भय….
सोचती हूं किसीदिन
उन तमाम बातों को कविता में पिरोकर
दूर कहीं फ़ेंक आऊं
जो बार- बार स्मरण में आकर
हलचल करती है
और जिन्हें लिखने से डरता है मन
क्योंकि कहीं न कहीं
मूर्त या अमूर्त रूप से औरतें….
सामाजिक मान- मर्यादा लोक-लाज
और सम्बन्धों की प्रगाढ़
कमजोर होने के भय से…..
अपने विचारों की अभिव्यक्ति या यूं कह लें
बीती घटनाओं को निर्भिकता से
लिखने में कतराती हैं
एक दबाव सदैव उनपर हावी होता है
एक नियंत्रण के रूप में
और इस नियंत्रण सीमा को
पार करने का परचम
कुछ गिनी-चुनी महिलाएं ही फहरा पाती हैं
अधिकांश महिलाएं आज भी
एक डर के साए में अपने ख्यालों, विचारों को
सिमित दायरे के तहत ही
आजादी की कहानी लिखा करती है