ग़ज़ल
आवारगी भी दिल की ये मंहगी हुज़ूर है
आसां समझने वालो ये तुम्हारा फितूर है
बुझे बुझे से चेहरे बिन बात मुस्कुराना
पहचान है वो दर्दे दिल के ग़म में चूर है
रोकेंगी क्या दीवारें उल्फत के परिंदे को
गर ज़िद पे वो आए मुझे मिलना ज़रूर है
है इश्क़ जानलेवा हमको भी ये खबर है
दिल आ गया किसी पे मेरा क्या कसूर है
बहके हुए कदम हैं जाने असर है कैसा
ये नशा है इश्क़ का ही वफा का सुरूर है
पाया नहीं ‘जानिब’ जो उसका ग़म नहीं
इस दौलत ए चाहत पर हमको गुरूर है
— पावनी जानिब, सीतापुर