“जनता जपती मन्त्र”
सात दशक में भी नहीं, आया कुछ बदलाव।
खाते माल हराम का, अब भी ऊदबिलाव।।
चाहे धरती पर रहें, कैसे भी हालात।
होती इनके शीश पर, फूलों की बरसात।।
आजादी के यज्ञ में, प्राण किये बलिदान।
लेकिन अमर शहीद का, नहीं मिला सम्मान।।
आये कोई भी भले, भारत में सरकार।
नहीं प्रशासक ने किया, कोई कभी विचार।।
हर-हर हो या हाथ हो, सब हैं एक समान।
जनता को उल्लू बना, चला रहे दूकान।।
मत पाने तक के लिए, जनता है भगवान।
फिर तो मनमानी करें, पाँच साल सुलतान।।
लोकतन्त्र के नाम का, जनता जपती मन्त्र।
राजतन्त्र जैसा लगे, जनता को जनतन्त्र।।
फाँसी खा कर मर रहे, धरती के भगवान।
लेकिन शासक देश के, सोये चादर तान।।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक)
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