कहानी

कहानी – विकलांग

काठगोदाम से बरेली जाने वाले रेल-मार्ग पर ‘किच्छा’ एक छोटा-सा रेलवे स्टेशन है, काठगोदाम लाइन के लालकुआँ जंकशन से इस लाइन पर बहुत सारी गाड़ियाँ आती-जाती हैं। खास तौर पर बरेली, मथुरा, लखनऊ आदि मार्गों की गाड़ियों का तो दिन भर आना-जाना रहता है। उस दिन इस छोटे से रेलवे स्टेशन पर कुछ अधिक ही भीड़ थी, तरुणा को लालकुआँ जाना था, पर गाड़ी आने में अभी बहुत समय था इतनी देर तक खड़े रहना भी तो कठिन था। तरुणा ने दूर तक नज़र दौड़ाई। कहीं बैठने की जगह न पाकर तरुणा आगे बढ़ती गई। स्टेशन के आखिरी
कोने के बेंच पर उसे थोड़ी-सी जगह मिल गई थी।
आस-पास के वातावरण को देख कर बैठने की इच्छा तो नहीं हो रही थी लेकिन अभी गाड़ी आने में काफी देर थी। लकड़ी के बेंच पर तरुणा के बगल में लगभग 30/35 वर्ष के एक साफ-सुथरा व्यक्ति को बैठा देखकर तरुणा को संतोष हुआ, चलो इतना भी परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।
‘‘तुम कहाँ जाओगे अंकल?’’ तरुणा ने चौंककर देखा, उसके बगल में बैठा व्यक्ति सामने जमीन पर उकड़ूँ बैठे एक लगभग बूढ़े आदमी से बतिया रहा था। तरुणा ने पर्स में से एक पत्रिका निकाली और पढ़ने लगी।
‘‘मुझे मथुरा जाना है बाबूजी। अभी गाड़ी आने में कितनी देर है?’’ उसके कानों में आवाजें तो पड़ ही रही थीं।
‘‘वहाँ क्यों जा रहे हो, और इतने सामान के साथ तुम गाड़ियाँ कैसे बदलोगे? अभी यह गाड़ी तो बरेली तक जाएगी, फिर कासगंज बदलोगे।’’ तरुणा ने फिर एक बार पलटकर देखा सचमुच वह व्यक्ति जो शक्ल से बूढ़ा और बीमार लग रहा था अपने पास रक्खी साइकिल पर छः-सात गठरी लादे था। फटे-पुराने बोरों में बंधा सारा सामान अपने मालिक की हैसियत की चुगली खा रहा था। तरुणा की रुचि उस व्यक्ति में जगने लगी, अनायास ही उसके मुँह से निकल गया, ‘‘गाड़ी तो यहाँ सिर्फ पाँच मिनट ही रुकेगी बाबा, यह भाई साहब ठीक कह रहे हैं। तुम इतने सामान के साथ आखिर कैसे चढ़ पाओगे उसमें। भीड़ भी देख ही रहे हो। कौन चढ़ने देगा तुम्हें, अगर जाना जरूरी है तो सामान घर छोड़कर जाओ।’’
‘‘अरे मैडम जी, आपको पता नहीं यह आदमी बहुत बीमार है और पेशाब की नली भी इसे लगी हुई है। ऐसी हालत में इतने सामान के साथ। आप ही समझाइये न, क्या हम इसके भले की बात नहीं कह रहे?’’
‘‘हाँ बाबा, ये भाई ठीक ही तो कह रहे हैं। यदि तुम इस तरह से बीमार हो तो क्यों जा रहे हो मथुरा, घर में आराम करो न? और इस सामान में क्या है ऐसा जो आपको ले जाना ज़रूरी हो गया है?’’ तरुणा को उसकी हालत पर दया भी आ रही थी और उसे देखकर असमंजस में भी थी।
‘‘कुछ ज्यादा नहीं, बौश भोण्डा-बोरतन (बस भाण्डा-बरतन) और कुछ दाल-चावल वगैरा है बेटी।’’ तरुणा को उसके बोलने से लगा कि वह बंगाली समुदाय से सम्बंध रखता है।
‘‘कहाँ से आए हो?’’
