कहानी

खानाबदोश ज़िन्दगी

पुरानी

कॉलोनी के पार्क में वे दोस्तों के साथ खेल रहे थे कि मुझे देख सब छोड़-छाड़, अंजना और अंशु, दौड़कर मुझसे लिपट गए। दोनों को पता है, कुछ न कुछ तो मेरे पर्स में या मेरे हाथ से लटक रहे फल-सब्जियों की पन्नी में ज़रूर मिलेगा। और मिला भी।

अंजना की बहुत दिनों की फरमाइश थी कि बार्बी वाला स्टीकर चाहिए। जबसे उसने रिहाना की नोटबुक पर वे स्टीकर देखें हैं तब से उसे भी चाहिए। मैं अपने ऑफिस के काम में उसका स्टीकर रोज़ भूल जाती थी। आज ऑफिस के लिए स्टेशनरी का इंडेंट बनाकर स्टेशनरी वाले को देना था तो याद रह गया और उसी को पैसे देकर मँगा लिए। सोचा जहाँ ऑफिस की इतनी स्टेशनरी आ ही रही है, वहाँ मेरा एक स्टीकर भी ला देगा तो उसका क्या बिगड़ जाएगा। उसने भी खुशी-खुशी लाकर दे दिया।

ऐसा संभव नहीं कि अंजना के लिए कुछ आए और अंशु के लिए कुछ नहीं। भला वह मेरी जान छोड़ेगा क्या? उसके लिए भीम के स्टीकर लाई हूँ। हाँलाकि उसकी ऐसी कोई फरमाइश नहीं थी। मगर कुछ नहीं लाती तो भी ज़मीन में लोट-लोटकर ऐसी हाय-तौबा मचाता कि मनाना मुश्किल हो जाता।

यह दरअसल मेरी एंट्री फीस है। जानती हूँ कि यह गलत बात है। बच्चों की आदत खराब कर रही हूँ। मगर क्या करूँ? ऑफिस वाली माँ होने के पाप से मुक्ति पाने के लिए यह छोटा-सा पुण्य करने का प्रयास करती हूँ। मगर सच तो यह है कि और भी बड़ा पाप कर जाती हूँ। पर इन्हीं पापों से किसी तरह परिवार की गाड़ी खींच रही हूँ।

मैंने पन्नियों और पर्स को डाइनिंग टेबल पर रखा ही था कि पीछे-पीछे अंकित भी आ गए।

“लो पापा भी आ गए।”

बच्चों को अंकित के आने पर उतना उत्साह नहीं होता। वे बच्चों के लिए कभी ऐसी छोटी-मोटी चीज़ें नहीं लाते। उनसे बच्चे कहते भी नहीं। बच्चे अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें याद ही नहीं रहेगा।

अंजना के उद्घोष को अनसुनाकर अंकित का सारा ध्यान टेबल पर रखी पन्नियों पर गया।

“तुम्हें कितनी बार कहा है अंजली, प्लास्टिक की थैली मत लिया करो। बहुत ज़रूरी हो तो ही लिया करो।”

मैंने अपनी सारी थकान चेहरे पर बिखेरते हुए हथियार डाल दिए।

“हाँ बाबा हाँ। क्या करूँ रोज़ अपना बैग्स फॉरएवर का थैला ले जाना भूल जाती हूँ।”

मोजा उतार कर जूते में खोसते हुए अंकित ने चटपट समाधान प्रकट कर दिया।

“तो अलार्म लगा लो।”

“ठीक है। लगा लूँगी।”

हमारी खिट-पिट बंद हुई तो अंशु को ध्यान आया कि उसे एक सवाल ने बेचैन किया हुआ है। इससे पहले कि सब इधर-उधर हो जाएं, उसे जवाब चाहिए था। उसने ड्राइंगरूम से ही वाशबेसिन की ओर लक्ष्य करके हाथ-मुँह धोते अंकित पर तीर की तरह अपना सवाल छोड़ा।

“पापा। हमारा ट्रांस्फर कब होगा? हम पोस्टिंग कब जाएंगे?”

