कहानी – अंतराल
उम्र के आठवें दशक में खड़ी रामकली, आँखें फाड़े अपने प्रौढ़ पुत्र को देख रही थी। वह सोच रही थी, ‘क्या ये उसी नथामल का पुत्र है जिसने विभाजन के कारण भूखे-प्यासे रहने पर भी किसी की दया नहीं स्वीकारी थी, किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया था? पर सच तो यही था, इससे इनकार करने का कोई रास्ता ही रामकली के पास नहीं था। जी हाँ वह उसी नथमल और रामकली का इकलौता पुत्र था, जिसे उन दोनों ने अपनी समझ से धर्माचरण, स्वाभिमान और सदाचार के संस्कार दिए थे।’ तो…..तो अब क्या हुआ? कहाँ गए उसके वो संस्कार?? एक बड़ा सा प्रश्नचिन्ह रामकली के सामने मुँह बाये खड़ा था। आज रामसरन सोचता ही नहीं, करता भी वही था जिससे पैसा आए। अब चाहे उसके लिए उसे स्वाभिमान को ताक पर नहीं, गहरे संदूक में बंद भी कर देना पड़े तो कोई हर्ज नहीं।
‘‘ऐसे बड़ी-बड़ी आँखें निकालकर क्या देख रही हो माँ?’’
‘‘तुम यह बहुत गलत कर रहे हो बेटा। बस मैं इतना ही कह रही थी।’’
‘‘क्या गलत है इसमें…..घर आती लक्ष्मी को लात मार दूँ क्या?’’ रामसरन बड़ी बेशर्मी से नोटों की गड्डियाँ थैले में डाल रहा था। रवीश को नर्सें एक्सरे के लिए ले गई थीं। साथ के दूसरे मरीज को भी नर्सें किसी टैस्ट के लिए ले गई थीं। गाँव से आए लोग भी गाँव वापस जाने के लिए अस्पताल से बाहर जा चुके थे और इस समय कमरे में बस यही दोनों माँ-बेटा थे। नथमल के रहते जिस रामकली से पूछे बगैर उनके घर का पत्ता भी नहीं हिलता था, पति के बाद वही रामकली निहायत ही बेचारी हो गई थी। उसने भी चुप रहना सीख लिया था। हालांकि रामसरन ने माँ को कभी बोलने का मौका दिया ही नहीं था परन्तु इस समय थोड़ी हिम्मत करके रामकली बोल ही पड़ी थी, ‘‘मदद के तौर पर उधार तो लिया जा सकता है, पर ये तो भीख है बेटा और इतने पैसे की तो तुम्हें जरूरत भी नहीं है, जितना आ रहा है।’’
‘‘तो क्या हुआ, भीख है तो होने दो। मुझे भी पता है कि जरूरत तो कब की पूरी हो चुकी है। तुम चाहो तो घर जा सकती हो, चाचा तुम्हें छोड़ आएँगे। पर अभी मैं अस्पताल से छुट्टी होने तक चाचा के घर में ही रहूँगा। इससे हमारा खाने-पीने का खर्चा भी बचेगा और अस्पताल आने-जाने के लिए गाड़ी भी मिली हुई है। न भी हो तो घर से अस्पताल दूर ही कितना है, सिर्फ दस मिनट।’’
‘‘पर बेटा, गाँव वालों से तो हाथ जोड़कर मना कर सकते हो। कह सकते हो कि अब काम हो चुका है।’’
‘‘क्यों कह दूँ? तुम भी हद करती हो माँ! जब गाँव वाले हमदर्दी में दे रहे हैं तो मैं क्यों हाथ खींचू?’’
