सामाजिक

अपनों की सेवा, अपने लिए

सेवा क्या होती है ? कब होती है ? कैसे होती है ? क्यों होती है ? कौन करता है ? और सेवा कितने प्रकार की होती है ? इसके अलावा सबसे अहम सवाल कि सेवा कौन करवा सकता है ? ये सभी प्रश्न हम सब के मन में कभी न कभी अवश्य उठते हैं |

अगर देखा जाये तो किसी भी प्रकार के पीड़ित मनुष्य की समस्या का बिना किसी इच्छा के समाधान कर देना ही सेवा होती है | सेवा और सहायता के मध्य एक बड़ी बारीक़ सी रेखा होती है जो इन दोनों में अंतर स्पष्ट करती है | उसे हम अपना स्वार्थ कह कर भी बुला सकते हैं | जब भी किसी का कार्य करते हुए हमारे मन में किसी भी प्रकार का लालच या स्वार्थ सामने हो तो वो कर्म सेवा नहीं सहायता हो जाती है, जिसके फलस्वरूप भविष्य में प्रतिफल पाने के लिए हम आशावान हो जाते हैं |

यूँ तो हमारे जीवन में हमें हजारों मौके मिलते हैं जब हम समाज में विभिन्न रूप में सेवा कार्य कर सकते हैं | और करते भी हैं | किन्तु सबसे महत्वपूर्ण सेवा का अवसर मिलता है खुद अपने ही घर में, और वो होता है अपने वृद्ध माता पिता की सेवा करना | ये वो समय होता है जब वो अपनी सारी जिम्मेदारी से निवृत हो चुके होते हैं | शरीर की ताकत भी धीरे धीरे कम होती जा रही होती है | आय के साधन भी सीमित होते होते समाप्तप्राय हो रहे होते हैं | कोई कोई तो किसी बीमारी के मकड़जाल में फंस गये होते हैं | ये उनका वो समय होता है जब उन्हें सबसे अधिक हमारी आवश्यकता होती है | दूसरी तरफ हम, उनकी संतान एक अलग दौर से गुजर रहे होते हैं | समाज की समाजिकता का बंधन, परिवार की खुशियों की परवाह, आवश्यकता पूर्ति हेतु आय अर्जन की भागम भाग, समय का हवा से भी तेज उड़ते जाना | इन्हीं सब के बीच हमें अपने अशक्त हो रहे माता पिता का भी ध्यान रखना होता  है | और रखना भी चाहिए, तन, मन, धन, तीनों से |

अपने बड़े बुजुर्गो की सेवा करते समय हमें अपने दिमाग में ये तो रखना चाहिए कि हमें अपना कर्तव्य पूरा करते रहना है | किसी भी हाल में नहीं बल्कि हर हाल में | उन्हें हमारी आवश्यकता है हमें उनकी पूर्ति बनना है | अपनी तरफ से पुरजोर कोशिश के बाबजूद भी संभव है कि हमे अपने बुजुर्गो की नाराजगी का सामना करना पड़े | हमारे द्वारा किये जा रहे कार्य उन्हें पसंद न आयें | फिर भी हमें अपना कर्तव्य नहीं छोड़ना चाहिए | उस उम्र तक पहुचते पहुँचते वह जिन्दगी के बेशुमार अनुभव प्राप्त कर चुके होते हैं | उनकी पसंद और नापसंद का दायरा भी काफी विकसित होता है और साथ ही वह किसी खास ढांचे में फिट हो चुके होते हैं | अब उनके लिए बदलते समय के अनुसार खुद को बदल पाना इतना आसान नहीं होता है | और उनके आगे युवा जनरेशन अपनी नई सोच के साथ किसी भी कार्य को करने को अमादा होती है | यही दोनों सोच का अंतर बुजुर्गो को नाराजगी और युवा की हताशा का कारण बनती है | और धीरे धीरे युवा और बुजुर्गों के मध्य दूरी बनने लगती है | जिससे वे अपने बड़े बुजुर्गो के बहुमूल्य अनुभवों का लाभ लेने से वंचित होते जाते हैं | अपने बड़े बुजुर्गों के सेवा के लिए तैयार होना भी, अपने माता पिता, परिवार से मिले अच्छे संस्कारों का असर होता है | बचपन में कभी हमनें भी अपने पिताजी को, दादाजी की सेवा करते देखा होगा, मम्मी को दादी की बात मानते हुए, बीमार होने की दशा में रात में भी सेवा करते देखा होगा, ये सब वो दृश्य होते हैं जो हमारे कोमल अंतर्मन में छप जाते हैं और इस समय हमें वैसा ही करने के लिए प्रेरित करते रहते हैं |

