धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

अग्निहोत्र यज्ञ व इससे होने वाले लाभों पर विचार

ओ३म्

वैदिक धर्मी आर्यों के पांच दैनिक कर्तव्य हैं जिन्हें ऋषि दयानन्द जी ने भी पंचमहायज्ञ नाम से स्वीकार किया है। उन्होंने पंचमहायज्ञविधि नाम से एक पुस्तक भी लिखी है। संस्कार विधि में इन यज्ञों का विधान किया गया है। स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश में सन्ध्या एवं देवयज्ञ अग्निहोत्र की चर्चा एवं इसके समर्थन में विज्ञान की दृष्टि से विचार प्रस्तुत किये हैं। हम यहां दैनिक देवयज्ञ की चर्चा कर रहे हैं। हम सभी जानते हैं कि सभी परोपकार के कार्यों को यज्ञ कहा जाता है। जिन कार्यों से मनुष्य व प्राणीमात्र अथवा समाज को लाभ होता है वह कार्य यथा ईश्वर को जानकर सन्ध्या-उपासना करना एवं वातावरण को स्वच्छ रखते हुए समाजोत्थान के कार्यों में संलग्न होना, ऐसे सभी कार्य भी यज्ञ के अन्तर्गत आते हैं। देवयज्ञ में यज्ञकुण्ड, यज्ञ समिधा, गोघृत व मिष्ट, सुगन्धित एवं औषधि आदि द्रव्यों से निर्मित पदार्थों वा हवन सामग्री का प्रयोग किया जाता है। घृत एवं हवन सामग्री को वेदमंत्रोच्चार के साथ मन्त्र के अन्त में स्वाहा बोल कर यज्ञकुण्ड की अग्नि में आहुति देते हैं जिससे हम नासिका साधन से सुगन्ध का अनुभव करते हैं। इसका अर्थ यह होता है कि हमने घृत व हवन सामग्री की जो आहुति यज्ञकुण्ड में डाली है वह सूक्ष्म होकर वायुमण्डल में फैल गई है जिसका प्रभाव सुगन्ध के रूप में हमें अनुभव होता है। ऋषि दयानन्द जी ने कहा है कि यज्ञ करने से दुर्गन्ध का नाश होता है। यह प्रत्यक्ष अनुभव ज्ञान व अज्ञानी सभी मनुष्यों को होता है। सुगन्ध स्वास्थ्य के लिए हितकर होती है और दुर्गन्ध व प्रदुषित वायु स्वास्थ्य के लिए अहितकार होती है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि हमारे रोगों का नाश हो रहा है और हम स्वस्थ हो रहे हैं। स्वस्थ मनुष्य यह अनुभव करते हैं कि हम भावी जीवन में रोगों से लड़ने की शक्ति अपने शरीर के भीतर संग्रह कर रहे हैं जिससे हम स्वस्थ रहेंगे और रोगों से पीड़ित नहीं हांगे। ऋषि दयानन्द जी ने अपने साहित्य में यह भी लिखा है कि जब तक भारत में यज्ञों का प्रचार व प्रचलन था, यहां रोग नहीं होते थे या बहुत कम होते थे। आज भी यदि सभी लोग वा अधिक से अधिक लोग यज्ञ करना आरम्भ कर दें तो देश पूर्व काल के समान रोगरहित हो सकता है। ऋषि दयानन्द ने जो बातें यज्ञ विषयक कहीं हैं वह विचार करने पर सत्य एवं प्रामाणिक सिद्ध होती है। ऋषि दयानन्द के जीवन का अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि वह केवल वेद और वैदिक साहित्य का ही पाण्डित्य नहीं रखते थे अपितु ज्ञान व विज्ञान में भी उनकी गहरी पहुंच थी। उन्होंने जो भी बात कही व लिखी है वह सभी अकाट्य युक्तियों, प्रमाणों से पुष्ट एवं विज्ञान की मान्यताओं व सिद्धान्तों मुख्यतः तर्क व अनुमान आदि से सिद्ध होती हैं। अतः देश व समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को यज्ञ पर अपना ध्यान केन्द्रित कर अनुसंधान, शोध व चिन्तन कर इसके सभी पक्षों को समाज के सम्मुख प्रस्तुत करना चाहिये। यज्ञ पर जितना वैज्ञानिक कार्य होना था, किन्हीं कारणों से केन्द्र व राज्य सरकारों ने उसकी उपेक्षा की गई है। ऐसा वोट बैंक की नीति के कारण से होता है। सभी दल एक ही वर्ग को सन्तुष्ट करने व उनके ही हितों की बात करते हैं। इसी कारण वेद व यज्ञ की भी उपेक्षा की गई है। हम आशा करते हैं कि भविष्य में देश विदेश के वैज्ञानिक यज्ञ विषयक अधिकाधिक अनुसंधान व शोध करेंगे जिससे समाज व संसार के लोग यज्ञ के लाभों से लाभान्वित हो सकेंगे।

