कविता

कौन हूँ मैं

एक सवाल,
बोझिल कर देता हैं मुझे,
अस्तित्व को मिटा देता हैं मेरा
क्योंकि,
बहुत बार,
असंगत बन जाती हूँ मैं
खुद से नजरे नही मिला पाती हूँ
अप्रासंगिक बन जाता हैं जीवन
जब नही खोज पाती मैं अपनी पहचान
कभी माँ. कभी बहिन,
कभी दोस्त, कभी अनुगामी,
कभी संत, कभी सिपाही,
कभी त्यागी, कभी स्वार्थी,
कभी खुदगर्जी, कभी लुटेरी,
कभी चोर, कभी साहूकार,
कभी गरीब, कभी संपन्न,
कभी याचक, कभी दानदाता
और भी न जाने क्या-क्या
कितने ही रूप
गिनती नही जिनकी
कितनी ही बार गुम हो जाती हूँ
तब मजबूर होती हूँ
सोचने को
कोन हु मैं
क्या हूँ मैं
क्या हैं मेरा अस्तित्व
क्या हैं मेरे जीवन की दिशा
क्या करना है मुझे
कोन हूँ मैं

शोभा गोयल

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