फिर ट्रांस्फर का सीज़न शुरू हो गया है। बच्चों ने पार्क में अपने-अपने दोस्तों के चले जाने की खबर सुन ली है। उन्हें लगता है ट्रांस्फर कोई अदभुत खज़ाना है जो उनके बाकी दोस्तों को मिल रहा है मगर वे उससे वंचित कर दिए गए हैं।

अंशु का तीर तो निशाने पर लगा नहीं सो अंजना ने मेरा हाथ पकड़ लिया।

“हाँ मॉम। ट्रांस्फर कब जाएंगे? रश्मि का ट्रांस्फर हो गया है। पिछले साल नव्या भी चली गई। अब मैं ही बची हूँ। एक-एक कर सभी ट्रांस्फर चले गए।”

“ओफ्फो अंजू। मेरे हाथ में देख कितनी मिट्टी लगी। मुझे हाथ मुँह धो लेने दे। उससे पहले मुझे छूना नहीं।”

अंजू ने घबराकर मेरा हाथ छोड़ दिया जिसमें आलू-प्याज की मिट्टी लगी थी। अमित भी वाशबेसिन से हट चुके थे। वाशबेसिन में हाथ धोती हुई मैं सोच रही थी कि बच्चे कब बड़े होंगे और नई जगह के रोमांच से ज़्यादा नई जगह की कठिनाईयों को समझेंगे।

*****

दूर से ही बच्चों ने मेरे हाथ में आईस्क्रीम देख ली थी। बड़ी जुगत से मैं आइस्क्रीम लाई थी। मेरा पूरा ध्यान इसी पर था कि घर पहुँचने से पहले पिघलनी नहीं चाहिए।

मगर क्या बच्चों का ध्यान अपने खेल पर बिल्कुल नहीं होता? भला कॉलोनी में घुसते ही मुझे कैसे देख लेते हैं? खेलते भी हैं या नहीं?

अंजना और अंशु ने मुझे घेर लिया। मेरे हाथ से अपने-अपने फ्लेवर की आइस्क्रीम लगभग छीनते हुए वे फ्लैट की सीढ़ियों पर दौड़ गए। मैंने देखा पार्क में उनके कुछ दोस्त उन्हें इस तरह जाते देख रहे थे।

मुझे अपने आप पर खीझ आई। ख्याल ही नहीं आया कि कॉलोनी के बच्चे भी होंगे। सबके लिए आईस्क्रीम लानी थी। और नहीं लानी थी तो कम से कम छिपाकर लानी थी।

अब वे माँएं मुझसे शिकायत करेंगी कि कितनी मुश्किल से उन्होंने अपने बच्चों को आईस्क्रीम न खाने की आदत डाली है। और मैं उनका मन ललचा रही हूँ। उफ!

“देखो आइसक्रीम चू रही है। प्लेट में रखकर खाओ।”

अंजना और अंशू दोनों ही किचन से दौड़कर प्लेटें उठा लाए और डाइनिंग टेबल पर रखकर आइस्क्रीम खाने लगे। मैं उन्हें खाता देख रही थी और सोच रही थी कि उन्हें कैसे ख़बर सुनाऊँ या फिर अंकित को आ जाने दूँ, वो खुदी बताएं। आख़िर मुझे भी तो उन्होंने ही फोन करके बताया था। तभी अंशू ने मुझे अपनी ओर देखते हुए पाया तो पूछ बैठा।

“मम्मा आप भी आइसक्रीम लोगे?”

“नहीं तुम खाओ।”

“लो न मम्मा। थोड़ी सी।”

“नहीं बेटा। अब तो हम मुंबई जाकर ही आइस्क्रीम खाएंगे।”

अंजना ने सशंकित हृदय से पूछा।

“क्यों? मुबंई क्यों?”

मैंने भवें टेढ़ी करके ऐसी मुस्कान फेंकी कि बिना कुछ बोले ही बच्चे उछल पड़े।

“ट्रांस्फर? क्या हम ट्रांस्फर जा रहे हैं? वो भी मुंबई?”

इतने में डोरबेल बजी और बच्चे दौड़ गए और दौड़कर आइस्क्रीम लगे हाथों से ही दरवाज़ा खोला। जैसा अपेक्षित था, अंकित ही दरवाज़े पर थे। बच्चे उनसे लिपट गए।

“पापा हम ट्रांस्फर जा रहे हैं।”

“वो भी मुंबई।”

मैं चिल्लाई।

“पहले जाओ अपने हाथ धोओ दोनों। फिर पापा से चिपकना।”

चिंतित अंकित ने टिफिन पकड़ाते हुए पूछा।

“तुम्हारा क्या हुआ? कुछ बात बनी?”

