कविता

मुस्काएं खुशियां-ही-खुशियां

उगता हुआ सूरज हो, हरियाली हो,
मेरी इच्छा है देश में खुशहाली हो,
हर एक की आंखों में चमकता नूर हो,
हर चेहरे पर खुशियों की लाली हो.

किंतु यह सब कैसे होगा?
महंगाई की मार पड़ी है,
एक तरफ से ध्यान हटे तो,
नई समस्या मुहं बाए खड़ी है.

भ्रष्टाचार ने इतना सताया,
आम जनों का सिर चकराया,
कहां समस्या का हल पाएं,
कोई भी तो समझ न पाया!

स्वाइन फ्लू भी बनी समस्या,
इसने फंदे में जकड़ा है,
कहते हैं सब डर मत इससे,
डर इसका पर बहुत बड़ा है.

समलैंगिकता के सर्पों ने,
अपनी संस्कृति को डस डाला,
जिसका नाम न लेता कोई,
खुले आम पड़ा उससे पाला.

अब कैसे बच पाएं इनसे,
कोई बताए, कोई समझाए,
कैसे जीवित रहे सभ्यता,
कैसे संस्कृति सांस ले पाए?

इच्छा मेरी कोई न रंजित,
खुश हो, बस खुश हो ये दुनिया,
सबके चेहरे खिले-खिले हों,
मुस्काएं खुशियां-ही-खुशियां

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

One thought on “मुस्काएं खुशियां-ही-खुशियां

  • लीला तिवानी

    प्रेम-ही-प्रेम हो इस दुनिया में,
    रहे न कोई भी ग़मगीन,
    जीवन में खुशहाली की,
    भ्रातृभाव की ललक नवीन.

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