कविता
वो पुरानी यादें वो पुराने कच्चे मकान ।
खेत खलियानों की जगह बंज़र मैदान ।।
खींच कर ले आता है बरबस ही मुझे ।
बचपन की मीठी यादों का ज़हान ।।
गिरते टूटते जगह जगह से स्लेट ।
याद आता है टूटा हुआ रोशनदान ।।
पेडों का झुरमुट बरगद की छाया ।
सब है क्यों भला मुझसे अनजान ।।
नन्हे-नन्हे पांवों का उछलना कूदना ।
कर देता था सच वो काका को परेशान ।।
बिछड गए बारी बारी बचपन के मीत ।
हमें भी बांधना होगा अब सामान ।।
कोन सुनेगा यहां गिले शिकवे “दीक्षित”।
नहीं समझता है यह दिल नादान ।।
— सुदेश दीक्षित