दो पंछी-आजादी का स्वाद
” दो पंछी- आजादी का स्वाद ”
पिंजरे का पंछी था पिंजरे में
अपनी धुन में मस्त मगन ,
दुनिया की उलझनों से दूर
बहुत सुखी था उसका जीवन।
पिंजरे की छोटी सी दुनिया में बैठ
गाता था खुशी के गीत ,
न किसी से बैर था उसका
न था कोई अपना मीत ।
“आजादी का स्वाद ” चखा न था
पिंजरा था उसका स्वर्ग समान ,
बेखबर था हिंसा, द्वेष, प्रेम से
पता न था क्या होता अभिमान।
वन का पंछी था वन में
अपनी दुनिया का अलबेला,
गुनगुनाता गीत अपनी धुन में
मैं आज़ादी का हूं मतवाला ।
मेरी दुनिया विशाल आकाश
जिस पर न किसी का पहरा ,
उड़ता हूं आज़ाद, निडर मैं
मैं आज़ाद मस्त-मौला ठहरा।
मैं तो बावला बन बैठा
आज़ादी का स्वाद चखकर,
खो नहीं सकता कभी इसे मैं
किसी के भूलावे में आकर ।
एक दिन दोनों का हुआ मिलन
जाने क्या था विधाता के मन में,
देख एक-दूजे को,हुए अभिभूत
जादू सा छाया दोनों के मन में ।
वन का पंछी कहने लगा…
कितनी छोटी है दुनिया तुम्हारी,
उड़ नहीं सकते नीलाकाश में
तुम हो कितनी दुखी, बेचारी ।
पिंजरे का पंछी चहककर बोला.…
कितनी प्यारी है दुनिया मेरी ,
किसी बात की नहीं कोई चिंता
कितनी उलझने हैं दुनिया में तुम्हारी।
वन पंछी बोला..चुगता दाना मन पसंद मैं
नहीं किसी बात की कोई फ़िकर ,
मैं समर्थ, सावलम्बी फिरता अकेला
नहीं मुझे किसी बात का डर ।
पिंजरे का पंछी बोला… तुम्हारी
दुनिया विशाल पर है निर्मम ,
यहां सर्दी, बारिश का डर नहीं
बहुत सुरक्षित रहते हैं हम ।
वन पंछी ने कहा.. पता नहीं तुम्हें
उड़ने में कितना आता है मज़ा,
उड़ नहीं सकते तुम गगन में
ये तो है बड़ी कठिन सज़ा ।
पंख फैलाकर उड़के देखो
आएगा बहुत तुम्हें पसंद ,
दूर गगन उड़ेंगे साथ साथ
मिलेगा तुम्हें अतुलित आनंद।
बातों बातों में एक-दूजे के
हो गये दोनों अच्छे मीत ,
बातें करके मन बहलाते
बेताब होकर मिलते दोनों नित।
पिंजरे का पंछी सोचने लगा
उड़ते देख पंछियों को गगन में,
कितना आनंद है उड़ने में
सच्चाई कितनी वन-पंछी के कथन में।
कैसी होती है आज़ादी
कितना ऊंचा है नील गगन,
जान न पाया आज तक मैं
अपनी दुनिया में रहता हूं मगन।
अपने पंख फड़फड़ाए उसने
बढ़ी जब उड़ने की प्यास ,
लगी चोट, बहे रक्त पर
छोड़ी नहीं उड़ने की आस ।
किन्तु हाय! नियति तेरी लीला
अब, कौन है समझ पाया ,
उड़ने की असफल चेष्टा में
उसने मृत्यु को गले लगाया।
पिंजरे में उड़ नहीं सकते
मासूम को ये पता न था,
उड़ना दूर नीलाकाश में
उसके भाग्य में बदा न था।
मन में लिए आनंद-अनुभूति
मिलने वन पंछी आया मीत से,
धन्य करने अपने आप को
उसके सुमधुर गीत से ।
खण्डित कोई कर सकता नहीं
विधाता का जो है विधान ,
पंछी बिन पिंजरा बेचारा
पड़ा था खाली सुनसान ।
उदास मन से लौट पड़ा वो
लिए आंखों में अश्रु- धार ,
लगने लगा उसे तब
मिथ्या है यह सारा संसार।
खाने- पीने की सुध नहीं थी
न उड़ने की कोई कामना ,
शक्तिहीन हो चला था वो
न कर पाया दुनिया का सामना।
चुगने गया दाना एक दिन
भूख से वह तड़पकर ,
पता न था खोएगा आज़ादी
किसी के जाल में फंसकर ।
दुखी मन से बंद पिंजरे में
निहारता एकटक नीलाकाश,
कल तक थी जो, आज नहीं है
वो आज़ादी मेरे पास ।
पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल ।