महिलाएँ और भ्रूण हत्या
नारी के साथ जुड़ा शब्द ‘‘माँ’’ सारी सृष्टि को अपने अंक में समेटने की क्षमता रखता है। माँ सृष्टा है, जन्म दात्री है, ममता और दुलार का भण्डार है, किन्तु इसी ममता की छाँव के साथ जब हत्या जैसा क्रूर शब्द जुड़ जाता है (वह भी भ्रूण हत्या) तो अनजाने, अनचाहे मुँह का स्वाद कसैला हो जाता है। मन वितृष्णा से भर उठता है, जगतनियन्ता ने स्त्री-पुरुष की रचना एक दूसरे के पूरक के रूप में की थी और इसी पूर्णता का परिणाम है सृष्टि, जिसे नारी धरती की सी गरिमा के साथ वहन करती हैं। उसमें मातृत्व का गौरव बिम्बित होने लगता है। क्षण-क्षण होने वाले अपने ही शरीर के स्पंदनों से रोमांचित होती है, मुग्ध होती है और आनन्दित होती है।नारी के साथ जुड़ा शब्द ‘‘माँ’’ सारी सृष्टि को अपने अंक में समेटने की क्षमता रखता है। माँ सृष्टा है, जन्म दात्री है, ममता और दुलार का भण्डार है, किन्तु इसी ममता की छाँव के साथ जब हत्या जैसा क्रूर शब्द जुड़ जाता है (वह भी भ्रूण हत्या) तो अनजाने, अनचाहे मुँह का स्वाद कसैला हो जाता है। मन वितृष्णा से भर उठता है, जगतनियन्ता ने स्त्री-पुरुष की रचना एक दूसरे के पूरक के रूप में की थी और इसी पूर्णता का परिणाम है सृष्टि, जिसे नारी धरती की सी गरिमा के साथ वहन करती हैं। उसमें मातृत्व का गौरव बिम्बित होने लगता है। क्षण-क्षण होने वाले अपने ही शरीर के स्पंदनों से रोमांचित होती है, मुग्ध होती है और आनन्दित होती है।
हत्या का दायित्व किसी एक व्यक्ति का हो सकता है। फिर वह चाहे पुरुष हो अथवा स्त्री। परिस्थिति विशेष भी हत्या के लिए उत्तरदायी हो सकती है किन्तु भ्रूण हत्या के लिए न केबल स्त्री अपितु उसका पूरा परिवार एवं पूरा समाज भी उत्तरदायी होता है और उत्तरदायी होती है हमारी सामाजिक परम्पराएँ, समाज व्यवस्था एवं आर्थिक विवशताएँ।
यहाँ हम भ्रूण हत्या के सम्बन्ध में महिलाओं को केन्द्रित करने चले हैं तो सोचकर हँसी आती है कि भ्रूणहत्या की शिकार भी नारी ही हैं। क्योंकि यह कभी सुना नहीं गया कि लिंग परीक्षण पर पुर्लिंग भ्रूण को नष्ट किया गया हो। हत्या सदा ही कन्या भ्रूण की होती है। इस पर भी माँ नाम का यह जीव कभी भी बिना विवशता के भ्रूणहत्या की बात सोचना ही नहीं चाहता करना तो दूर। कभी आर्थिक विवशताएँ माँ के सामने मुँह बाये खड़ी होती हैं तो कभी पारिवारिक उत्पीड़न की तलवार उसके सर पर लटकी होती है। परिवार को ही लें तो शिक्षित-अशिक्षित, शहरी अथवा ग्रामीण प्रत्येक परिवार में पुत्र जन्म एक उत्सव की भान्ति सभी को खुशियों से भर देता है जबकि कन्या जन्म लेते ही बोेझ बन जाती है और अधिकतर गर्भ में ही मार दी जाती है। आज के प्रगतिशील दौर में भी जबकि नारी के कदम अनन्त आकाश को छू रहे हैं, परिवार में लड़का-लड़की के आधार पर भेदभाव के कारण लड़कों के मन में श्रेष्ठता और लड़कियों के मन में हीनता के भाव और कुण्ठाएँ पल रही हैं। न जाने कितनी लड़कियाँ बचपन में ही बचपन भूल जाती हैं। उनके हाथों से विद्या का वरदान छीनकर चूल्हा-पक्की थमा दिए जाते हैं। ऐसी कमउम्र बच्चियाँ जिन्हें मातृत्व के सही अर्थ भी मालूम नहीं होते वे मातृत्व की गरिमा क्या समझेंगी? ऐसी अबोध लड़कियों को मातृत्व एक विपत्ति सा भी लग सकता है। किन्तु जहाँ तक कन्या भ्रूणहत्या का सम्बन्ध है, तो यह एक सामाजिक षडयन्त्र है जिसमें जाने-अनजाने स्त्री भी शामिल हो जाती है। अब यह आवश्यक नहीं कि इस भ्रूणहत्या की दोषी गर्भस्थ कन्या की माँ ही हो। वह दादी-नानी अथवा रिष्ते में लगने वाली बुआ-चाची भी हो सकती है।