मैंने मुस्कुराते हुए कहा – “हूँ। तुम्हारा फोन आते ही मैंने बॉस से बात की। हमारे मुंबई वाले फर्म में जगह खाली है और वे मुझे भेजने के लिए राज़ी भी हैं।”

अंकित के माथे से लकीरें मिटती देख मुझे भी ज़रा सुकून मिला।

रात के खाने पर बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था।

“मम्मा-मम्मा! मुंबई में तो हीरो-हिरोइन भी रहते हैं न?”

इत्ते से अंशू को ये भी पता है। वाह रे टी.वी! और वाह रे सिनेमा! मगर अंजना चुप क्यों बैठे? उसे भी तो अपना ज्ञान बघारना है, नहीं तो छोटी नहीं पड़ जाएगी।

“पापा-पापा वहाँ तो समुंदर भी है न? हम समुंदर देखने जाएंगे न?”

अंकित ने जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा। वे अपने ही ख्यालों में खोए हैं। और क्यों न हों? अब तक के सारे ट्रांस्फर या तो अकेले झेला है या मेरे साथ। तब सामान भी कम था और फजीहत भी। पर अब तो इतना सारा तामझाम….और साथ ही साथ से दो रूद्रावतार, जो सदैव तांडव करने के लिए तत्पर रहते हैं।

बच्चों का सबसे ज़्यादा उत्साह तो सोते समय बिस्तर पर देखा मैंने। दोनों की बातें खत्म ही नहीं हो रही थीं। वो ऊँची-ऊँची उड़ान भरने में लगे थे कि रॉकेट भी पीछे छूट जाए।

“पता है, मैं न, मुंबई जाकर बहुत मेहनत करूँगी और क्लास में हमेशा मैं ही टॉप करूँगी।”

अंशु ने अविश्वास से कहा – “अच्छा! यहाँ तो क्लास में तेरा नाइंथ रैंक हैं।”

“हाँ…तो मैं यहाँ मेहनत नहीं करती न।”

“अच्छा। बड़ी आई। वहाँ कैसे मेहनत कर लेगी?”

“वहाँ मैं केवल एक्ज़ाम टाइम में पढ़ने की बजाय फर्स्ट डे से ही पढ़ूँगी। सारे सब्जेक्ट्स में।”

“क्यों मुंबई में ही क्यों?”

“क्यों? तू मुंबई जाकर कुछ नहीं करेगा? ऐसे ही रहेगा जैसा अभी है?”

“”करूँगा न?”

“क्या?”

“नहीं! नहीं बताऊँगा।”

“क्यों?”

“सीक्रेट है मेरा।”

“मुझे भी नहीं बताएगा?”

“नहीं”

“गलत बात है। मैं तेरी बड़ी बहन हूँ न।”

“तो?”

“तो बड़ी बहन से सीक्रेट नहीं रखते। छोटी बहन से रख सकते हैं। वरना….वरना…. पाप लगता है। और मैं तो तेरी बड़ी बहन हूँ, छोटी नहीं, इसलिए…।”

“अच्छा! अच्छा! चल बताता हूँ। लेकिन किसी को बताएगी तो नहीं।”

“नहीं। कसम से।”

“मैं न वहाँ जाकर क्रिकेटर बनूँगा।”

“धत्त पागल। क्रिकेटर तो बड़े होने के बाद बनते हैं।”

“हाँ तो मुंबई जाकर मैं बड़ा हो जाऊँगा। अच्छा सुन। एक और बात सुन।”

“और क्या?”

“और न, मैं वहाँ जाकर ढेर सारे फ्रेंड्स बनाऊँगा।”

“हाँ-हाँ, मैं भी, मैं भी। देखना मैं भी ढेर सारे फ्रेंड्स बनाऊँगी।”

“लेकिन मेरे फ्रेंड्स तुम्हारे फ्रेंड्स से ज़्यादा होंगे।”

“नहीं। मेरे ज़्यादा होंगे पागल।”

“कैसे? मैं ज़्यादा फ्रेंड्स बनाउँगा तो मेरे ज़्यादा होंगे।”

“मैं बड़ी हूँ इसलिए मेरे ज़्यादा होंगे।”

