लघुकथा

वानप्रस्थ

गुप्ता जी लॉन में बैठे चाय पी रहे थे तभी टेबलपर एक सूखा, पीला पड़ता पत्ता आ गिरा

“क्या हुआ भई? अपनी डाल को छोड़ आए” गुप्ता जी ने पूछा

“वहाँ अब नये पत्तों का जमाना आ गया बंधु, किसी दिन आँधी में उनसे रगड़ खाकर टूटता इससे बेहतर खुद ही हट गया”

रिटायरमेंट के करीब पहुँच चुके गुप्ता जी के अंदर अचानक से खामोशी छा गयी, शायद उनको भी अपना वानप्रस्थ निकट दिखने लगा था……

*कुमार गौरव अजीतेन्दु

शिक्षा - स्नातक, कार्यक्षेत्र - स्वतंत्र लेखन, साहित्य लिखने-पढने में रुचि, एक एकल हाइकु संकलन "मुक्त उड़ान", चार संयुक्त कविता संकलन "पावनी, त्रिसुगंधि, काव्यशाला व काव्यसुगंध" तथा एक संयुक्त लघुकथा संकलन "सृजन सागर" प्रकाशित, इसके अलावा नियमित रूप से विभिन्न प्रिंट और अंतरजाल पत्र-पत्रिकाओंपर रचनाओं का प्रकाशन