‘‘शक्ति फारम से आया हूँ माँ।’’ अब तरुणा को विश्वास हो गया कि उसका सोचना सही है। शक्ति फार्म बंगाली मज़दूर बहुल इलाका है।
‘‘ऐसी क्या मजबूरी है जो आप इस हालत में यह भाण्डा-बरतन और राशन भी उठा लाए हैं और साइकिल भी? शायद हम लोग आपकी कुछ मदद कर सकें।’’
‘‘अरे मैडम जी, यह आदमी, शक्ति फारम से यहाँ तक इस हालत में साइकिल पर इतना सामान लादकर पैदल आया है। मैंने इसे आते हुए दूर से देखा है।’’
तरुणा ने देखा, वह बूढ़ा दिखने वाला अधेड़ खाली-खाली आँखों से आसमान को ताक रहा था।
‘‘मुझे मेरे बेटे-बहू ने घर से निकाल दिया है। मेरे पास झोंपड़ी बनाने के लिए भी जगह नहीं है और जो छोटी-सी मढ़ैया थी वह उन्होंने कब्जा ली है। कहाँ रहता?’’
‘‘तो अब कहाँ रहेगे, मथुरा में कोई रिश्तेदार है क्या?’’
‘‘नहीं, माँ! कोई नहीं, बस वृन्दावन जाकर कहीं बिरद आशरम में रह जाऊँगा।’’
‘‘तुम काम क्या करते हो?’’ इस बार फिर पास बैठा व्यक्ति बोल उठा।
‘‘लुहार हूँ बाबू, इस सामान में कुछ काम के औजार भी हैं। ठीक हो गया तो कुछ काम भी कर लूँगा।’’
‘‘देखो बाबा, न तो तुम्हें वृन्दावन में कुछ मिलने वाला है और न मथुरा में। सब जगह ठग बैठे हैं। तुम्हारे पास जो कुछ है, वह भी ठग लेंगे और
तुम्हें कहीं जगह भी नहीं मिलेगी। इससे अच्छा तो यह है कि यह सब कबाड़ बेच दो और उस पैसे की रोटी खरीद कर खाओ। किसी मन्दिर गुरुद्वारे के सामने भी बैठोगे तो तुम्हें रोटी मिल जाएगी। हमारा कहना मानो और यह सब बेच दो। सबसे पहले तो तुम इस साइकिल को बेचो। जो थोड़ा-बहुत पैसा मिलता है, लेकर फिर अगर तुम्हें लगता है कि मथुरा-वृन्दावन जाकर तुम्हारा कल्याण होगा तो अवश्य जाओ। पर बिना सामान के तुम गाड़ी में चढ़ आओगे। यहाँ से मथुरा का किराया भी ज्यादा नहीं है, पैसेंजर गाड़ी में 35/- रुपए का टिकट है। जाओ,
अभी गाड़ी आने में पूरे दो घण्टे हैं, इस सामान को बेच दो।’’
अब तक आस-पास बैठे बहुत से लोग उन लोगों की बात-चीत में रुचि लेने लग गए थे। प्लेटफार्म पर लगी भीड़ में सभी ने बाबू लगने वाले व्यक्ति की बात का समर्थन किया तो अधेड़ रोगी सोचने पर विवश हुआ-सा लगने लगा।
‘‘बाबा, ये भाई साहब ठीक कह रहे हैं, इस बीमारी की हालत में सबसे पहले तो तुम्हें इस साइकिल से मुक्ति पानी चाहिए।’’ तरुणा ने उस ज़ंग लगी साइकिल की ओर संकेत किया, जिस पर बंधी हुई गठरियाँ लटकी हुई थीं, ‘‘फिर जो चार पैसे मिलते हैं उन्हें जेब में डालो और कहीं फुटपाथ पर भी सो रहोगे तो कोई परेशानी नहीं होगी। जहाँ जाना चाहो चले जाना। कहाँ ठेलते रहोगे यह सारा ताम-झाम?’’