“ऐसा नहीं होता है।”

“ऐसा ही होता है।”

इससे पहले की दोनों लड़ बैठें, मैंने कमरे में जाकर दोनों को डाँटा और सोने के लिए बत्ती बुझा दी।

नई

सुबह जब मैं नींद से बाहर निकलने की जद्दोजहद में थी और लगता था कि थोड़ी देर यहाँ सो जाऊँ या थोड़ी देर वहाँ सोफे पर और लेट लूँ, मुझे ख्याल आया कि लोकल पकड़नी है। बच्चों की छुट्टियाँ हैं, सो गनीमत है। मगर दो छोटे बच्चों के भरोसे घर छोड़कर जाने में भी जी धक-धककर करता है। मगर मैं भी क्या करूँ? जब तक नई आया नहीं मिल जाती पड़ोसियों की सदाश्यता पर विश्वास करना ही पड़ेगा।

पुराने शहर की तो एक-एक चीज़ पता थी। मगर इस महासमुद्र में क्या कहाँ मिलेगा? पुराने शहर में अपने कपड़ों के लिए एक बुटीक वाली से दोस्ती कर ली थी। कभी-कभी तो वह घर भी आ जाया करती थी। यहाँ तो सिलाई भी लगवानी हो तो कहाँ जाऊँ? यहाँ सब जगह दूध की दुकानें तो दिखती हैं मगर मावा कहाँ मिलेगा? पुराने शहर में तो मावा मिलने की खास-खास जगहें पता थी।

ये बच्चों के लिए स्कूल ढूँढ-ढूँढकर परेशान हैं। इतना डोनेशन, बाप रे!!! काश पुराने शहर में ही रहते।

दफ्तर का तो किस्सा ही अलग है। हर बार…हर नई जगह जाकर फिर एक नई चढ़ाई चढ़नी पड़ती। फिर से खुद को साबित करना पड़ता है। फिर अपने आपको बनाना पड़ता है, नई जगह पर स्थापित करना पड़ता है। नई जगह पर अपने लिए जगह बनानी पड़ती है। नई जगह पर अपने लिए फिर से वही पुरानी जगह बनानी पड़ती है क्योंकि हर कोई सचिन तेंदुलकर और लता मंगेशकर तो नहीं, जिनकी सब जगह उतनी ही इज़्ज़त, उतनी ही पूछ हो। हमें तो हर नई जगह जाकर फिर से चौके-छक्के लगाने पड़ते हैं। सुर में सुर मिलाना पड़ता है। तब कहीं जाकर अपने लिए जगह बना पाते हैं।

अब इनके दफ्तर को ही देख लो। इन्हें पुराने दफ्तर में बेस्ट एम्पलोई ऑफ द ईयर चुना गया था। इस दफ्तर के काम करने के स्टाइल को समझने में मदद तो कोई नहीं करता, मगर इनकी छोटी-छोटी गलती पर इन्हें ‘बेस्ट एम्पलोई ऑफ द ईयर’ के ताने ज़रूर दे दिए जाते हैं। लोगों को लगता है कि छोटे शहर में तो कोई भी बेस्ट एम्पलोई ऑफ द ईयर बन सकता है। यहाँ बन के दिखाएं तो जानें। इनकी काबीलियत पर कोई विश्वास नहीं करता। अब इस दफ्तर में उन्हें शुरु से अपने आपको फिर से साबित करना होगा।

वही हाल मेरा भी है। मेरे दफ्तर में बेस्ट एम्पलोई जैसा तो कुछ नहीं। हाँ, मगर मेरा काम करने का पंद्रह साल का अनुभव भी कुछ नहीं है क्या? हर कोई दफ़्तर में यही मानकर चलता है कि नई आई हूँ तो मुझे कुछ नहीं आता होगा। अरे भई! दफ्तर में नई हूँ, काम तो सारा वही पुराना है न!