हर घर में बच्चे होते हैं वे भी वही सीखते हैं जो वो अपने सामने होता हुआ देखते हैं | इसलिए हमारी भी जिम्मेदारी हो जाती है कि अपने माता पिता की सेवा करते करते उन बाल मन में भी सेवा का कोमल बीज रोप दें ताकि समय के साथ बिकसित हो सके | और बड़े होकर खुद अपने घर के साथ साथ समाज और देश के लिए काम आ सकें |

आज के मतलब से भरे इस युग में कोई भी व्यक्ति बिना मतलब के तो कोई भी काम नहीं करता | फिर सेवा तो बहुत दूर के बात है | आज बेटे भी तभी सेवा करते हैं जब पिता जी से किसी भी प्रकार की सम्पत्ति मिलने की उम्मीद होती है | ये एक बहुत ही गलत और संस्कारविहीन प्रवत्ति होती है | इस तरह के आचरण में सेवा करने वाले को भी दुःख मिलता है और सेवा करवाने वाले को भी | सेवा करने वाला इसलिए दुखी क्यूंकि उसकी मनचाही इच्छा पूर्ति नहीं हो पाती और सेवा करवाने वाले इसलिए दुखी कि जब तक पैसा हाथ में रहा सब चाकरी करते रहे, हाथ खाली होते ही अपने भी पराये हो जाते हैं | और बुजुर्ग अकेलेपन से भरा दुखी जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं | यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि इस समय छोटे भी भूल जाते हैं कि बेशक वे इस समय हर प्रकार से सबल समर्थ हैं, किन्तु एक दिन ऐसा भी आएगा जब उन्हें भी किसी सहारे की आवश्यकता होगी | ये भी सब जानते हैं कि समय सदा सबका एक सा नहीं रहा हैं | इसके अलावा आज जो हम किसी के साथ कर रहे हैं वो कल हमारे साथ भी हो कर रहेगा | तो फिर क्यों न हम अपना कल, आज से ही सुधारने की कोशिश में लग जायें |

इस सब के बारे में तो मेरा मानना है कि  सेवा कार्य को एक कर्म के तौर न लेकर इसे व्यापारिक दृष्टि से देखना चाहिए | इसे एक प्रकार का लम्बी अवधि का निवेश मानना होगा | जिस प्रकार हम कोई धनराशि, इस विश्वास के साथ, अति लम्बे समय के लिए निवेश करते हैं ताकि समय पूरा होने पर सामान्य से अधिक लाभ मिले और हमारा मूलधन भी सुरक्षित रहे | ठीक यही कुछ यहाँ भी हो सकता है | आज हम बिना किसी स्वार्थ के, परिस्थितियों की गंभीरता को समझते हुए, अपना कर्तव्य मानते हुए, अपने माता पिता की सेवा करते हैं, उन्हें सुख पूर्वक जीवन यापन करने की सुविधा उपलब्ध कराते हैं तो ये हमारा उन पर कोई एहसान नहीं है, बल्कि आज तक उन्होंने हमें काबिल बनाने में जो भी कठिनाई झेली, जो भी खर्चा किया, जो भी कार्य किये | ये तो उस का किंचित मात्र भी नहीं है | हाँ , ये जरुर मान सकते हैं कि आज हम जो भी सेवा कर्म अपने माता पिता के साथ कर रहे है, चाहे वह अच्छा हो या बुरा | पूरी तरह से लम्बी अवधि का निवेश कर रहे हैं | जब हम इस उम्र पर पहुचेंगें तो हमारे ही बच्चे उसे सूद सहित हमें बापिस करेंगे | तब हमें अपने द्वारा किये गये इन्वेस्टमेंट रुपी कार्य याद आयेंगें, कि हमारा निवेश किस प्रकृति का था, अच्छा या बुरा, शांतिदायक या दिन रात किच किच वाला | आज हमारे द्वारा करी जा रही सेवा को और उसके पीछे छुपे मानसिक भाव को घर का बच्चा हर पल भांपता रहता है | इसलिए जो भी करें, जब भी करें, शुद्ध मनोभाव से करें |