‘‘पर मुझे तो पता नहीं कि यह सामान कहाँ बेचना है।’’
‘‘स्टेशन से बाहर ही ज़रा दूर पर कबाड़ी बैठे हैं। बाहर होटल वाला है, राशन उसे दे दो।’’ तमाशा देखने वाले एक तीसरे मुसाफिर ने कहा।
‘‘तुम्हें किस गाड़ी से जाना है भैया?’’ तरुणा ने उसी से पूछ लिया तो वह सकपका कर बोला, ‘‘मुझे भी उसी गाड़ी से जाना है जिससे यह जाना चाह रहा है।’’
‘‘उसके लिए तो अभी बहुत समय है, यदि आप इनके साथ बाहर तक चले जाएँ और इनका सामान ठीक से बिकवा दें तो आपका भी भला हो जाएगा। कुछ पुण्यलाभ आप भी करलो।’’ बोलने वाला बगलें झाँकने लगा इस पर वह बाबू फिर कूद पड़ा, ‘‘भैया जी, मुझे लालकुआँ जाना है और मेरी गाड़ी आने में अब अधिक समय नहीं रहा, वरना मैं इन बुजुर्ग के साथ चला जाता। आपके पास अभी बहुत समय है, आप कृपा करके इन के साथ चले जाइये।’’
‘‘बाबा, कुछ मेरे काम की चीज़ है तो मैं भी तुम्हें पैसे दे देता हूँ, मुझे गठरी खोलकर दिखाओ।’’ पास ही खड़े एक तमाशबीन ने कहा तो बाबा ने गठरी खोली। पुरानी आरी, बसोला और ऐसे ही कुछ औज़ार लेकर उस व्यक्ति ने अस्सी रुपए रोगी के हाथ पर धरे तो उसकी आँखें चमक उठीं। वह एक झटके से उठ खड़ा हुआ। उसे बाहर जाने को तैयार देखकर एक-दो युवकों को उनकी माताओं ने जो उनके साथ थीं उस व्यक्ति की सहायता करने के लिए उकसाया। तभी लालकुआँ जाने वाली गाड़ी ने स्टेशन में प्रवेश किया और भगदड़ मच गई। तरुणा भी भाग कर
सामने पड़ने वाले डिब्बे में चढ़ने लगी तो गार्ड ने पूछ लिया, ‘‘आप ने देखा नहीं, ये विकलांग कम्पार्टमेंट है?’’ तरुणा ने चौंककर देखा, यह वास्तव में विकलांग कक्ष था और इसके साथ ही गार्ड का कक्ष। गार्ड अपने कक्ष के दरवाजे पर खड़ा था।
‘‘क्षमा कीजिए, जल्दीबाज़ी में……’’
‘‘कहाँ जाएँगी?’’
‘‘लालकुआँ।’’
‘‘बैठ जाइए, आगे जाने के लिए आपके पास समय नहीं है। गाड़ी चल पड़ेगी।’’ वह बेबस-सी भीतर जाकर बैठ गई और खिड़की से उस साइकिल वाले अधेड़ बूढ़े को देखने लगी जो दोनों युवकों के साथ स्टेशन से बाहर जा रहा था।  उसे अच्छा लगा कि अब वह बीमार व्यक्ति बेकार के सामान को नहीं ढोयेगा। अब वह पलटकर कम्पार्टमेंट का जायज़ा लेने लगी तो उसे यह देखकर संतोष हुआ कि गलत कम्पार्टमेंट में बैठने वाली वह अकेली दोषी नहीं है, उसके साथ स्टेशन की बेंच पर बैठा उसका पड़ौसी भी सामने बैठा था। उसने इत्मीनान से पर्स में से किताब निकाल ली जो उसने खाली समय में पढ़ने के लिए घर से चलते समय पर्स में रख ली थी। उस रोगी के कारण समय रहते भी वह वहाँ कुछ पढ़ नहीं पाई थी।
तभी उसे लगा कि पर्स में से कुछ नीचे गिरा है। वह पेन था, जिसे उठाने के लिए तरुणा को नीचे झुकना ही पड़ेगा और वह झुकी। पैन फिसलकर सामने बैठे व्यक्ति की तरफ चला गया, तरुणा ने देखा वह दोनों पैरों से विकलांग था, उसके पैर टेढ़े थे। चौंक कर तरुणा ने उसकी ओर देखा, वह हर बात से बेपरवाह आँखें बंद किए कुछ गुनगुना रहा था। उसके चेहरे पर असीम संतोष था, जैसे वह कोई बहुत बड़ा मोर्चा जीतकर आया हो। तरुणा सोचने लगी, यदि ऐसी सोच उस बीमार अधेड़ के बच्चों की भी होती तो…..? हाँ, शायद वे विकलांग थे, बुद्धि से विकलांग। यह व्यक्ति तो हरगिज़ विकलांग नहीं था।

