राजनीति

लेख– उत्तम प्रदेश बनने की राह पर तो नहीं दिखता उत्तर प्रदेश

बड़ी उम्मीद के साथ उम्मीदों से भरे प्रदेश की जनता ने भाजपा का कमल बीते वर्ष खिलाया होगा, क्योंकि पिछले सपा सरकार के राजनीतिक कार्यकाल में सूबे की अवाम भ्रष्टाचार, लूट, अव्यवस्था, औरतों के साथ बदसुलूकी, किसानों की समस्याओं और बिजली वितरण में सरकारी भेदभाव से पीड़ित हो चुकी थी। किसी सरकार से तत्काल यह उम्मीद करना कि उसके आने भर से समस्याएं छू मंतर हो जाएगी। यह नाइंसाफ़ी होगी, लेकिन नई सरकार ने जो सामाजिक सरोकार के कामों के प्रति तेज़ी सत्ता में आने के बाद दिखाई औऱ संकल्प पत्र में व्यक्त की थी। अगर उस दिशा से लगभग 10 महीने का समय बीतते-बीतते भटक गई है। तो यह सूबे की अवाम के साथ अच्छा नहीं हो रहा। एंटी रोमियो स्क्वाड का गठन, 24 घण्टे बिजली का वादा, और सस्ती दवाओं का वादा के साथ अन्य इरादे भी सरकार ने किया था। उस दिशा में सरकार के क़दम शायद रुक से गए हैं, क्योंकि जाति और रंग की सियासत की बू जो सूबे की राजनीतिक औऱ सामाजिक व्यवस्था में आने लगी है।

बीते 24 जनवरी को उत्तर प्रदेश स्थापना दिवस मनाया गया। यह स्थापना दिवस अपने- आप में ख़ास महत्व इसीलिए रखता है, क्योंकि उत्तरप्रदेश की स्थापना के 68 वर्षों में पहली बार स्थापना दिवस मनाया गया। इस स्थापना दिवस की महत्वा एक बिंदु से औऱ बढ़ जाती है, क्योंकि इस दिन चर्चा का केंद्र यह रहा, कि प्रदेश को उत्तम प्रदेश कैसे बनाया जाए। राज्योत्सव में मुख्य अतिथि के रूप में उपराष्ट्रपति एम.वैंकेया नायडू पहुंचे थे। जिनका सुर भी यहीं था, कि कानून व्यवस्था को सही राह पर कैसे लाया जाए। ऐसे वक्त में उपराष्ट्रपति ने एक सवाल खड़ा किया, कि राज्य में हर हाथ में बंदूक क्यों है? यह सवाल जायज़ भी है। जिस परिवेश में हर हाथ रोजगार होना चाहिए। उस दौर में हर हाथ बंदूक क्या कर रहीं है। यह अपने आप में सोचनीय विषय है। इस बात पर प्रदेश की रहनुमाई व्यवस्था को अमल करना होगा होगा, औऱ जल्द उत्तर ढूढना भी होगा। बंदूक की नोंक पर और बलपूर्वक विकास नहीं होता। यह भी व्यवस्था को समझना होगा। उत्तम प्रदेश तब बनता है, जब राज्य में कोई कमी न हो, आर्थिक और सामाजिक संपन्नता हो। क्या वर्तमान परिदृश्य को देख उपरोक्त स्थिति की परिकल्पना की जा सकती है। शायद नहीं। जिस गुंडाराज औऱ भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की बात भाजपा सरकार सत्ता में आने के पूर्व कर रहीं थी, उससे निपटने में अपने आप को शायद वह सक्षम नहीं पा रहीं। सामाजिक सद्भाव की भावना भी छिन्न-भिन्न हो रहीं है। पहले सहारनपुर साम्प्रदायिक वैमनस्य औऱ अब कासगंज में जो हो रहा, सामाजिक वैमनस्य के बढ़ते दायरे का जीता-जागता उदाहरण है।

