नेहा का सागर
छाई घटा चहुं दिशा घनघोर
पवन मचा रहा है शोर ,
काल का रुप हुआ विकराल
धरा पर मनुष्य है बेहाल ।
निडर घुम रहा चारों ओर श्रृगाल
हाथों में उसके आज रक्षा ढाल,
सिंह जा छिपा अपने मांद में
असमय ग्रहण लगा जैसे चांद में।
भयावह रुप धरी आज रजनी
तप रही मरू सी, शीतल चांदनी,
लुप्त हो गई कोयल की मीठी तान
स्वच्छन्द गा रहा कौआ बेसुरा गान।
अन्याय कर रहा ताण्डव नृत्य
लिप्त है मनुष्य करने कुकृत्य,
नर कर रहा हनन नारी का शील
शिकार पर जैसे झपटता है चील।
चुप, विवश निहार रहा ये दृश्य
धरा पर न्यायालय, न्यायाधीश ,
मानवता मांगती न्याय हाथ उठाकर
प्रभु! अब तो कृपा करो मुझ पर ।
घुल गया हवा में ये कैसा विष
लज्जा से झुक गया मेरा शीष,
‘नेह का सागर’ गया है सूख
गेह-ऊर भर गया काम-भूख ।
टूट रहा धैर्य-बांध, बंधा जो मन
शिथिल पड़ा पंच इन्द्रिय बना जो तन,
दे रहे आमंत्रण प्रलय भयंकर
मन-वन पोषकर सिंह-अहंकार ।
सहज, सुकोमल हृदय-भावना
लील रही भौतिक सुख-कामना,
सूख रही खुशी की पुष्प-वाटिका
निशब्द है स्वरालय की वीथिका ।
कहां वो डोर स्नेह, प्रेम बन्धन का
था जो पहले मूलाधार जीवन का,
थी फैली हवा में सुगंध जिसकी
आज पग-ध्वनि नहीं आती उसकी ।
हुआ रुपान्तर ये कैसा काल का
निर्मम व्यवहार नियति की चाल का,
विमुख हो रही क्यों भाग्य विधाता
विवश अश्रु बहाए मानवता ।
अब भी है समय हवा का फुसफुसाना
जगा लो मन की सुप्त चेतना ,
पुष्प-वाटिका फिर होगी पल्लवित
पुनः गाएंगे मिल मधुकर प्रेम गीत ।
फूटेगी धरा से फिर न्याय जल धारा
बहेगी हृदय में पुनः प्रेमामृत धारा ,
महकेगी फिर हवा में आनंद सुगंध
हंसेगी पुनः जीवन वल्लरियां मंद मंद।
जीवन तटिनि में बहेगी नेह धारा
बंधेगा एक दूजे से स्नेह डोर प्यारा,
होगा न कोई इस धरा पर निराश
टूटेगी नहीं मन में बंधी जो आस।
शांति छांव में चित्त देखेगा सुख स्वपन
पूर्ण उसे करने मनुज होगा मगन ,
नये अंकुर फूटेंगे हरियाली छाएगी
नई सुबह, नई किरणों को फैलाएगी ।
पूर्णतः मौलिक- ज्योत्स्ना पाॅल ।