—  आशा शैली

*आशा शैली

जन्मः-ः 2 अगस्त 1942 जन्मस्थानः-ः‘अस्मान खट्टड़’ (रावलपिण्डी, अब पाकिस्तान में) मातृभाषाः-ःपंजाबी शिक्षा ः-ललित महिला विद्यालय हल्द्वानी से हाईस्कूल, प्रयाग महिलाविद्यापीठ से विद्याविनोदिनी, कहानी लेखन महाविद्यालय अम्बाला छावनी से कहानी लेखन और पत्रकारिता महाविद्यालय दिल्ली से पत्रकारिता। लेखन विधाः-ः कविता, कहानी, गीत, ग़ज़ल, शोधलेख, लघुकथा, समीक्षा, व्यंग्य, उपन्यास, नाटक एवं अनुवाद भाषाः-ः हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, पहाड़ी (महासवी एवं डोगरी) एवं ओडि़या। प्रकाशित पुस्तकंेः-1.काँटों का नीड़ (काव्य संग्रह), (प्रथम संस्करण 1992, द्वितीय 1994, तृतीय 1997) 2.एक और द्रौपदी (काव्य संग्रह 1993) 3.सागर से पर्वत तक (ओडि़या से हिन्दी में काव्यानुवाद) प्रकाशन वर्ष (2001) 4.शजर-ए-तन्हा (उर्दू ग़ज़ल संग्रह-2001) 5.एक और द्रौपदी का बांग्ला में अनुवाद (अरु एक द्रौपदी नाम से 2001), 6.प्रभात की उर्मियाँ (लघुकथा संग्रह-2005) 7.दादी कहो कहानी (लोककथा संग्रह, प्रथम संस्करण-2006, द्वितीय संस्करण-2009), 8.गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतन्त्रता सेनानियों की जीवनियाँ-2007), 9.हमारी लोक कथाएं भाग एक से भाग छः तक (2007) 10.हिमाचल बोलता है (हिमाचल कला-संस्कृति पर लेख-2009) 11. सूरज चाचा (बाल कविता संकलन-2010) 12.पीर पर्वत (गीत संग्रह-2011) 13. आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी (नारी विषयक लेख-2011) 14. ढलते सूरज की उदासियाँ (कहानी संग्रह-2013) 15 छाया देवदार की (उपन्यास-2014) 16 द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह) प्रेस में प्रकाशनाधीन पुस्तकेंः-द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह), सुधि की सुगन्ध (कविता संग्रह), गीत संग्रह, बच्चो सुनो बाल उपन्यास व अन्य साहित्य, वे दिन (संस्मरण), ग़ज़ल संग्रह, ‘हण मैं लिक्खा करनी’ पहाड़ी कविता संग्रह, ‘पारस’ उपन्यास आदि उपलब्धियाँः-देश-विदेश की पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों से निरंतर प्रसारण, भारत के विभिन्न प्रान्तों के साहित्य मंचों से निरंतर काव्यपाठ, विचार मंचों द्वारा संचालित विचार गोष्ठियों में प्रतिभागिता। सम्मानः-पत्रकारिता द्वारा दलित गतिविधियों के लिए अ.भा. दलित साहित्य अकादमी द्वारा अम्बेदकर फैलोशिप (1992), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां (प्रतापगढ़) द्वारा साहित्यश्री’ (1994) अ.भा. दलित साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा अम्बेदकर ‘विशिष्ट सेवा पुरुस्कार’ (1994), शिक्षा साहित्य कला विकास समिति बहराइच द्वारा ‘काव्य श्री’, कजरा इण्टरनेशनल फि़ल्मस् गोंडा द्वारा ‘कलाश्री (1996), काव्यधारा रामपुर द्वारा ‘सारस्वत’ उपाधि (1996), अखिल भारतीय गीता मेला कानपुर द्वारा ‘काव्यश्री’ के साथ रजत पदक (1996), बाल कल्याण परिषद द्वारा सारस्वत सम्मान (1996), भाषा साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा ‘साहित्यश्री’ (1996), पानीपत अकादमी द्वारा आचार्य की उपाधि (1997), साहित्य कला संस्थान आरा-बिहार से साहित्य रत्नाकर की उपाधि (1998), युवा साहित्य मण्डल गा़जि़याबाद से ‘साहित्य मनीषी’ की मानद उपाधि (1998), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां से आचार्य ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’ सम्मान (1998), ‘काव्य किरीट’ खजनी गोरखपुर से (1998), दुर्गावती फैलोशिप’, अ.