कई बार कुछ जगह ऐसा भी देखा जाता है कि संतान तो सेवा करने को तत्पर है किन्तु बड़े, अपने हठीले स्वाभाव के चलते, अपनी नुक्ताचीनी (वेवजह गलती निकलना) की आदत से, अपने छोटों को परेशान किये रखते हैं | फिर एक समय ऐसा आता है कि धीरे धीरे घर के लोग उनसे दूर होने लगते हैं, उनकी बातों को कम ध्यान दिया जाने लगता है | इस परिस्तिथि में भी समाज और वो खुद भी, अपने बच्चों को लापरवाह और दोषी करार देते हैं | और माता पिता अपनी बदकिस्मती का रोना रोते रहते है | मेरे हिसाब से तो बदकिस्मत वो नहीं होते, जिन्हें सेवा करने वाले नहीं मिलते | बदकिस्मत तो वो होते हैं जिन्हें सेवा करने वाले तो मिलते हैं किन्तु उन्हें सेवा करवानी नहीं आती | माना बहुत कठिन होता है समय के साथ अपने आप को बदलना | किन्तु अगर थोड़ा सा घर के बुजुर्ग समय के साथ अपने विचारों में आधुनिकता लायें, अपने जीवन का खालीपन दूर करने के लिए ही सही, कुछ समय अगर बच्चा बन कर बच्चों के बीच भी गुजारें, परिवार की कठिन परिस्तिथियों में अपने अनुभव के आधार पर उचित राय प्रस्तुत करें, थोपने की कोशिश तो बिल्कुल भी न करें | तो हालात खुशहाल होते देर नहीं लगेगी बल्कि आज के समय में तो एक फार्मूला बहुत ही कारगर होता है, वो है “ नोन, मौन, कौन” | आम तौर पर बुजुर्गों में तीन आदतें हो जाती हैं | 1) “नोन“ मतलब बहु, खाने में नमक तो है ही नहीं, ये कैसी सब्जी बनाई | 2) “मौन“ मतलब कभी चुप न रहना, हमेशा कुछ न कुछ बोलते रहना| 3) “कौन” मतलब हमेशा बाहर से आने वाले पर ध्यान देना, देखियो बेटा कौन आया है |

तो अगर ये लोग खाने में कमी पर कम ध्यान दें, थोड़ा मौन रहने की आदत अपना लें और हर किसी के बारे में जानकारी को जरुरी न समझें तो काफी कठिनाइयों पर काबू पाया जा सकता है | साथ ही इधर आज की युवा पीढ़ी नये जमाने के साथ साथ पुराने पारंपरिक मूल्यों को भी सहेजे, अपनाये, स्वीकारे | बड़ों की बात को समझने की कोशिश करे, क्योंकि उनकी राय केवल राय ही नहीं होती बल्कि उनके द्वारा जिए गए सम्पूर्ण जीवन के अनुभवों का निचोड़ होता है जिसका आकलन हम लोगों की अनुभवहीन बुद्धि तो कतई नहीं कर सकती | अगर हम युवा इस दिशा में थोड़ी सी भी ईमानदार कोशिश करें तो कहीं कोई समस्या ही नहीं रहेगी | दोनों पीढ़ी का अंतर भी, आपसी समझ, सामंजस्य में विलीन हो जायेगा | और हर घर का माहौल ही बदल जायेगा |

इस प्रकार अपने ही क्या किसी भी बुजुर्ग की सेवा के करने के माध्यम से समाज में समरसता का प्रवाह होगा | बड़ों को सम्मान, बच्चों को प्यार, युवाओं को सही मार्गदर्शन मिलेगा | साथ ही सचेत रहना होगा अपने आचरण के प्रति, जिस पर हमारे छोटे, पल पल निगाह रखते हैं, स्वयं उसे अपनाने के लिए, समय आने पर खुद हमारे ऊपर |

इसलिए अपनों की सेवा करिए, अपने लिए |

 

उमाकान्त श्रीवास्तव

आयु 48 वर्ष वर्तमान में एक निजी संस्थान ARVSONS में HR मैनेजर के रूप में कार्यरत। इससे पूर्व रघुनंदन मनी में भी लगभग 8 वर्ष HR का कार्य देखा। 387, पश्चिम पुरी, शास्त्रीपुरम रोड, आगरा 282007 मोबाइल : 9410833909