‘‘अहसान लेना तो बहुत आसान है, चुकाना बहुत मुश्किल होता है बेटा।’’
‘‘कैसा अहसान? ये तो हमदर्दी में मेरी मदद कर रहे हैं। लड़के के इलाज के बाद जो पैसा बचेगा उससे मकान की मरम्मत कराऊँगा। अब तुम जाकर सो जाओ। तुम्हें चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। ये पैसा तुम्हें नहीं चुकाना है, बस्स!’’ रामसरन थैला उठाए बाहर निकल गया। अब कहने को कुछ बाकी नहीं था, रामकली चुपचाप आकर अपने बिस्तर पर पड़ गई पर नींद किसे आती। आँखें खिड़की के पार सितारों में नथमल को तलाश रही थीं। क्या जवाब देगी वह उन्हें, क्या संस्कार दिए थे लड़के को? पर कहाँ, संस्कार देना क्या उसी का जिम्मा था? कदम-कदम पर सामाजिक नियमों का पालन करने वाले अपने अति-स्वाभिमानी पिता, नथमल से भी तो इस लड़के ने कुछ नहीं सीखा। क्या हो गया है इस लड़के को? ऐसा पहले तो नहीं था यह।
बहुत ही भयानक दिन था और दृश्य तो वह किससे देखा जाता? रामसरन ट्रैक्टर से खेत जोत रहा था। रामकली उसके लिए खाना लेकर आई थी। अभी वह दूर ही थी कि उसने देखा, खेत में ही खेल रहा बारह वर्षीय रवीश एकदम जैसे कूदकर ट्रैक्टर के आगे जा गिरा और तेज़ी से आते अपने ही ट्रैक्टर की चपेट में आ गया। रामसरन ने ब्रेक लगाने की बहुत कोशिश की पर हड़बड़ी में दुर्घटना हो ही गई। हालांकि साथ के खेत में काम करते, कूदकर आए किसान ने रवीश को झपटकर खींचने की कोशिश भी की फिर भी उसका दायाँ पैर कुचल ही गया। पूरे गाँव में हाहाकार मच गया, पास के कस्बे के मंहगे अस्पताल में इलाज भी चला था। कई दिन के इलाज के बाद एक दिन अस्पताल के डाॅक्टरों ने कह दिया कि मरीज का पैर काटने के अलावा और कोई चारा नहीं है इसलिए मरीज को दिल्ली ले जाएँ।
अब तक के इलाज में दो बार पैर का आॅपरेशन करने के बाद भी डाॅक्टर सारे टुकड़ों को जोड़ नहीं पाए थे। छोटी जगह थी, सुविधाएँ कम थीं। अब इतने दिन बाद जब घाव सड़ने लगा तब रवीश को दिल्ली ले जाने की सलाह दी जा रही है। उसका भेजा गरम होना जायज़ था। एक तरफ बेटा और दूसरी तरफ पैसा? अब तक तो रामसरन सारी जमा पूँजी इलाज पर लगा चुका था और अब डाॅ. उसे दिल्ली जाने को कह रहे थे। पहले ही कह देते तो शायद इस तरह लाचार तो नहीं होता। इस विपदा से निपटने के लायक पैसा रामसरन कहाँ से लाए। ऐसे में जगदीश चाचा ने, जो घटना की खबर सुनकर आ गए थेे उसे हौसला दिया, ‘‘कोई बात नहीं बेटा, हम लोग हैं न! दिल्ली चलकर देखा जाएगा। चलो भाभी, तैयारी करो।’’
‘‘पर चाचा जी, दिल्ली के अस्पतालों के खर्चे….?’’
