धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

जीवन मृत्यु रहस्य एवं आनन्दमय मोक्ष प्राप्ति की चर्चा

ओ३म्

मनुष्य जीवन हो या पशु-पक्षियों का जीवन, सभी का जीवन, जीवन व मृत्यु के पाश में बन्धा व फंसा हुआ है। कोई भी मनुष्य या प्राणी स्वेच्छा से मरना नहीं चाहता। वह चाहता है कि वह सदा इसी प्रकार से बना रहे। उसे कभी कोई रोग न हो। दुःखों को कोई भी प्राणी पसन्द नहीं करता। परन्तु फिर भी जीवन में वृद्धि व ह्रास तथा सुख व दुःख सहित जन्म-मृत्यु का चक्र चलता रहता है। हम देखते हैं कि हमारे परिवार व हमारे निकटवर्ती अन्य भी जो लोग हमसे आयु में बड़े थे, वह हमारे सामने कुछ कुछ अन्तराल के बाद दिवंगत होते रहे। कोई रोगी होकर मृत्यु को प्राप्त होता है तो कोई अचानक हृदयाघात आदि से मर जाता है। मृत्यु के अनेक कारण हो सकते हैं। अतः जीवन व मृत्यु को जानना हम सबके लिए आवश्यक है जिससे हम जीवन-मृत्यु विषयक सत्य स्थिति को जानकर अन्यों की अपेक्षा कम दुःखी हों या हो सके तो योग व ध्यान में प्रवृत्त होकर मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लें जिससे हमारा यह जीवन मृत्यु के डर के साये में न बीते और हम भय मुक्त व प्रसन्न रहते हुए प्रतिदिन व हर पल सुख व शान्ति से अपना समय सार्थक व रचनात्मक कार्यों को करते हुए व्यतीत करें।

जीवन और मृत्यु को जानने के लिए हमें ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व व स्वरूप को भी जानना आवश्यक है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप है। वह अनादि, नित्य और अनन्त है। ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। ईश्वर के अतिरिक्त इस संसार में जीवात्मा और प्रकृति का भी अस्तित्व है। जीवात्मा भी चेतन तत्व व पदार्थ है। यह भी अनादि, नित्य, अमर, अनन्त व एकदेशी है। जीवात्मा अल्पज्ञ और ससीम है। अनन्त का अर्थ है कि जिसका अन्त कभी नहीं होता। हम मनुष्य व इतर प्राणियों की मृत्यु को होता देखते हैं। यह मृत्यु शरीर की होती है। इस शरीर में विद्यमान चेतन जीवात्मा कभी मरता नहीं अपितु ईश्वर की प्रेरणा से पूर्व शरीर से निकल कर अपने कर्मानुसार अपने भावी माता-पिताओं के पास चला जाता है और वहां ईश्वरीय व्यवस्था से उनके शरीरों में प्रवेश कर ईश्वर द्वारा बनाये नियम के अनुसार जन्म लेता है। यह जीवात्मा अत्यन्त सूक्ष्म होता है। यदि ईश्वर, जीव व प्रकृति की सूक्ष्मता पर विचार करें तो जीवात्मा से सूक्ष्म ईश्वर है और जीवात्मा प्रकृति से भी सूक्ष्म है। यद्यपि प्रकृति भी अत्यन्त सूक्ष्म है परन्तु जीवात्मा सत्व, रज व तम गुणों वाली मूल प्रकृति के सूक्ष्म कणों से भी अधिक सूक्ष्म है। जीवात्मा संख्या में असंख्य व अनन्त हैं। इन जीवों ने अपने पूर्व जन्मों में जो कर्म किये होते हैं उनके आधार पर ईश्वर इन्हें उन कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देने के लिए मनुष्यादि नाना प्रकार की योनियों में से किसी एक में जन्म देता है। ईश्वर न्यायकारी व दयालु है। वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। पक्षपात तभी किया जाता है कि जब निजी स्वार्थ, इच्छा व दूसरे से कोई अपेक्षा हो। ईश्वर में यह बातें नहीं है। वह जीवों को सुख देना चाहता है परन्तु इसके लिए तर्क व न्यायपूर्ण व्यवस्था यह है कि जीव के कर्म अच्छे वा शुभ हों। जिन्होंने शुभ कर्म किये होते हैं वह सुख पाते हैं और जिनके सभी व अधिकांश कर्म अच्छे नहीं होते हैं उन्हें निम्न वा नीच योनियों में जाना होता है जहां उन्हें दुःख प्राप्त होता है। इस दुःख का अभिप्राय भी जीवों को उनके कर्मों के फल भुगाकर उनका सुधार कर उन्हें मनुष्य योनि में उन्नत करना होता है। अन्य योनि के जीवों को देख कर तथा वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर मनुष्यों को भी यह सीख व शिक्षा मिलती है कि वह भी अच्छे कर्म करें जिससे उन्हें इस जन्म व परजन्म में नीच योनियों में जन्म लेकर दुःख न भोगना पड़ें। यह भी जान लें कि प्रकृति जड़ है जिसमें कोई संवेदना या सुख, दुःख की अनुभूति नहीं होती। यह सृष्टि मूल प्रकृति से सर्गारम्भ पर ईश्वर के द्वारा बनाई जाती है और ईश्वर का एक दिन पूरा होने पर इसकी प्रलय हो जाती है। प्रलय का अर्थ होता है कि सूर्य, पृथिवी व चन्द्र आदि नष्ट होकर अपने कारण, मूल प्रकृति में विलीन हो जाते हैं।