एक बात ओर सीतापुर की महिला की क्या ख़ता थी, जो डीएम के पास न्याय मांगने गई थी। अगर पहले उसके साथ धक्का-मुक्की की घटना हुई, फ़िर सड़क पर घसीटा जाता है। तो घटना क्या साबित करती है? क्या प्रशासनिक तंत्र भी बिगड़ैल हो गया है? क्या यह उत्तम प्रदेश की दिशा में बढ़ाया गया क़दम माना जाए? या सिर्फ़ सत्ता का रंग बदल जाता है, कार्यप्रणाली में किंचित बदलाव नहीं आता। जिस प्रदेश को योगी सरकार ने उत्तम प्रदेश बनाने का दावा किया। अगर उसी प्रदेश की राजधानी में रिक्शेवाले पर पुलिस वाले बेरहमी से टूट पड़ते हैं। फ़िर क्या समझा जाए, सिर्फ़ व्यवस्था बदलती है, नारे बदल जाते हैं, औऱ सत्ता की कुर्सी का रंग बदल जाता है, कार्यप्रणाली में तनिक बदलाव दिखता नहीं। क्या? योगी सरकार ने शुरुआती दिनों में किसान कर्जमाफी कर नेक इरादे व्यक्त किए थे, लेकिन वर्तमान में सूबे की आबोहवा में प्रशासनिक स्तर पर संवेदनहीनता और अमानवीयता अपने चरम पर पहुँच रहीं है। अपराध मुक्त हवा का दावा अब खोखला लगने लगा है। सूबे की हवा में बलात्कार, हत्या, लूट औऱ अन्य असामाजिक घटनाओं में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। सरकार अपराध मुक्त समाज बनाने के लिए अपराधियों के खिलाफ धड़ाधड़ एनकाउंटर कर रहीं है, पर सत्ता के नशे में चूर जनप्रतिनिधियों के बयान जो सामाजिक समरसता औऱ सर्वधर्म समभाव को चोट पहुंचा रहें हैं। उस पर लग़ाम लगाने की दिशा में कार्यरत नहीं दिख रहीं है। यह चिंता का विषय है।

सूबे में जिस आपराधिक त्रासदी से आम अवाम पिछली सरकारों में पीड़ित थी, वहीं स्थिति वर्तमान समय मे सूबे की दिख रहीं है। ऐसे में अगर समाज को आईना दिखाने वाले पत्रकार भी सूबे में सुरक्षित नहीं। फ़िर सरकार को हवाबाज़ी की राजनीति से बाज़ आना होगा। अगर बढ़ती आपराधिक प्रवृत्ति औऱ सामाजिक समरसता के तार-तार होते हुए कालखंड में उत्तम प्रदेश का ख़ाका खींचा जा रहा? तो यह राजनीति के लिए सही हो सकता है, सामाजिक व्यवस्था और गंगा-जमुनी तहजीब के लिए नहीं। सूबे के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहते हैं, अगर कोई अपने अतीत से सीख नहीं ले सकता। फ़िर उसका वर्तमान औऱ भविष्य उज्ज्वल कैसे हो सकता है? तो ऐसे में यह बात तो पहले रहनुमाई व्यवस्था को सीखनी चाहिए, कि वह अन्य सरकारों से क्या सीख ली, औऱ सुधार की दिशा में आगे बढ़ी। सूबे के सामाजिक परिवेश में अगर भगवा राजनीति खिलने के बाद जातीय हिंसा औऱ सामाजिक संघर्ष समाज में बढ़ रहा है। मतलब साफ़ है, राजनीतिक कार्यप्रणाली पहले जैसे निष्क्रिय ही है। दामन, द्वेष औऱ नफरत की ज्वाला से उत्तम प्रदेश का गठन नहीं होता। अगर पिछली सरकारों में अपराधिकरण का सूबे में औद्योगिककरण हुआ, तो उससे निपटना सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए थी, जिस दिशा में अभी तक सरकार विफ़ल ही साबित रही है।

ऐसे में यक्ष प्रश्न यही सूबे की पुलिस आखिर कर क्या रही है? क्या भ्रष्टाचार ने पूरे पुलिस तंत्र को अपंगता का शिकार और लाचार बना दिया है? क्या अपराधियों के आगे पुलिस बेबस हो चुकी है? क्या सुरक्षा और कानून व्यवस्था बनाए रखने का दम्भ जो चुनाव पूर्व भरा जा रहा था, वह शिथिल पड़ गया है। उत्तर प्रदेश की राजधानी में डकैतियां, मेरठ में हत्या के गवाह मां-बेटों का मर्डर और बुलंदशहर में रंगदारी नहीं देने पर ठेकदार की हत्या यहीं बानगी पेश करते हैं। ऐसे में विचार करना होगा, नीति-नियंता को। क्या प्रदेश को अपराध मुक्त बनाने के लिए पुलिस तंत्र में आमूलचूल परिवर्तन की ज़रूरत है? क्या बिना कानून व्यवस्था के प्रदेश विकास की राह पर सरपट दौड़ लगा पाएगा? क्या असुरक्षा के माहौल में निवेशक सूबे में निवेश कर पाएंगे? औऱ अगर निवेश होगा नहीं, तो उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश में तब्दील कैसे होगा? सूबे की रहनुमाई व्यवस्था को इस विषय पर गहन विचार विमर्श जल्द से जल्द शुरू करना होगा।

