लघुकथा

“हरियाली”

मधुमास में मनहरण सरसो के पीले फूल मन को लुभा गए, भौंरे भी खूब उड़े, कई रंगों वाली तितलियाँ भी बच्चों का मन ललचा कर, फसलों में फली लगते ही न जाने कहाँ छुप गई। जब फसल गदराने लगी तो हरियाली ने अपना रंग बदला तो सूरज भी पछुवाई से मिलकर अपना ढंग बदल लिया। हर जगह गेंहुवा रंग छाया हुआ है। काटो-छाटो, नापो- परखो व मिलाओ-सुखाओ में सब लगे हुये हैं, पसीना और तेल दोनों एक साथ निकल रहा है पर भाव किसी का नहीं मिल रहा है, कोई बाजार में मोल- भाव कर रहा है तो कोई बिटिया-बेटवा के हाथ पीले करने में पगड़ी उठाए हुये है। अगर किसी को फुरसत है तो वह हैं अस्सी से भी अधिक बसंत देखने वाली रजमाती काकी, अपने ओसारे में बैठे- बैठे सबको देखते रहती हैं न उनसे किसी को कोई काम पड़ता है न उनके पास कोई बैठता है। हाँ, शुभ प्रसंग पर उनके पाँव पर कई हाथ अब भी अपनी उंगलिया सटा देते हैं जिससे उनका बहुत पुराना घुटने का दर्द सर्द हो जाता है और मुँह कराहते हुये ही सही आशीर्वाद के लिए खुल जाता है।

वर्षों बाद आज उनके पाँव पर एक ऐसे हाथ ने दस्तक दी कि उनकी आँखों में बाढ़ आ गई, घर वाले पानी पानी हो गए और उनकी आव भगत बढ़ गई। काकी को नई साड़ी पहनाई गई और वह अपने भतीजे के साथ चमचमाती गाड़ी में बैठ-लेटकर अपने नैहर की नदी पर बने हुये नए पुल से अपने उस गाँव को देख रही थी जहाँ उनका बचपन बीता था, वह नाव देखने की कोशिश कर रही थी जिस पर उनकी बिदाइ हुई थी, शायद वह भी किसी कोने में पड़ी हो। काकी के पीले शरीर में पुनः हरियाली छा गई, कुछ दिन के लिए सही उनके हक की चारपाई जो बदल गई।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