भ. लेखक मंच शाहपुर (जयपुर) से (1999), ‘डाकण’ कहानी पर दिशा साहित्य मंच पठानकोट से (1999) विशेष सम्मान, हब्बा खातून सम्मान ग़ज़ल लेखन के लिए टैगोर मंच रायबरेली से (2000)। पंकस (पंजाब कला संस्कृति) अकादमी जालंधर द्वारा कविता सम्मान (2000) अनोखा विश्वास, इन्दौर से भाषा साहित्य रत्नाकर सम्मान (2006)। बाल साहित्य हेतु अभिव्यंजना सम्मान फर्रुखाबाद से (2006), वाग्विदाम्बरा सम्मान हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से (2006), हिन्दी भाषा भूषण सम्मान श्रीनाथद्वारा (राज.2006), बाल साहित्यश्री खटीमा उत्तरांचल (2006), हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा महादेवी वर्मा सम्मान, (2007) में। हिन्दी भाषा सम्मेलन पटियाला द्वारा हज़ारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान (2008), साहित्य मण्डल श्रीनाथद्वारा (राज.) सम्पादक रत्न (2009), दादी कहो कहानी पुस्तक पर पं. हरिप्रसाद पाठक सम्मान (मथुरा), नारद सम्मान-हल्द्वानी जिला नैनीताल द्वारा (2010), स्वतंत्रता सेनानी दादा श्याम बिहारी चैबे स्मृति सम्मान (भोपाल) म.प्रदेश. तुलसी साहित्य अकादमी द्वारा (2010)। विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ द्वारा भारतीय भाषा रत्न (2011), उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा सम्मान (2011), अखिल भारतीय पत्रकारिता संगठन पानीपत द्वारा पं. युगलकिशोर शुकुल पत्रकारिता सम्मान (2012), (हल्द्वानी) स्व. भगवती देवी प्रजापति हास्य-रत्न सम्मान (2012) साहित्य सरिता, म. प्र. पत्रलेखक मंच बेतूल। भारतेंदु साहित्य सम्मान (2013) कोटा, साहित्य श्री सम्मान(2013), हल्दीघाटी, ‘काव्यगौरव’ सम्मान (2014) बरेली, आषा षैली के काव्य का अनुषीलन (लघुषोध द्वारा कु. मंजू षर्मा, षोध निदेषिका डाॅ. प्रभा पंत, मोतीराम-बाबूराम राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी )-2014, सम्पादक रत्न सम्मान उत्तराखण्ड बाल कल्याण साहित्य संस्थान, खटीमा-(2014), हिमाक्षरा सृजन अलंकरण, धर्मषाला, हिमाचल प्रदेष में, हिमाक्षरा राश्ट्रीय साहित्य परिशद द्वारा (2014), सुमन चतुर्वेदी सम्मान, हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा (2014), हिमाचल गौरव सम्मान, बेटियाँ बचाओ एवं बुषहर हलचल (रामपुर बुषहर -हिमाचल प्रदेष) द्वारा (2015)। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा प्रदत्त ‘तीलू रौतेली’ पुरस्कार 2016। सम्प्रतिः-आरती प्रकाशन की गतिविधियों में संलग्न, प्रधान सम्पादक, हिन्दी पत्रिका शैल सूत्र (त्रै.) वर्तमान पताः-कार रोड, बिंदुखत्ता, पो. आॅ. लालकुआँ, जिला नैनीताल (उत्तराखण्ड) 262402 मो.9456717150, 07055336168 [email protected]