ईश्वर ने मनुष्य व प्राणियों के जो शरीर बनाये हैं वह अन्नमय शरीर हैं। यह शरीर सीमित अवधि तक ही जीवित रह सकते हैं। यह अनित्य वा मरणधर्मा होते हैं। जिस प्रकार एक भवन पुराना होने पर कमजोर होकर गिर जाता है, लगभग उसी प्रकार से मनुष्य आदि प्राणियों के शरीर भी शैशवास्था के बाद वृद्धि को प्राप्त होकर युवावस्था में पूर्ण विकास को प्राप्त होते हैं। इस युवावस्था में शारीरिक शक्तियां अपने चरम पर होती हैं। कुछ काल तक यह अवस्था बनी रहती है और फिर वृद्धावस्था आरम्भ हो जाती है। वृद्धावस्था को प्राप्त होने पर मनुष्य का शरीर जीर्ण होने लगता है और लगभग 100 वर्ष से पूर्व ही अधिंकाश मनुष्यों का शरीर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। सृष्टि का एक प्रमुख नियम यह है कि जिसकी उत्पत्ति होती है उसका नाश भी अवश्य होता है। उत्पत्ति अभाव से नहीं होती और इसी प्रकार नाश होने पर भी किसी भौतिक व नित्य चेतन व जड़ पदार्थ का अभाव नहीं होता। वह कारण अवस्था के बाद की परमाणु व अणु के रूपों में विद्यमान रहते हैं। जीवात्मा शरीर में रहे या मृत्यु होने पर शरीर से निकल जाये, यह अपनी मूल अवस्था जो विकाररहित होती है, में ही रहता है। सृष्टि की आदि में ईश्वर मूल प्रकृति में विकार उत्पन्न कर सभी जीवात्माओं के लिए सूक्ष्म शरीर का निर्माण करते हैं। यह सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ रहता है। सभी जन्मों में साथ रहता है और सभी योनियों में मृत्यु होने पर भी आत्मा के साथ स्थूल शरीर से निकल कर ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार नये शरीर में चला जाता है। इससे ज्ञात होता है कि जन्म व मरण अर्थात् जीवन व मृत्यु का कारण हमारे शुभ व अशुभ कर्म होते हैं जिन्हें पुण्य व पाप कर्म भी कहा जाता है।