एक जगह से उखड़कर नई जगह बसना, नई दिनचर्या बनाना कोई आसान काम नहीं। खासकर हम जैसे नौकरीपेशा खानाबदोश लोगों के लिए। उससे भी मुश्किल है बच्चों के लिए।

आजकल जब भी शाम को दफ्तर से लौटती हूँ तो बच्चों को पार्क के किनारे खड़ा पाती हूँ। दोनों दूर से ही दूसरों को खेलते देखते हैं। अब तक शायद किसी से दोस्ती नहीं हो पाई है इसलिए दूसरे बच्चे इन्हें अपने खेल में शामिल नहीं करते। एकाध दिन तो दोनों अकेले ही पार्क की रेत में टीले बना रहे थे। मेरा आना भी उन्हें पता नहीं चलता। दूसरों को खेलता देखने में इतने मशगूल हो जाते हैं कि मुझे आवाज़ देकर बुलाना पड़ता है।

रेत में खेलते बच्चों को देखकर एक ख्याल और कौंधा। कहीं बीमार पड़ गए तो? कहने को तो आस-पास बहुत से क्लिनिक हैं। मगर आजकल तो झोला छाप डॉक्टर भी सर्टिफिकेट लेकर क्लिनिक खोले बैठे हैं। मेरे साथ एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि जब तक डॉक्टर पर मुझे भरोसा कायम नहीं हो जाता, मैं बच्चों का इलाज करवाती भी नहीं हूँ। उफ्‌ दिक्कतें बड़ी हैं और समाधान इतनी जल्दी मिल भी नहीं रहा।

ज़िंदगी की गाड़ी जब एक ढर्रे से उतर जाती है तो उसे दूसरी पटरी पर चढ़ाना कितना मुश्किल होता है।

*****

आज तो हद हो गई। बच्चे जिद पकड़कर बैठे हैं कि उन्हें पुराने शहर वापस जाना है। यहाँ उन्हें अच्छा नहीं लगता। मैं मनाकर-समझाकर थक गई। मगर बूझने की बजाय बच्चे बुझने लगे हैं और तकिए में मुँह डाले रो रहे हैं। रो भी रहें हैं दोनों बदमाश, तो कम्पटीशन में।

डोर बेल बजी। बच्चों ने तकिए में से मुँह नहीं उठाया। पता है, पापा हैं, और उनके नखरे उनके आगे चलेंगे नहीं।

सच! घर में किसी एक का सख़्त होना कितना ज़रूरी है। अंकित की एक आवाज़ में ही तकिए से मुँह निकालकर, धुला-पुछा मुँह खाने की मेज़ पर हाज़िर कर दिया। बच्चों ने आज ज़्यादा बक-बक नहीं की, न खाना ही ठीक से खाया और चुपचाप सोने चले गए। हैरत की बात कि बिना हो-हल्ले के सो भी गए।

बच्चों के जाते ही अंकित ने उन स्कूलों के नाम गिनाए जहाँ हम बच्चों को भेज नहीं पाएंगे। ज़्यादातर स्कूल बहुत मँहगें हैं, कुछ तो पिछले शहर के स्कूलों से कई गुना मँहगे। कुछ ठीक-ठाक स्कूल हैं भी तो इतनी दूर कि यातायात एक समस्या है। कुछ स्कूलों में खुद जाकर अंकित ने देखा तो पाया कि ऊपरी चमक-दमक तो बहुत है, मगर स्कूल के भीतर शौच और पानी की व्यवस्था गड़बड़ है।

हम यह निर्णय लेकर लेटने गए कि कल अपने-अपने दफ्तर और अपने पडोसियों से मिलकर कुछ और स्कूलों की जानकारी इकठ्ठा की जाए।

लेटी तो सही मगर सोच रही थी कि अंकित को बताऊँ या न बताऊँ। मुझे किसी गायनोकोलोजिस्ट की सख़्त आवश्यकता है। मगर मैं नए घर और शहर में व्यवस्थित हो जाने तक अपनी समस्या को टाल रही हूँ। उमर के साथ-साथ क्या नहीं होता इस शरीर को। काश एकदम जवान हो जाते या एकदम बूढ़े। ये बीच की क्षय होती अवस्था नहीं सही जाती।

साथ-साथ यह भी सोचती रही कि इस नई जगह की जाने बच्चों को कब आदत लगेगी। हमें भी।

*****

फिर पुरानी

ज़िंदगी जैसी भी हो, किसी नदी की तरह अपना रास्ता ढूँढ ही लेती है।

किसी ने बताया कि जिस स्टेशन से मैं लोकल पकड़ती हूँ उसकी दूसरी ओर एक मार्किट है, सो एक रविवार वहाँ पहुँची तो देखा हर तरह की चीज़ें वहाँ मिल जाती हैं। कपडों से लेकर दर्जी तक, बर्तन से लेकर सब्ज़ी तक। यहाँ तक कि कटी हुई सब्ज़ियाँ भी मिल जाती हैं जो घर जाते ही बस धोकर छौंकनी होती हैं। यह मेरे लिए अदभुत चीज़ थी क्योंकि पुराने शहर में ऐसी कोई सुविधा नहीं थी।

