सामाजिक

लेख– सियासी शोरगुल में असल मुददों पर बात कब होगी?

बात 2019 आम चुनाव की होनी शुरू हो गई है। जिसके फ़ेर में वर्तमान फंस गया है। वर्तमान में क्या-क्या दुश्वारियां हमारे लोकतांत्रिक परिवेश में दीप्तमान हो रही। उसकी चर्चा की जाएं तो अवाम को पीने का स्वच्छ पानी नहीं मिल पा रहा। प्रदूषण अपने चरम पर पहुँच रहा। अगर हम जनसरोकार से ज़ुड़े विषयों की बात करें, तो रोटी, कपड़ा, स्वास्थ्य और मकान है। तो देश की 65 फ़ीसद आबादी जिस पर गुमान हमारी लोकशाही व्यवस्था करती है, उसको बेहतर शिक्षा और रोजगार की आवश्यकता है। पर बात अगर इन मुद्दों से इतर हमारी सियासी व्यवस्था कर रही। उसे फ़िक्र सिर्फ़ राजनीतिक कुर्सी की है, तो यह दुर्भाग्य उस लोकतंत्र का है। जिसको जनता के लिए, जनता द्वारा शासित होने की बात की गई है। आज लगता तो यहीं है। लोकतंत्र की भावना का दमन हो रहा है, क्योंकि लोककल्याण की भावना का दर्शन होता प्रतीत नहीं हो रहा। जिस युवा पर नाज़ हमारी व्यवस्था करती है। उसे सिर्फ़ मत उगाही का जरिया समझ लिया गया है, क्योंकि चुनावों के बाद युवाओं की बात और उनसे जुड़ें मुद्दों पर बहस तो होती ही नहीं। युवाओं को ठगने का काम कोई आज से नहीं शुरू हुआ। यह दशकों से चला आ रहा है। अगर आज हमारे देश में युवाओं की जो मलिन दशा है। अगर शिक्षा पर लाखों ख़र्च करने के बाद भी वह कौशल में निपुणता दे नहीं पा रही। इसका निहितार्थ यहीं है शायद सियासत ने रोजगार को गुलाम बना दिया है।

अगर हम भूतकाल का ज़िक्र करें तो आज का जो युवा सड़कों पर है, शायद उसकी क़िस्मत में सियासतदानों ने अपनी ग़लत नीतियों के माध्यम से यहीं दशकों पूर्व लिख दिया था। अब बात हम 1975 के जेपी आंदोलन की करें, तो उस दौर में भी युवा उससे जुड़ें। पर कुछ युवा उस आंदोलन से सियासी हो चले, बाक़ी के क़िस्मत में सिर्फ़ आंदोलन करना ही लिख दिया गया। जो समय-समय पर दृष्टिगोचर होता रहता है। देश के युवाओं के साथ बेमानी तो तब हुई, जब 1989 में वीपी सिंह के दौर में डिग्री पर आरक्षण भारी पड़ा। आज तक एक औचित्य समझ नहीं आया सियासी तरकश का। जब दिमाग सबका एक जैसा होता है। फ़िर पढ़ाई लिखाई में आरक्षण किस बात का। शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण देने की प्रथा ने देश और समाज को पिछड़ेपन की तरफ़ ही धकेला है। इससे कोई फ़ायदा नहीं। ऐसे में अगर युवाओं पर बात को आगे बढ़ाया जाएं। तो 2007 में उत्तरप्रदेश की मुलायम सरकार ने तो सारी हदें पार कर दी। राजनीतिक स्वार्थ के लिए। उस दौर में युवाओं की डिग्री पर भारी जाति पड़ गई, तो 2012 में व्यापमं ने क़ाबिल और होनहार युवाओं के साथ खेल खेला। ऐसे में अगर हम कहें, कि जेपी आंदोलन से लेकर आजतक सिर्फ़ युवाओं के हाथ मे झंडा और नसीब में आंदोलन ही रहा। तो शायद यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।

ऐसे में जो हालात अभी निर्मित हो रहें। वे भी साबित करते हैं, कि शायद भविष्य में भी युवाओं के तक़दीर में हाथ में झंडे और आंदोलन के लिए सड़क पर रहना ही लिखा है। तो इस तक़दीर को अब बदलने के दिशा में रहनुमाई तन्त्र को कुछ सोचना पड़ेगा, नहीं तो स्थिति भयानक और बेक़ाबू हो जाएगी। आज के उस दौर में माननीयों के वेतनमान में वृद्धि की बात की जा रही। जिस दौर में लोकसभा के 545 सांसदो में से 443 सांसद करोड़पति और अरबपतियों की श्रेणी में शामिल हैं। इसके साथ देश के 4219 विधायकों में से 2391 करोड़पति हैं। फ़िर हम कैसे जांचे-परखें की शायद उनकी नीतियों में ग़रीब, युवा और समाज और संस्कृति से ज़ुड़े मसलें शामिल हैं। वर्तमान समय में एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 79 करोड़ लोग ऐसे भी हैं, जिनकी प्रतिदिन की आय 25 रुपए से भी कम है। फ़िर पहली प्राथमिकता रहनुमाओं की किसके प्रति होनी चाहिए। क्या यह उन्हें समझ आता नहीं। जब देश की आधे से अधिक आबादी के पास दो जून की रोटी नहीं होगी, फ़िर वे स्वच्छ और स्वस्थ बोतलबंद पानी कहाँ से ख़रीदकर पी सकेंगे। आज के दौर में मौत सिर्फ़ भोजन न मिलने से देश में नहीं हो रही, बल्कि दूषित पानी पीने से भी 73 लोगों की प्रति घण्टे मौत हो रहीं। ऐसे में कैसे समझा जाएं। हमारी नीति-नियंता की प्रणाली अपना राजधर्म निभा पा रहीं है।