‘‘बेटा, जितने लायक हम हैं, हाजर हैं। तुम नत्थू भाई साहब के नहीं हमारे भी बेटे हो और रवीश हमारा पोता है। जो होगा देख लेंगे।’’ और इस तरह रवीश परिवार के साथ दिल्ली आ गया। नथमल के छोटे भाई जगदीश विभाजन के बाद दिल्ली ही बस गए थे, पर प्रड्डति प्रेमी नथमल उत्तराखण्ड के एक छोटे से गाँव में जा बसे। आस-पास बड़ा अस्पताल न होने से रामसरन को बेटे के इलाज के लिए कठिनाई का अनुभव हो रहा था। कस्बे के डाॅक्टरों के लिख देने से वह बेटे को सफदरजंग अस्पताल में दाखिल कराने में कामयाब हो गया। म्म्म् जगदीश का घर सफदर जंग अस्पताल के पास ही पड़ता था इसलिए एक महीने से माँ-बेटे का डेरा वहीं था। रामसरन ने घर की देखभाल के लिए पत्नी को तो घर वापस भेज दिया पर रामकली दिल्ली ही रह गई। अस्पताल में दो-तीन आदमी तो चाहिए ही थे। रामकली सोच रही थी, वैसे तो दिल्ली के खर्चे निभाते-निभाते उनका दिवाला निकल जाता पर उनके गाँव में अभी तक आपसी भाईचारा और प्यार बाकी है।
गाँव के लोग बराबर उनका हाल-चाल पूछने दिल्ली आ रहे थे, न केवल आ रहे थे बल्कि जो कोई भी रवीश को देखने आता। अपनी सामर्थ भर 5/10 हज़ार की राशि भी रामसरन को दे जाता। इतना ही नहीं रामसरन के साले के प्रयास से अस्पताल के खर्चे के लिए मुख्यमंत्री राहत कोष से भी अनुदान मिल गया था। धीरे-धीरे रवीश के घाव ठीक हो रहा था। कटे पैर के स्थान पर नकली पैर लगाने की सरकारी योजना की स्वीड्डति भी आ चुकी थी। इसलिए अब पैसे की तंगी भी नहीं थी। ऐसे में गाँव का प्रधान 20 हज़ार रुपए लेकर आ गया। यह राशि उसने गाँव से चन्दा करके एकत्र की थी। रामकली की आखें भर आईं, ‘‘परधान जी, आप लोग जो कर रहे हैं, उसका करजा हम कैसे उतारेंगे?’’
‘‘नहीं बहन जी! आप को ऐसा सोचने की जरूरत नहीं है। गाँव में एक आदमी की मुसीबत सब की मुसीबत होती है। आप परेशान न होवो। मुसीबत में गाँव काम नहीं आएगा तो कौन आएगा?’’ फिर शाम तक प्रधान अपने आदमियों के साथ वापस गाँव लौट गया और रामसरन नोट सँभालने में लग गया। जगदीश चाचा भी भरसक मदद कर रहे थे, सो रामसरन ने अब तक काफी रकम इकट्ठी कर ली थी। इसी बात को लेकर माँ-बेटे में तकरार हो रही थी। रामकली सोच रही थी कि, शायद मुसीबतों ने कर दिया है उसे ऐसा। पर क्या पंजाबियों के लिए पाकिस्तान से बड़ी मुसीबत कुछ हो सकती है? बस इतना परमात्मा का शुक्र रहा कि परिवार सही सलामत निकल आया। कोई जानी नुकसान या और किसी तरह की बेहुर्मती नहीं झेलनी पड़ी थी उन्हें विभाजन के समय।
रामकली को अच्छी तरह याद था कि जब वे लोग पहले-पहल मुरादाबाद आए तो वहाँ के निवासी उनके साथ कितनी हमदर्दी का व्यवहार कर रहे थे। वे लोग एक धर्मशाला में आकर रुके थे जिसके कमरों की दीवारें और फर्श कच्ची मिट्टी के थे, जिन्हें रामकली ने गोबर से लीपकर साफ़-सुथरा और रहने लायक बनाया था। सूती, छापेदार, मैली धोतियाँ पहने घूंघटवाली औरतों को मोतिया रंग ;आॅफ व्हाइटद्ध के सलवार कमीज़ और झक्क सफेद दुपट्टे में खुले मुँह घूमती, खूबसूरत बड़ी-बड़ी आँखों वाली रामकली किसी अजूबे से कम नहीं लग रही थी। पहले ही दिन संध्या के समय मुहल्ले के कुछ लड़के नथमल के पास आकर कहने लगे कि ‘‘भाई साहब, उधर लुहारों के मुहल्ले में कुछ मुसलमानों के खाली मकान पड़े हैं। मुसलमान वहाँ अपने घरों को ताले लगाकर पाकिस्तान चले गए हैं, अब तो आने से रहे। आप चाहो तो हम उनमें से किसी मकान के ताले तोड़कर आपके रहने का इन्तजाम कर दें। पर नथमल ने साफ इनकार करते हुए कहा कि उसे अपने बाजुओं पर भरोसा है। क्यों वो कुछ भी लूटकर अपराधी बने?
