आरक्षण का दंश
प्रेम शब्द की परिभषा बदली
नयनों की भी भाषा बदली
अधरों पर कुछ और राग है
जीभ कहे कुछ और आग है
संसद में तुम करो कोलाहल व्यथित हृदय सहराऊं मै
आरक्षण की तुम करो प्रसंसा चुप कैसे हो जाऊं मै
कहते कुछ हो करते कुछ हो
जादू ये क्या दिखलाते हो
आखिर तुम ही अब बतलाओ
कबतक आरक्षण नीति रहेगी
बात तुम्हारी कब तक मानू कब तक रहूं भरोसे मै
आरक्षण की तुम करो प्रसंसा चुप कैसे हो जाऊं मै
कहो तटस्थ दिन रात रहूं मैं
प्रेम मगन हो गीत कहूं मै
किन्तु संतृप्त हृदय के भीतर
कौन प्रहार चलाऊँ मैं
आरक्षण का दंश झेलता युवा कण्ठ हो गाऊं मैं
आरक्षण की तुम करो प्रसंसा चुप कैसे हो जाऊं म