कविता

रेल के दरवाज़े पर…

पाँच साल बाद फिर
जब मैं उतारा था
रेल के दरवाज़े पर
कुछ अजनबी-सा

बदलाव तो ज़रूर था
चेहरे, नये आ गये
विधियाँ सख़्त बन गयीं
नारे, नये लग गये
योजनाएँ, ताज़ा बन गयीं

पर
दरवाज़े पर
जहाँ-तहाँ
वही आवाज़ें
जिनमें थीं
वही नाराज़गी – वही थकानें
वही शिकायतें – वही माँगें

धनंजय वितानगे – श्री लंका