धर्मशाला में डेरा डालने के दूसरे ही दिन सुबह सवेरे, बहुत सारे लोग भोजन सामग्री लिए धर्मशाला में उपस्थित थे। देखते ही देखते कल के लिपे-पुते फर्श पर दाल-चावल, आटा, नमक गुड़ आदि इकट्ठा होने लगा। लग रहा था कि लोग किसी मन्दिर के भण्डारे का प्रबंध कर रहे हों। रामकली और नथमल हैरान-परेशान कभी सामान लाने वालों को देखते और कभी छोटी-छोटी ढेरियों में एकत्र हुए सामान को। कुछ बोलते नहीं बन रहा था। लाचारी की दशा में नथमल की आँखों से आँसू बहने लगे और वह दोनों हाथों में सिर पकड़ कर वहीं उकड़ूँ बैठ गए। एक बुजुर्ग से व्यक्ति ने आगे बढ़कर नथमल को छूते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ बेटा, तबियत तो ठीक है न?’’ पर नथमल बजाय उत्तर देने के सुबकने लगे थे। अब आने वाले सभी लोग, जो नथमल के परिवार के लिए एकदम अजनबी थे हैरानी से नथमल को देख रहे थे।
तभी नथमल ने खुद को सम्भालते हुए कहा, ‘‘आप सब मेरे लिए देवता समान हो, जो मेरे परिवार के पेट भरने का परबंध बिना किसी नाते-रिश्ते के कर रहे हैं, पर मैं जाति का क्षत्रिय हूँ। इस दान को कैसे ले सकता हूँ? हमने तो दान देना ही सीखा है, ये……..’’ नथमल ने उन छोटी-छोटी ढेरियों की ओर संकेत किया।
‘‘आप अपना सबकुछ छोड़कर, सिर्फ धर्म को बचाकर यहाँ आए हैं, फिलहाल तो आप हमारे मेहमान हैं भाई साब।’’ एक युवक आगे बढ़ा, ‘‘ये दान नहीं है, जी छोटा न करो और इसे बस मदद ही समझो।’’
‘‘ठीक है, पर अगर आप लोग हमारी मदद करना चाहते हैं तो मेरे हाथों को काम दें, ताकि मुझे शर्मिंदगी न हो। यह तो मेरे लिए डूब मरने वाली बात है कि मैं अपने बच्चों को दान पर पालूँ।’’
‘‘ठीक है बेटा’’ अब एक और बुजुर्ग आगे बढ़े, हम तुम्हारे लिए काम देखते हैं, पर तब तक तो बच्चों को भूखा नहीं रखा जा सकता न।’’ फिर वे बुजुर्ग पीछे मुड़ते हुए बाकी साथियों से बोले, ‘‘चलो भई, अब इन्हें बना-खा लेने दो। बच्चे भूखे होंगे।’’
धीरे धीरे सब चले गए तो रामकली उनके लाए सामान से भोजन बनाने लगी, मजबूरी जो थी। जरूरत की ऐसी कोई चीज़ बाकी नहीं बची जो शहर के लोग वहाँ रख न गए हों। यहाँ तक कि लकड़ियाँ भी थीं। नथमल कमरे में जाकर बिस्तर पर पड़ गए। भोजन बन जाने के बाद रामकली ने पहले दोनों बच्चों को खिलाया। तीन बच्चों में रामसरन दूसरे नम्बर पर था। सबसे बड़ी बेटी, रामसरन और छाटी कमला एक साल की। बच्चों को खिलाकर उसने नथमल के सामने थाली रखी तो वह फिर बिलखने लगा, ‘‘नहीं राम! मैं कैसे खा सकता हूँ भीख में मिला अन्न? नहीं….नहीं। लेजा लेजा। इससे तो भूखा मरना मंजूर है।’’
