझे मेरा खोया हुआ कोहिनूर मिला गया था। बड़े ही हर्षित मन से मैंने आप से कहा था कि क्या यह रुई का महल है जिसमें माता जी की मूर्ति भी रुई से ही बनाई गई है। किसी राजा ने बनवाई होगी?, ऐसी सजावट बाप रे ! कितना धन लगा होगा? और आप ने मुझे घूर कर देखा तो मैं डर कर हट गया वहाँ से और किनारे खड़ा होकर माता जी की आरती में लीन हो गया था कि अचानक किसी का हाथ मेरी पीठ पर पड़ा तो चौंककर आप को देखा और आप ठठाकर हँस दिए। आप की जुबान से निकला था कि लगता है नए आए हो बंगाल की गलियों में बरखुरदार। क्या नाम है?, झिनकू नाम है मेरा, अभी एक महीना हुआ, कलकत्ता में आए। क्षमा करें सर, आप? मैं बाबू सिंह बनारसी, आओ तुम्हें दुर्गा पूजा घुमाता हूँ और मैं आप के परिवार से ऐसे घुल मिल गया था मानों आप का ही पुत्र हूँ, और पूरी रात में दशियों पंडाल देख डाले जिसमे तरह- तरह की मातृ मूर्ति और पंडाल देखकर मन झूम गया और मैंने खुशी में कहा था दुर्गापूजा तो बंगाल की। एक जगह वर्फ की मूर्ति तो आज भी मेरे मन में बसी हुई है और काली जी का दर्शन करके आप के घर गए थे फिर सुबह और शाम हर रोज का अपनत्व का नाता हो गया। दो वर्ष कैसे बिता मुझे तो पता ही न चला, अब तो गुजरात का गरवा और डांडिया रास मन को भा गया और कर्म भूमि से जन्म भूमि को नमन करते 35 साल निकल गए।

मेरी उस पुरानी डायरी में आप का बनारस वाला पता था, वर्षों बाद मेरा बनारस आना हुआ और आप की याद आ गई। विश्वास तो नहीं था कि आप मिलेंगे पर किस्मत का खेल निराला है नुक्कड़ पर पान की दुकान वाले ने बताया और मेरा सर आप के चरणों में हैं चचा जी, आप देख तो नहीं पाएंगे मुझे, पर मैंने जो देखा है यहाँ आकर, जो पाया है यहाँ आकर उसको शब्दों में कह नहीं सकता। हाँ प्रभु से प्रार्थना जरूर करूँगा कि आप जैसा बाप और आप के औलाद जैसी औलाद सभी को मिले। देख तो नहीं सकता पर तुम झिनकू हो न, इतना सुनना मेरे लिए किसी बरदान से कम न था और मैं उनसे लिपट कर रोने लगा, उनकी भी आँखे छलछला गई, काश मेरे चचा मुझे देख पाते…..और मैंने कहाँ था जी हां सर मैं वही पांडाल वाला झिनकू हूँ…… अरे, श्यामा, देख तो कौन आया है, जल्दी आ……अभी कल ही आई है मेरी ऑफिसर बिटिया…..बैंक मैनेजर हो गई है, दिल्ली में है……..! और मैंने कहा ॐ जय माता जी, कैसी हो बहना………!

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

 

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