कविता

भारत भरत का स्वप्न बना

भारत भरत का स्वप्न बना, आज जग रहा;
अरवों ही जीवनों को उठा, ज्योति विच पगा !
सम्पन्न हुए मन हैं, स्वस्थ तन भी हो रहे;
हो के स्वतंत्र तन्त्र प्रचुर, मन्त्र हैं फुरे !
जन जाग्रति है आई, बुद्धि अग्रया हुई;
आत्मा उठी है सँवरी, योग रुचि है प्रिय हुई !
यन्त्रों के प्रयोगों से पुलक, खोज बहु हुईं;
धन धान्य पूर्ण निपुण सगुण, संस्कृति हुई !
राजा प्रजा का कर्म धर्म, सुवासित हुआ;
‘मधु’ के प्रभु का आना यहाँ, सार्थक हुआ !

गोपाल बघेल ‘मधु’