वैदिक मान्यताओं के अनुसार अग्निहोत्र यज्ञ को प्रत्येक गृहस्थी के लिए प्रतिदिन प्रातः व सायं करना अनिवार्य है। इससे उनके स्वास्थ्य की रोगों से रक्षा होती है। ऐसा इस प्रकार होता है कि घरों में यज्ञ करने से यज्ञ की गर्मी से उसके सम्पर्क में आने वाली वायु गर्म होकर हल्की हो जाती है ओर ऊपर को गमन करती है। ऊपर की अधिक घनत्व की किंचित ठण्डी वायु नीचे आती है जो अग्निहोत्र वा हवन के सम्पर्क में आकर गर्म होकर ऊपर चली जाती है। इस प्रकार से ऊपर की वायु नीचे और नीचे की ऊपर आती जाती रहती है और इस प्रकार से पूरे कमरे व घर की वायु बाहर की तुलना में गर्म होने से हल्की होकर घर से बाहर चली जाती है और बाहर की शुद्ध वायु भीतर घर में प्रवेश करती जाती है। घर के भीतर की वायु श्वास-प्रश्वास व रसोईघर में भोजन पकाये जाने के कारण व घर की वायु के बाहर न जाने के कारण दूषित होकर वहां रहने वाले व्यक्तियों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती है। इस प्रकार से हवन वा अग्निहोत्र करने से घर के भीतर की अशुद्ध वायु शुद्ध हो जाती है। यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसे ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत कर यज्ञ के वैज्ञानिक लाभ से पाठकों को परिचित कराया है।

गीता में एक श्लोक में कहा गया है कि यज्ञ के धूम्र से बादल बनते हैं और बादलों से वर्षा होती है। वर्षा से खेतों में अन्न, फल, ओषधियां व वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं। इन्हें भोजन के रूप में प्रयोग करने से मनुष्य के शरीर में अनेक पदार्थ बनते हैं जिनमें से एक तत्व वीर्य व आर्तव होता जिससे सन्तानों का जन्म होता है। इस मनुष्य जन्म से ही यह संसार सृष्टि के आरम्भ से अब तक चला आ रहा है। अतः यज्ञ से वर्षा का होना एक अतीव महत्वपूर्ण बात है। एक वेदमंत्र में ईश्वर ने बताया है कि जब जब यज्ञकर्ता चाहें ंतब तब बादल आयें और इच्छानुसार वर्षा करें। आर्य समाज में कीर्तिशेष पं. वीरसेन वेदश्रमी जी आदि विद्वान हो गये हैं जिन्होंने सूखा पड़ने पर कुछ स्थानों पर यज्ञ से वर्षा कराई थी। स्वामी विद्यानन्द विदेह ने एक वृष्टि यज्ञ पद्धति नामक ग्रन्थ भी वर्षा न होने पर यज्ञ द्वारा वर्षा कराने पर लिखा है। यह देखा गया है कि जब वर्षा नहीं होती तो रोग बढ़ जाते हैं और वर्षा होने पर रोग कम होते हैं। बहुत से रोग वर्षा के होने पर ठीक भी हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि यदि वायु वा बादलों में यज्ञ के घृत व हवन सामग्री का अंश अधिक होगा तो उससे स्वास्थ्य उत्तम होगा और अन्न की गुणवत्ता भी कहीं अधिक होगी।

यज्ञ करने से साध्य और असाध्य रोग दोनों प्रकार के रोग ठीक होते हैं। यज्ञ में एक मन्त्र अग्न आयूंषि पवस सुवोर्जमिषं नः’ आता है। इसमें कहा गया है कि प्राणों का प्राण परमात्मा हमारे जीवन की रक्षा करता है और हमें बल व अन्नादि प्राप्त कराता है। वह परमात्मा दुष्ट जीव-जन्तुओं से हमारी रक्षा भी करता है। हम जानते हैं कि रोगों का एक कारण क्रिमी वा सूक्ष्म कीटाणु होते हैं जिन्हें बैक्टिरिया कहते हैं। यज्ञ करने से वह नष्ट हो जाते हैं। हम यह भी अनुभव करते हैं यज्ञ के धूम का प्रभाव हमारे शरीर के बाहर तो होता ही है, इसके अतिरिक्त श्वांस द्वारा हम जो प्राण भीतर लेते हैं उससे यज्ञ का प्रभाव और शुद्ध वायु हमारे भीतर पहुंचता है। इस प्रकार यज्ञ की अग्नि गोघृत व ओषधियुक्त सामग्री के सूक्ष्म कणों से हमारे शरीर की भीतर व बाहर से चिकित्सा करती हुई प्रतीत होती है। हम समझते हैं कि स्वस्थ व्यक्तियों को यज्ञ अवश्य करना चाहिये जिससे वायु व जल आदि में विद्यमान रोग के किटाणु हमारे शरीर पर दुष्प्रभाव उत्पन्न न कर सके। रोग हो जाने पर उनके निवारण में कठिनता होती है। पाठक इस विषय में स्वयं भी विचार कर सकते हैं।