वैसे सुबे की राजनीति में कोई किसी से कमतर शायद नहीं। पिछले दिनों सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने गणतंत्र दिवस पर योगी सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा, कि आज जो लोग सत्ता में काबिज हैं। वे जाति, रंग और धर्म की राजनीति कर रहे हैं। यह सत्य है, कि भाजपा ने सरकार बनाने से पहले जो सपने दिखाए थे, भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था, अपराध मुक्त समाज उस पर अमल सिर्फ़ शुरुआती दौर में ही दिखा। जैसे-जैसे वक़्त बीतता गया, भगवा रंग की सियासत ही सुर्खियों का हिस्सा बनने लगी। यह अवाम की भावना के साथ खिलवाड़ से कम नहीं। वैसे अगर सूबे की गिनती देश के बीमारू और पिछड़े राज्यों में आती है। तो उसका सबसे बड़ा कारण रंग, जाति औऱ धर्म की राजनीति का सूबे के इतिहास में प्रबलता ही है। जिसमें कोई दल पीछे नहीं, औऱ शायद उसी रवायत पर योगी सरकार भी निकल पड़ी है। जो सही नहीं। सूबे के इतिहास में तारीख़ बदल गई है, लेकिन तवारीख़ नहीं। सियासी दल सूबे की राजनीति में बने रहने के लिए जाति, धर्म औऱ रंग प्रेम से छुटकारा नहीं पा पा रहें, जो समेकित औऱ समावेशित विकास की दिशा में सूबे के पिछड़ेपन का कारण है।

इन दिनों उत्तर प्रदेश की सियासी फिजा में केसरिया रंग चढ़ा हुआ है। पुराने रंग की जगह केसरिया रंग को तवज्जो दी जा रही है। पिछले दिनों लखनऊ में उत्तर प्रदेश हज समिति की दीवारों पर केसरिया रंग चढ़ाने के बाद विपक्षी सुर के तेवर चढ़ गए। यह देश का दुर्भाग्य ही कहेंगें, कि हमारे देश की औऱ राज्य स्तरीय राजनीति सिर्फ़ जाति धर्म मे नहीं उलझी हुई, बल्कि रंगो के फ़ेर में भी अटकी हुई है। यह देश औऱ प्रदेश की राजनीति का दस्तूर हो गया है, कि हर बदला हुआ रंग कुछ इशारे बयां जरूर करता है। ऐसे में सवाल कई पनपते हैं, कि रहनुमाई व्यवस्था को चुना किस लिए जाता है। क्या रंग औऱ जाति धर्म की भावना को उकसाने के लिए, या फ़िर सामाजिक सद्भाव को बनाए रखने के लिए। रंग औऱ धर्म की राजनीति से आगे बढ़कर हमारी व्यवस्था क्यों सोच नहीं पाती? क्यों चुनावी संकल्प सत्ता में आने के कुछ समय बाद धूलधूसरित होने लगते हैं। वैसे जिस रंग की राजनीति को लेकर उत्तर प्रदेश की सियासी फिजा गर्म है, उसमें सभी राजनीतिक दल एक ही जमात से मालूम पड़ते हैं। फ़िर सिर्फ़ एक दल को दोष देना उचित भी नहीं। अगर योगी राज में सब तरफ़ भगवा हो रहा है। तो साल 1995 में उत्तर प्रदेश में पहली दलित महिला के शपथ लेने के साथ सूबे में हर जगह नीला रंग छाना शुरू हो गया था। पिछली सपा सरकार में पूरा प्रदेश लाल और हरे रंग का प्रतीक बन गया था। राजनीति विशेषज्ञों की माने तो रंग की सियासत अब मार्केटिंग का तरीका बन गया है, और अब नेताओं के पास विचार की कमी पड़ गई है। जो एक समाज औऱ राजनीति के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। ऐसे में एक प्रश्न औऱ अगर राजनीति बनी-बनाई राह पर ही चलने लगेगी, फ़िर फ़र्क़ क्या रह जाएगा, चुनाव में दल परिवर्तन का। इसलिए प्रदेश की योगी सरकार को औद्योगिक विकास के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के पिछडे़पन को दूर के लिए कार्यरत होना चाहिए। जिससे रोजगार के अवसर पैदा हो सके। बिना रोजगार के साधन के प्रदेश की जनसंख्या के एक बड़े वर्ग की गरीबी, बदहाली और पिछड़ेपन को दूर नहीं किया जा सकता। इसके साथ प्रशासनिक स्तर में सुधार और सामाजिक सद्भाव निर्मित करने की दिशा में भी सरकार को कार्य करना होगा, अगर राजनीति से ऊपर उठकर सच्चे अर्थों में प्रदेश को उत्तम प्रदेश औऱ अवाम को स्वस्थ सामाजिक वातावरण उपलब्ध कराना है, तो!

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896