‘‘देखो जी, स्याणे भी कहते हैं, मुसीबत में मर्यादा नहीं होती। आपको काम करने को तो कोई मना नहीं करता। पर खाओगे नहीं तो काम कैसे करोगे? तुसी नहीं खाओगे तां मैं किवें खावांगी? थोड़ा खा लो औखा-सौखा ते कोई काम देखो।’’ बड़ी मुश्किल से उस दिन रामकली दो कौर उसे खिला पाई। उसका स्वाभिमान ही था जो उसे सामने रखे भोजन से बड़ा लग रहा था। वह जल्दी ही काम की तलाश में जुट गया। म्म्म् बाहर कुछ शोर सुनाई दिया, शायद कोई नया मरीज लाया गया था। रामकली वर्तमान में आ कर रवीश के बिस्तर की ओर देखने लगी। वह दवाइयों के असर में था। रामसरन चाचा के घर चला गया था। अब तो रवीश काफ़ी ठीक था। उसे रात को बस थोड़ी मदद के लिए कोई उसके पास रह जाता। अस्पताल में देख-भाल ठीक ही थी।
रामकली ने उठकर बाहर देखा, लोग तेजी से इधर-उधर आ-जा रहे थे। थोड़ी ही देर में शोर शान्त हो गया, शायद मरीज को वार्ड में ले जाया जा चुका था, अस्पताल में फिर शान्ति छा गई। वह आकर फिर से अपने बिस्तर पर लेट गई और फिर उन्हीं अतीत की वादियों में भटकने लगी। म्म्म् नथमल जहाँ कहीं भी जाकर खड़ा हो जाता लोग उसे अपने यहाँ नौकरी देने को झट तैयार हो जाते, पर उसे तो नौकरी करनी ही नहीं थी। इतनी उमर तक कभी किसी की नौकरी नहीं की थी, नौकरी के नाम से ही वह बिदक उठता पर कुछ तो करना ही था। अभी तक मुरादाबाद में कोई दूसरा पंजाबी परिवार नहीं आया था। इसलिए लोगों की हमदर्दी इस परिवार के प्रति बनी हुई थी।
बड़े ज़मींदार परिवार का बेटा था नथमल। खाली पत्नी के पास बैठने से तो कुछ मिलने वाला नहीं था, सो हर रोज शहर की अलग-अलग गलियों-सड़कों पर चक्कर काटता। ऐसे ही आवारागर्दी करते हुए एक दिन उसे, एक बाग दिखाई दे गया। बड़े-बड़े घने आम के पेड़ देखकर वह बाग के भीतर तक चला गया परन्तु उसे वहाँ न तो कोई माली और न ही चैकीदार मिला। हाँ एक बड़ा-सा कमरा अवश्य था वहाँ, शायद बाग की देखभाल के लिए। बड़ी देर तक वह बाग में चारों तरफ घूमता रहा और किसी को वहाँ न पाकर, वापस लौट आया। इस बीच मुहल्ले के कुछ युवक उसके दोस्त भी बन गए थे। उनमें उसका हम उम्र गिरीश वकील भी था।
शाम को नथमल ने गिरीश से उस बाग की चर्चा की और कहा कि यदि वह बाग उसे ठेके पर मिल जाए तो वह उसकी काया पलट कर सकता है। गिरीश ने बाग के मालिक से बात की और बाग़ नथमल को 500/- वार्षिक के ठेके पर मिल गया। यह रकम भी उसे फसल आने पर ही चुकता करनी थी। जुट गया नथमल पूरी लगन से बाग की देखभाल में। खाली जमीन पर उसने कुछ साग-सब्जी बो दी। अब उसने एक कमरा भी किराए पर ले लिया था। पर जब तक फसल नहीं आती किराया देने, घर खर्च, बीज और खाद के लिए भी तो पैसा चाहिए ही था। अब नथमल को रामकली से मदद माँगनी जरूरी हो गई।
एक शाम वह आँगन में बान की खाट पर रामकली के पास बैठते हुए बड़े संकोच के साथ रामकली से कह रहा था, ‘‘राम! कुछ माँगूं तो देगी क्या?’’ रामकली बिना उत्तर दिए उसका मुँह ताकने लगी तो वह फिर बोला, ‘‘बता न?’’
