कविता

प्रीत की पाती

प्रीत की पाती लिखूँ
या विरह की वेदना
तुमसे मिली तो प्रेम
बिछड़ी तो विरह
फिर कौन सी भाषा लिखूँ
क्योकि आज भी
जब भी एकांत मे होती हूँ
धीरे से गुनगुना लेती हूँ तुम्हारा नाम
रात में छुपकर चॉद से दो चार बाते कर लेती हूँ
तारो के झुरमुठ मे तुम्हे पाना चाहती हूँ
कही किसी एक कोने में
लेकिन तुम न जाने
कहॉ कैसे गुजार लेते हो रात दिन मेरे बगैर
इसका मतलब
झूठे थे सारे वादें सारे कसमें
बस एक दिखावा था दुनियॉ के सामने
मैं ही पागल हूँ
सोचते रहती हूँ बिती हुयी बातें
और लिखना चाहती हूँ
कही अनकही बातें
समेटना चाहती हूँ डायरी के पन्नो में अपनी बाते
मगर इन हवा के झोके को कौन रोकें
न जाने कहॉ से खीच लाते हैं तुफानी हवा
और उन हवाओ में घूले मिट्टी के कण
मेरे मन मस्तिष्क पर डाल देते है पर्दा
और मैं भूल जाती हूँ सभी बातें
लेकिन तुम्हारा नाम नही भूल पाती
ये नाम दिल के जेहन में ऐसे बैठे हैं
जैसे जिस्म में रूह
जिसे सुनामी हो या तुफान
कोई अलग नही कर सकते।
निवेदिता चतुर्वेदी’निव्या’

निवेदिता चतुर्वेदी

बी.एसी. शौक ---- लेखन पता --चेनारी ,सासाराम ,रोहतास ,बिहार , ८२११०४