पराजय
संध्या और विशाल के बीच जम कर आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा था।
“तुम्हें हर चीज़ का दोष मुझ पर मढ़ने की आदत है। क्योंकी तुम तो किसी चीज़ की ज़िम्मेदारी लेना जानते नहीं हो।” संध्या ने चिढ़ कर कहा।
“तो तुम मुझे ज़िम्मेदारी का पाठ पढ़ाओगी। पहले खुद तो सीख लो।”
“कौन सी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई मैंने आज तक।”
“कहाँ तक गिनाऊं। रहने दो।”
“कहने को तुम्हारे पास कुछ है नहीं इसलिए रहने ही दो।”
बहस बढ़ती गई। दोनों ही अपने जुमलों को पहले से और धारदार बना कर एक दूसरे पर उछालने लगे। दिल खोल कर एक दूसरे पर भड़ास निकाल लेने के बाद दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने में सफल रहने की तसल्ली के साथ शांत हो गए।
तभी दोनों की नज़र कमरे में सहमी सी बैठी अपनी बेटी पर पड़ी। अचानक ही विजय का भाव पराजय में बदल गया।