मृत्यु के बारे में हमने यह जाना है कि शरीर के दुर्बल व रोगी होने पर शरीर की मृत्यु होती है। मृत्यु का अर्थ होता है कि इस शरीर का जीवात्मा जिसे विज्ञान की भाषा में मनुष्य जीवन का साफ्टवेयर कह सकते हैं, शरीर से निकल जाता है और हार्डवेयर के रूप में शरीर यहीं रह जाता है जिसका दाह संस्कार कर दिया जाता है। एक प्रश्न यह भी है कि क्या हम मृत्यु और जन्म के चक्र से छूट सकते हैं। इसका उत्तर हां में हैं। वेद और शास्त्र इसका समाधान यह बतातें हैं कि यदि हम अशुभ कर्म न करें, पूर्व कृत अशुभ व पाप कर्मों का भोग कर लें और इस जीवन में ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि का ज्ञान प्राप्त कर ईश्वरोपासना कर ईश्वर का साक्षात्कार कर लें तो हमारा जन्म व मरण के चक्र से अवकाश होकर हमें मोक्ष व मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। मुक्ति की अवधि ईश्वर के एक वर्ष अर्थात् 31,10,40 अरब वर्षों के बराबर होती है। इतनी अवधि तक जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहकर सुख भोगता है। मोक्ष प्राप्ति का पूरा ज्ञान सत्यार्थप्रकाश के नवम् समुल्लास को पढ़कर किया जा सकता है। सभी मनुष्यों को मोक्ष के विषय में अवश्य जानना चाहिये और इसके लिए प्रामाणिक ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश ही है या वह ग्रन्थ हैं जहां से सत्यार्थप्रकाश की सामग्री का संकलन ऋषि दयानन्द जी ने किया था। प्राचीन काल में हमारे समस्त ऋषि-मुनि, ज्ञानी व विद्वान सभी मोक्ष को सिद्ध करने के लिए वेद एवं वैदिक शास्त्रों के अनुसार साधना करते थे। अब भी कोई करेगा तो वह इस जन्म व कुछ जन्मों में मोक्ष को अवश्य प्राप्त कर सकता है क्योंकि वेद के ऋषियों ने जो सिद्धान्त दिये हैं वह उनके गहन तप, स्वाध्याय, साधना एवं ईश्वर साक्षात्कार के अनुभव के आधार पर हैं। ऋषि दयानन्द में यह सभी गुण विद्यमान थे, अतः उनके सभी सिद्धान्त भी प्रामाणिक हैं।

वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन करने के बाद यह तथ्य सामने आता है कि हम इस जन्म से पूर्व पिछले जन्म में कहीं मृत्यु को प्राप्त हुए थे। उस जन्म व उससे पूर्व कर्मों के भोग के लिए हमारा यह जन्म हुआ था। इस जन्म में भी वृद्धावस्था आदि में हमारी मृत्यु अवश्य होगी जिसे हम वेद आदि ग्रन्थों के अध्ययन से जानकर मृत्यु के भय से मुक्त हो सकते हैं। वेद स्वाध्याय, यज्ञ, दान, सेवा, साधना व उपासना से हम जीवनमुक्त अवस्था को प्राप्त कर व मोक्ष को प्राप्त होकर अभय व निर्द्वन्द हो सकते हैं। आईये, ईग्श्वरीय निर्भ्रान्त ज्ञान वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ऋषिकृत ग्रन्थों के स्वाध्याय का व्रत लें। उनमें निहित ज्ञान को प्राप्त कर साधना करें और मोक्ष प्राप्ति के साधनों को अपनायें। मृत्यु के भय से मुक्त होकर हम अन्यों में भी जीवन व मृत्यु के रहस्य का प्रचार कर उन्हें भी अभय प्रदान करें। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य