‘‘तुम कहो तो सही, मेरे पास ऐसा क्या है जो मांगने में इतना संग रए हो?’’
‘‘मैंनूं, थोड़ा जेहा सोना, …..बस इक जेवर दे दे। कमा के फेर बणवा देवांगा।’’ रामकली चुपचाप उठकर भीतर गई और अपना सारा जेवर लाकर नथमल की झोली में डाल दिया। नथमल ने एक चूड़ी उठाकर जेब में डाल ली और ड्डतज्ञ दृष्टि से पत्नी को देखते हुए आँख में आई नमी को पौंछ लिया। तभी रामकली दिलासा देने वाले अंदाज में कहने लगी, ‘‘तुसी दिल छोटा न करो जी। यह सब आप ही का तो है। मेरी माँ ने कहा है, ‘जेवर औरत का सिंगार होता है पर मर्द का आधार होता है।’ यह बात मेरी समझ में कभी नहीं आई थी। आज आ गई है। मैंनू पता है, आप कोई जुआ थोड़ी खेड रए हो।’’
बस इसी तरह थोड़ी-सी पूँजी लेकर, मेहनत करते-करते एक दिन नथमल ने दूर एक छोटे से गाँव में थोड़ी जमीन खरीद ली और फिर गुजारे लायक मकान भी बना लिया। स्थायित्व आ गया। उसने अपने सगे सम्बंधियों को भी जैसे-तैसे खोजकर अपने आस-पास बसने में सहायता की।
खन्न की आवाज से चैंक उठी रामकली, रवीश ने करवट बदली थी, सिरहाने के पास रखा पीतल का बड़ा-सा गिलास नीचे गिर गया था। रामकली बिस्तर से उठकर गिलास को सही ठिकाने पर रख आई और वार्ड की खिड़की में जा खड़ी हुई। कमरे में एक मरीज बच्चा और भी था। उसके साथ आई उसकी माँ सुबह से सबकुछ देख-समझ रही थी पर अनजान ही बनी हुई थी। किसी के घर के मामले में बोलने की क्या आवश्यकता…..पर अब रामकली की बेचैनी देखकर उससे रहा नहीं गया तो वह उसके पास आ खड़ी हुई। रामकली कंधे पर हाथ के स्पर्श से चैंक उठी।
‘‘सो जाओ, माँ जी। इस तरह तो बीमार हो जाओगी। तुम्हें कौन देखेगा तब?’’ और रामकली चुपचाप आकर फिर बिस्तर पर लेट गई। म्म्म् बच्चे बड़े हो गए, दोनों लड़कियों और रामसरन की शादियाँ भी हो गईं। नथमल ने छोटी-सी दुकान बना ली थी। रामसरन बाप के साथ दुकान पर बैठने लगा था। एक दिन नथमल को हल्का सा बुखार आया। जो फिर कभी नहीं उतरा। रामकली एकदम से बेचारी होगई। पता नहीं क्या हुआ कि जो रामसरन कभी माँ का कहना नहीं टालता था, बात-बात पर माँ को आँखें दिखाने लगा। अब उसे माँ की हर बात में दोष दिखाई देने लगे। रामकली ने हालात को समझते हुए मुँह पर ताले लगा लिए थे। पर आज उसकी सहनशक्ति सीमा पार कर गई थी। नथमल का चेहरा बार-बार उसके सामने आ रहा था। उसकी स्वाभिमन की आग से दमकती आँखों जैसी रोशनी ही वह बेटे की आँखों में तलाश रही थी, पर वह वहाँ नहीं थी। बड़े अभिमान से नथमल कहा करता था, पंजाबियों न किसी के आगे हाथ नहीं पसारे, पर वह बेटे का कुछ नहीं कर पा रही थी। वह सोच रही थी, शायद यही होता है पीढ़ियों का अंतराल!
— आशा शैली