गर्भस्थ भ्रूण के कन्या होने का पता चलने पर अधिकाँश मामलों में गर्भपात की बढ़ती संख्या के विरुद्ध कुछ महिला संगठनों ने व्यापक स्तर पर आन्दोलन छेड़े हैं। लड़कियों के प्रति गर्भावस्था में लिंग परीक्षण के द्वारा इस प्रकार भ्रूर हत्याओं को एवं लिंग परीक्षण के दुरुपयोग को रोकने के लिए कानून भी बनाये गये हैं, किन्तु कानून बन जाने पर भी दुरुपयोग कितना रुक पायेगा कहना कठिन है, फिर भी यह मान कर चलना पड़ेगा कि कानून की सख्ती के बावजूद भ्रूण हत्याओं का यह सिलसिला शायद ही समाप्त हो, क्योंकि अब वही काम चोरी छिपे होगा जो खुले आम हो रहा था।
सवाल फिर उठता है कि भ्रूण हत्या में स्त्री कहाँ तक दोषी है? उत्तर के लिए नीत्शे का कथन उद्धरित करूँगी, ‘‘एक बार जरथुस्त्र ने एक बुढ़िया से पूछा, ‘औरत की सच्चाई क्या है?’ बुढ़िया ने उत्तर दिया, ‘बहुत सी सच्चाइयाँ ऐसी हैं जिनके बारे में चुप रहना बेहतर है। हाँ, अगर तुम औरत के पास जा रहे हो तो अपना कोड़ा साथ ले जाना मत भूलना।’’ तात्पर्य यह कि औरत कोई भी गलत काम खुशी से नहीं करती। उस पर गलत कार्य के लिए बलप्रयोग करना ही पड़ता है।
कोई भी औरत अपने गर्भस्थ शिशु की हत्या का मार्ग स्वेच्छा से नहीं चुनती। उसके पीछे हमेशा सामाजिक और आर्थिक मजबूरियों के जाने-अनजाने कितने ही दबाव होते हैं। बचाव का कोई भी रास्ता न होने पर उसे विवशता में इस विकल्प को चुनना पड़ता है। वस्तुतः भारतीय सामाजिक व्यवस्था ने भारतीय नारी को ऐसे अचूक तरीकों के साथ जकड़ा हुआ है कि छोटे से छोटे और बडे़ से बड़े घराने की औरत में कोई अन्तर नहीं है, न जाने कितनी रानी-पटरानियों को पुत्र न देने के अपराध में ‘कौवे उड़ाने वाली’ बने रह कर जीवन गुजारना पड़ा। कितनी रानियों को देश निकाले हुए।
आइये देखें लिंग परीक्षण कानून की दुधारी तलवार के नीचे भ्रूर हत्या की दोषी माँ की क्या स्थिति है? भारतीय कानून के अनुसार गर्भवती महिला को भी इस कानून के अन्तर्गत दण्डित किया जा सकता है बशर्तें कि उसे बिवश न किया गया हो। ऐसी स्थिति में यह मानकर चला जाएगा कि उस स्त्री को उसके पति या सम्बन्धियों ने विवश किया होगा। यदि उस स्त्री के सम्बन्धी यह सिद्ध कर दें कि दोषी स्त्री ही है तो उसको ही उसका दण्ड भुगतना पड़ेगा, यानि तन-मन और धन तीनों ओर से। क्योंकि यदि वह यह सिद्ध कर देती है कि उसे पति ने भ्रूण हत्या के लिए विवश किया था तो पति जेल की चक्की पीसेगा और शेष परिवार वाले उसकी कैसी पूजा करेंगे यह सोचा जा सकता है और नहीं सिद्ध कर सकती या नहीं करना चाहती तो जेल की चक्की उसे ही पीसनी है।
निष्कर्षतः भ्रूण हत्या का वज्र हर हाल में स्त्री पर ही गिरता है चाहे किसी भी स्थिति में हो अतः इस मामले में उसे अपने विवेक से काम लेना अभीष्ट होगा। एक कन्या को जन्म देना हो सकता है उसके भविष्य को संवार दे, जबकि भ्रूण हत्या में हर तरफ़ खतरों की दुधारी तलवार ही सिर पर लटकती नज़र आती है।
— आशा शैली