एक और मज़ेदार सुविधा थी बना-बनाया इडली और डोसे का बैटर। ऐसा मैंने कहीं नहीं देखा था। अंशु को इडली और अंजना को डोसा बहुत पसंद है। जिन दूध की दुकानों को मैं दूर से देखकर केवल दूध कि समझ रही थी, एक दिन पास जाकर देखा तो वहाँ दही से लेकर, कच्चे मावा से लेकर, अलग-अलग फ्लेवर के श्रीखंड के रेट कार्ड लगे थे। भई वाह! मज़ा आ गया देखकर। अब हर त्यौहार पर रौनक होगी।

हाल ही में पता चला कि अंकित के मौसेरे भाई दादर में रहते हैं जिनके एक चाइल्ड स्पेशलिस्ट दोस्त का क्लिनिक हमारे घर के पास ही है। पिछले हफ्ते बच्चों को लेकर गई थी और एक सीक लेकर लौटी।

अगर आप पढ़ने का शौक रखते हैं तो किसी डॉक्टर के पास, विशेषकर अच्छे डॉक्टर के पास, जाते समय एक किताब अवश्य लेते जाएं और हाँ किताब कोई पतली-दुबली लघुकथा संग्रह न हो, हो तो अच्छा खासा वृहद उपन्यास हो क्योंकि वहाँ नम्बर लगाने के बाद आपका नम्बर आते-आते आसानी से किताब पूरी हो जाएगी और हो सकता है आपका नम्बर भी न आए।

आज कॉलोनी में घुसते ही बच्चों ने मेरी ओर हमला बोल दिया। मगर मेरे हाथ में आइस्क्रीम का डिब्बा देख ठिठक गए जिसमें कई आइस्क्रीम ।

“इत्ती सारी आइस्क्रीम??”

“किसके लिए मम्मा?”

“तुम दोनों के लिए और तुम्हारे दोस्तों के लिए।”

मैंने मुस्कुराते हुए डिब्बा अंजना को पकड़ा दिया और दोनों कॉलोनी के पार्क में जाकर अपने थोड़े दोस्तों को आइस्क्रीम बाँटने के बाद, नए दोस्त बनाने के लिए आइस्क्रीम बाँटने में लग गए।

मैं अपने हाथ सीने पर बाँधे, पार्क के किनारे खड़ी होकर बच्चों का कौतुक देख रही थी कि किसी ने पीछे से कंधे पर हाथ रख दिया। मैंने मुडकर देखा तो डॉ सचान मुस्कुराती खड़ी थीं। ये मेरे ऊपरवाले फ्लैट में ही रहती हैं और स्त्री-रोग विशेषज्ञ हैं। शायद यहाँ खड़े होकर अपने बच्चों को पार्क में खेलते हुए निहार रही थीं। मैंने भी मुस्कुराकर ही उनकी मुस्कुराहट का जवाब दिया।

“अब कैसी हो अंजली?”

“ठीक हूँ मैडम! आपकी दवाई से आराम है।”

“गुड! एक महीने बाद यूटर्स का सोनोग्राफी करा लेना। अगर कोई प्रोब्लॉम हुई तो पता लग जाएगा।”

“बिल्कुल….थैंक यू मैडम।”

“अरे थैंक यू तो तुम्हें।”

“वो किसलिए मैडम।”

“बच्चों की आइस्क्रीम के लिए…ह हा हा”

मैं भी खिलखिलाकर हँस पड़ी। अभी हमारी हँसी थमीं नहीं कि पार्किंग एरिआ से अंकित अपने ऑफिस बैग के साथ आते हुए दिखाई दिए। मैंने बच्चों को भी आवाज़ लगाई।

“चलो घर! होमवर्क भी पूरा करना है।”

“कल तो संडे है न! मम्मा।”

“कल हमें बाहर जाना है।”

“बाहर? कहाँ?”

