पूछ रहा हूँ
पूछ रहा हूं सब से
कि मैं ढूंढ रहा हूं खुद को
कहां हूं मैं ?
क्या मैं जीवित हूं !!!
या मेरा शरीर शिथिल पड़ गया है
पाषाण से बैठा कहीं ढूंढता हूं
झुर्रियों भरे चेहरे में खुद को
कहीं मैं ढूंढता भीड़ में
कभी झूलता हवाओं में
कभी मैं ढूंढता खुद को नीड़ में
कदमों की आहट नहीं है
जिंदगी की सरसराहट नहीं है
क्या है यह ?
मुझे मैं ही नहीं मिल पा रहा !
जब से संभाला है
यह जद्दोजहद जारी है
ना कोई पता है
ना कोई बीमारी है
लगता है मैं गुम हो गया हूं
दूर क्षितिज पर उस पहाड़ के पीछे
जहां कल-कल करती नदी का कलरव है
हां !मेरी यही तो इच्छा थी
कि मैं चला जाऊं दूर इस जंजाल से
मैं कभी वहां पर गुम नहीं हो सकता
क्योंकि वह मेरी इच्छा है
हां खुद को पा जरुर लूंगा
एक दिन
एक दिन
वहाँ