गीत/नवगीत

शर्वरी धीरे चलो!!

(कल्पना कुछ ऐसी है- देर रात थक कर लौटे पति को पत्नी नहीं चाहती कि वह जल्दी उठे ऐसे में वह ‘तारों भरी रात(शर्वरी)’से जल्दी ना ढलने का निवेदन कर रही है!)

शर्वरी! धीरे चलो कि
मेरे प्रियतम सो रहे हैं।

दो घड़ी विश्राम कर लोगी
तो क्या होगा तुम्हारा?
ना मिलेगा जिसको पाने
ढल रहा यौवन तुम्हारा,
चूम लो रुककर अधर
पुष्पित कँवल-से हो रहे हैं
शर्वरी! धीरे चलो कि
मेरे प्रियतम सो रहे हैं।

स्वप्न आँखों में न जाने
कौन सा अभी पल रहा हो?
द्वंद्व, मानस में न जाने
कौन सा अभी चल रहा हो?
कह रही मुसकान कि अब
वे किसी के हो रहे हैं
शर्वरी! धीरे चलो कि
मेरे प्रियतम सो रहे हैं।

दृश्य अनुपम इक धरा पर
आज मैं तुमको दिखाऊँ
किस तरह सोता है चंदा
रुक ज़रा तुझको बताऊँ
मीत को तककर गगन के
तारे लज्जित हो रहे हैं
शर्वरी! धीरे चलो कि
मेरे प्रियतम सो रहे हैं।

— शरद सुनेरी