“पहले घर चलो बताती हूँ।”

दोनों बच्चे धूल झाड़ते हुए सीढ़ीयों पर दौड़ गए। अंकित ज़ोर देते हैं कि दूसरे फ्लोर के लिए बच्चे लिफ्ट न लें तो ही अच्छा है। हम भी उस तरह हो लिए जहाँ दूसरे फ्लोर पर बने अपने किराए के फ्लैट सीढ़ियाँ जाती थीं।

“पता है अंजली। सबसी सुकूनवाली बात क्या है?”

“क्या?”

“कि बच्चों को वही स्कूल मिला जहाँ कॉलोनी के बच्चे जाते हैं। इससे उन्हें एकदम अकेलापन या अजनबीपन महसूस नहीं होगा।”

“सो तो है।”

“और उससे भी बड़ी बात क्या है, पता है?”

“क्या?”

“स्कूल बस। जो कॉलोनी के बच्चों को सही से ले जाती और ले आती है। वरना इस महानगर में बच्चों को स्कूल भेजना या ले जाना अपनेआप में महाभारत है।”

“ये तो सही कहा। अपने दफ़्तर जाने में ही मेरी हालात….”

कहते-कहते ही हमारा फ्लैट आ गया और हम अंदर हो लिए। हमारे पहुँचने से पहले ही बच्चे हाथ मुँह धोकर ब्रेड में जैम लगा रहे थे।

ब्रेड ठूँसे मुँह से ही अंशु ने अपना देर से रोका हुआ प्रश्न दाग़ दिया।

“मम्मा हम कल कहाँ जा रहे हैं?”

मैं भी नहीं जानती थी कि हम कल कहाँ जा रहे हैं। आज जब मैं ऑफिस में थी तो अंकित ने फोन करके बताया तो था कि कल बाहर चल रहे हैं, मगर कहाँ? यह एक सरप्राइस ही रखा। इसलिए मैंने विनती भरी आँखों से देखा और आँखों ही आँखों में पूछा कि अब तो बता दो।

“वरसोवा बीच के पास एक रूसी सर्कस देखने।”

दोनों बच्चे अपनी सीट से उछल पड़े और चिल्लाए – “वाव!” और आपस में ही सर्कस के बारे में अपना-अपना ज्ञान बघारने लगे।

मैंने अंकित की ओर भवें टेढ़ी करके देखा और इस बिन मौसम बरसात का कारण जानना चाहा।

“जाने को तो हम कॉलोनी के पीछे बने मॉल में भी जा सकते थे जहाँ बच्चों के लिए ढेरों झूले हैं। फिर आज ये दिलदारी किस बात की दिखा रहे हैं जनाब।”

अंकित ने आँखों में आँखें डाल, शरारती मुस्कान के साथ जवाब दिया।

“इस नाचीज़ को एम्पलॉई ऑफ द मंथ के लिए नॉमिनेट किया गया है।”

मैं ने लगभग उछलते हुए कहा – “क्या?”

फिर अपनेआप को सँभालते हुए बच्चों की ओर देखा। दोनों अपने सर्कस संहिता में डूबे थे। मैंने शांत होकर पूछा –“क्या आपको मिलने के चाँस हैं?”

अंकित ने लंबी साँस छोड़ते हुए कहा – “नहीं। इस साल तो नहीं। मेरे काम में कुछ महीने कम पड़ रहे हैं। मगर मुझे नॉमिनेशन के काबिल समझा गया, यही काफ़ी है।”

अपनी टाई ढीली करते हुए वे फिर बोले –“लेकिन अगली साल मुझे मिलना तय है। कोई नहीं रोक पाएगा।”

मैंने अपने ऑफिस वालों की बात-बात में मुझसे सलाह लेने की आदत को याद करते हुए कहा –“हम्म।”

इसी बीच अंजना ने जैम लगे चम्मच को चाटते हुए कहा “पता है मम्मी।”

“क्या?”

वो तन्मयता से उस चम्मच को ही चाटते हुए बोली – “आहना का न, ट्रांस्फर हो गया है।”

मैंने अंकित की ओर मुस्कुराते हुए देखा। वे भी आँखों ही आँखों में हँस दिए।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल [email protected]

One thought on “खानाबदोश ज़िन्दगी

  • विजय कुमार सिंघल

    रोचक कहानी !

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