लघुकथा

“संस्कार”

हरीश लाला के बड़े बेटे गिरीश की शादी के लिए लड़की रीमा और रीमा के माता-पिता आये.. चाय नाश्ते के बाद बात शुरू हुई…
“मुझसे शादी कर लें!” रीमा ने गिरीश से कहा।
“मेरी शक्ल पर बुद्धू या पागल लिखा दिखलाई दे रहा है क्या आपको?” गिरीश ने कहा।
“आप मुझसे शादी के लिए तैयार थे… वो तो मैंने ही आपको इंकार करने के लिए कहा!”
“जानती हैं उस इंकार से मेरी कितनी फजीहत हुई। मुझे डाँट-फटकार मिली। सबकी नाराज़गी सहनी पड़ी!”
“मैं क्या करती, मुझे किसी अन्य से प्यार था.. ।”
“तो! अब क्या हुआ? दोबारा फिर मेरी फजीहत करनी है क्या?”
“नहीं! नहीं! उस लड़के ने मुझे धोखा दिया, वह किसी दौलतमंद दूसरी लड़की को फँसाकर शादी कर ली। अब मेरे माता-पिता की बात मानने के सिवा मेरे पास दूसरा रास्ता नहीं और आपके जैसा दूसरा लड़का मिलना कठिन है…।”
“जाइये! जाइये! अपने माता पिता के साथ इज्जत से चले जाइये। कहीं और वर ढूंढ़ने में समय लगाएं।”
“आप मेरी बात तो सुनिए… मैं आपसे…,”
“नहीं सुननी मुझे आपकी कोई बात… इसका क्या भरोसा कि मैं आपको धोखा ना दूँ… तब आप किसी दूसरे से प्यार करती थीं, अभी मैं किसी दूसरे से प्यार करता हूँ…।

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