आज युवा, किसान, ग़रीब और निचले तबके की अवाम सभी हलकान और परेशान हैं, लेकिन राजनीति को फ़िक्र कहाँ इन लोगों को। फ़िर चाहें वह सत्ता पक्ष हो, विपक्ष हो और या फ़िर जिस तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट राजनीतिक गलियारों में तेज़ हो रहीं है। अगर बात बीते दो-तीन दशकों की जाएं, तो देश की निरीह अवाम ने सभी को सत्ता का सुख भोगते देखा है। फ़िर चाहें वह ममता बनर्जी हो, राम विलास पासवान, चंद्रबाबू नायडू या नीतीश कुमार। और चाहें मायावती या फ़िर मुलायम सिंह। ऐसे में हम कैसे समझ ले। जो गठबंधन या तीसरे मोर्चे की बात हो रही। वह जनता के लिए ठगबंधन से ज़्यादा कुछ साबित होगा। आज अगर सभी विपक्षी दल एक साथ आ रहें। तो उनका मक़सद यह नहीं दिखता, कि वर्तमान चल रही समस्याओं को दूर करने के लिए भगीरथ की भूमिका में आ जाएंगे। बल्कि वह मौकापरस्त राजनीति का हिस्सा बन रहे हैं। ऐसे में जनता से जुड़ाव इन रहनुमाओं का कैसे हो सकता है, यह देश के सामने सबसे बड़ा मुद्दा बन जाता है।

यूनाइटेड नेशन की रिपोर्ट कहती है, कि देश में 2018 के आखिर तक 1 करोड़ 80 लाख लोग बेरोजगार होंगे। इसके अलावा वर्ल्ड हैल्थ आर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट कहती है, कि देश में प्रति घण्टे 206 मौत स्वच्छ हवा न मिलने से होती है। तो राजनीति की तू-तू, मैं-मैं की बिसात बंद कब होगी। यह सबसे बड़ा सवाल बन जाता है। क्या जब देश किसी बड़े संकट की ओर कूच कर जाएगा। तभी राजनीतिक कुम्भकर्णी नींद खुलेगी? हमारे देश में आज कोई एक वर्ग विशेष सामाजिक, आर्थिक दुश्वारियों से नहीं जूझ रहा, बल्कि युवा से लेकर बुजुर्ग तक हलकान और परेशान है। ऐसे में अगर राजनीति के लोग शिव, सत्ता और सियासत के भंवर में उलझे हुए हैं। तो यह सब लोकतांत्रिक परिवेश और संवैधानिक राष्ट्र में सबकुछ सही नहीं होने का संकेत है। युवा रोजगार की ख़ातिर परेशान है। बुजुर्ग दवा के लिए। किसान उपज के बेहतर दाम के लिए। सांख्यिकी मंत्रालय के मुताबिक हमारे देश में 15 से 29 वर्ष के बीच लगभग 33 करोड़ युवा है। जिनमें से ओईसीडी की रिपोर्ट के मुताबिक 15 से 29 वर्ष के बीच के 10 करोड़ युवाओं के पास न पढ़ाई है, और न काम है। और जिस उम्र को मत उगाने का हिस्सा समझ राजनीति ने लिया है। उस 18 से 23 उम्र के युवाओं की तादाद देश में 14 करोड़ से अधिक है। इसमें सिर्फ़ 3 करोड़ 42 लाख 11 हज़ार युवा कॉलेजों में पढ़ाई कर रहें हैं। फ़िर सियासी व्यवस्था बाक़ी के युवाओं की फ़िक्र क्यों नहीं कर पा रहीं। क्या उन्हें सिर्फ़ मत तंत्र का हिस्सा समझ लिया गया। अगर यहीं बिसात चलती रहीं, तो लोकतंत्र सिर्फ़ दिखावे के हिस्सा मात्र बनकर रह जाएगा। इसलिए अब ज़रूरी जनहितकारी मुद्दों पर बहस का है। उस पर राजनीति को आगे बढ़ना होगा, नहीं देश गहरे संकट की तरफ़ अग्रसर हो सकता है। जिससे निज़ात दिलाने के लिए फ़िर अवाम को ही मोर्चा हाथ में लेना पड़ेगा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896