यज्ञ में हम जो वेदमंत्र बोलते हैं उसमें जीवन को शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक व आत्मिक सभी प्रकार के स्वास्थ्य की कामना की गई है। मन्त्रों में यह भी कहा गया है कि हम भौतिक पदार्थों से भी सम्पन्न व समृद्ध हों। आर्यसमाज के एक विद्वान श्री उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी तो एक प्रवचन ही इस बात का देते हैं कि जो यज्ञ करता है वह दरिद्र न होकर सुखी व समृद्ध होता है। हमने देहरादून के तपोवन आश्रम में दिये हुए उनके अनेक प्रवचनों को कई बार प्रस्तुत किया है जो पूर्णतया युक्ति संगत होते हैं। हमारा अपना मानना भी यही है कि यज्ञ से निर्धनता व अज्ञानता समाप्त होती है। मनुष्य सद्विचारों से पुष्ट होता है और जीवन में उन्नति को प्राप्त होता है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि वेदमंत्रों में जो प्रार्थनायें की गई हैं वह सभी यज्ञ करने से पूर्ण होती है। भोपाल गैस काण्ड में जहां सहस्रों लोग गैस के दुष्प्रभाव से मरे थे वहीं एक याज्ञिक परिवार इस कारण बच गया था कि वह प्रतिदिन यज्ञ करता था। उस यज्ञकर्ता का अपना परिवार ही उस विषैली गैस के दुष्प्रभाव से नहीं बचा था अपितु उसके पशुओं पर गैस का दुष्प्रभाव नहीं हुआ था। हम भी एक बार गम्भीर दुर्घटना होने पर पूर्णतया सुरक्षित बचे हैं। उस समय हमारे एक मित्र जो आर्यसमाजी नहीं थे, उन्होंने जब अन्यों से दुर्घटना की भीषणता को सुना तो हमें कहा था कि हम इस लिए बचे हैं कि हम यज्ञ करते व कराते थे। उनकी यह बात हमें उचित प्रतीत हुई थी और हमने सोचा कि उन्होंने यह बात शायद ईश्वर की प्रेरणा द्वारा ही न कही हो। ऐसे उदाहरण यज्ञ करने वाले सभी मनुष्यों के जीवन में मिल सकते हैं। हमारे एक मित्र व उनकी पत्नी अतीत में कुष्ट रोगी रहे हैं। उन्होंने अपने परिवार की एक लड़की का पालन किया है। आज वह बैंक में अधिकारी है। उनकी एक छोटे से कमरे की कुटिया में हमारे देश के पूर्व राष्ट्रपति श्री वी.वी. गिरी आ चुके हैं। अन्य अनेक गणमान्य व्यक्ति आ चुके हैं। आपका यश पूरी संस्था में छाया हुआ है। सभी उनकी विद्वता से प्रभावित हैं। हमें तो इसके पीछे उनकी ईशभक्ति, वेदाध्ययन, वेदप्रेम और आर्यसमाज के प्रति अनुराग तथा यज्ञ का प्रभाव ही अनुभव होता है। यहां हम यह भी जोड़ना चाहते हैं कि यदि कुछ भाई दैनिक यज्ञ अग्निहोत्र नहीं कर पाते हैं तो वह यज्ञ के सभी मन्त्रों का मौन व शाब्दिक उच्चारण कर मानस यज्ञ ही कर लिया करें। इतने मात्र से भी उन्हें कुछ लाभ अवश्य होगा। यज्ञ करने से आध्यात्मिक लाभ भी होते हैं। यज्ञ करने से यज्ञकर्ता दैवीय गुणों से युक्त होकर देव हो जाता है। इससे काम, क्रोध, लोभ आदि नियंत्रित हो जाते हैं।

लेख का और विस्तार न कर हम पाठकों से निवेदन करते हैं कि वह यज्ञ अवश्य करें। इससे उन्हें हानि तो कोई नहीं होगी, भावी जीवन में लाभ अवश्य ही होंगे जिन्हें उनकी आत्मा स्वीकार करेगी। यज्ञ करनपे से वह स्वस्थ रहेंगे और उनकी आर्थिक स्थिति भी अच्छी होगी, ऐसा हमारा अनुभव है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य