उपन्यास अंश

ममता की परीक्षा (भाग -25 )

ममता की परीक्षा ( भाग -25 )

” बेटा ! तुम समझ नहीं रहे हो । मैं तो तुम्हारी खुशियाँ ही चाहती हूँ लेकिन तुम हो कि समझ नहीं रहे हो । ” अपने लहजे में थोड़ी नरमी लाते हुए बृंदा ने कहा था और फिर मन ही मन बुदबुदाई थी ‘ सच ही कहा है प्यार अँधा होता है । ‘
तभी नजदीक ही खड़ी साधना ने माँ बेटे की इस बहस में पहली बार अपनी जुबान खोली ,” सही कहा माँ जी आपने ! प्यार अँधा होता है । तभी तो प्यार को प्यार के अलावा कुछ भी नहीं दिखता है । दुनिया में फैली ये ऊँच नीच , अमीर गरीब , छोटा बड़ा , जैसी बीमारियां भी नहीं दिखतीं उसे । प्यार रंग रूप और पहचान भी नहीं देखती । देखती है तो बस अपने प्रेमी का दिल , सुनती है तो बस अपने दिल की धड़कनों के साथ अपने प्रियतम के धड़कनों की जुगलबंदी । इसकी मिठास के आगे दुनिया के बड़े से बड़े संगीतकारों के धुन की मिठास बेकार है । इस लिहाज से अब लोगों को अपने कथन में संशोधन कर लेना चाहिए माँ जी ! प्यार अँधा ही नहीं बहरा भी होता है । ” कहते हुए भी साधना ने अपने धैर्य व शालीनता का परिचय दिया । तभी गोपाल ने धीरे से उसका हाथ दबाकर उसे खामोश रहने का ईशारा किया था ।
” ये किस तरह की ख़ुशी चाह रही हो माँ ? मेरे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है । साधना हर तरह से आपकी बहू होने लायक है । सुन्दर , सुशील , संस्कारी , मृदुभाषी व समझदार साधना से किसी बेहतर बहू की आस है आपको ? यदि ऐसा है तो माँ मैं तो कहूंगा दिन में सपने देखना छोड़ दो । दूसरी बात वह जैसी भी है हम प्यार करते हैं एक दूसरे से क्या यह काफी नहीं ? ” गोपाल ने माँ को समझाने का एक और प्रयास किया था ।
” बेटा ! बाप के पैसे पर ऐश कर रहे हो न ? जरा बाप से परे होकर अपने प्यार का इम्तिहान लो । ये जो इश्क का बुखार है न कुछ ही दिनों में उतर जायगा । ” बृंदा ने ताना मारा था ।
” ठीक है माँ ! ठीक कहा तुमने ! बहुत ऐश कर लिया बाप के पैसे पर । अब अपने पैसे संभालो और मैं जा रहा हूँ अपने प्यार के पास जहाँ इतने पैसे भले न हों लेकिन एक सुखी जिंदगी अवश्य होगी । रोटी रूखी सूखी ही सही लेकिन उसमें प्यार की मिठास होगी । चलो साधना ! अब जब इन्हें बेटे और बहू की जरुरत होगी , ये हमें खोज लेंगी । ” कहने के साथ ही गोपाल साधना का हाथ थाम कर बाहर की तरफ बढ़ा । न चाहते हुए भी साधना के कदम गोपाल की ताल में ताल मिलाने लगे । पीछे से बृंदा ने गोपाल को कई बार आवाज लगाईं उसे रुकने का निवेदन भी किया लेकिन न तो उसने सुनना था और न ही उसने माँ की आवाज सुनी ।
साधना का हाथ थामे अब वह बंगले से बाहर आ गया था । साधना का हाथ अपने हाथों में लिए गोपाल सड़क पर चला जा रहा था । लगभग रुआंसी सी अवस्था में होते हुए भी साधना निशब्द गोपाल के साथ खिंचती सी जा रही थी । अपनी वजह से माँ बेटे के बीच हुए वादविवाद से वह खासी परेशान थी । इतनी बहस करने की बजाय उन्होंने सीधे ही उसे नापसंद कर दिया होता तो बेहतर होता । वह इतनी आहत नहीं महसूस करती । अब आगे क्या होगा ? वह कुछ सोच नहीं पा रही थी बस उसके पीछे पीछे चलती रही । उसे यह भी तो पता नहीं था कि वह कहाँ जा रही थी ।
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भोजन के पश्चात् बिरजू और अमर बाहर खुले में बिछी खटिये पर आकर बैठ गए । चौधरी रामलाल शायद पहले ही भोजन कर चुके थे । गाँव में ही पला बढ़ा अमर गाँव के रीति रिवाजों से भली भाँति परिचित था । उसे पता था कि घर के बुजुर्ग द्वारा भोजन कर लेने के बाद ही घर का कोई अन्य सदस्य भोजन कर सकता है । बिरजू के भोजन कर लेने की वजह से उसे अंदाजा लग गया था कि चौधरी जी भोजन कर चुके हैं । अतः औपचारिकता में समय न गँवाते हुए अमर ने इतने दिनों की खोजखबर लेनी शुरू कर दी । अब तक रामलाल के पास बैठे दूसरे ग्रामीण अपने अपने घरों को वापस जा चुके थे । चौधरी रामलाल अकेले बैठे थे । अपने खटिये पर से उठकर अमर और बिरजू रामलाल के पास आ गए थे । खटिये पर उनके पैरों की तरफ बैठते हुए अमर ने बात शुरू की ,” काका ! इतनी बड़ी बात हो गई और तुमने हमें बताया तक नहीं । क्या हम इस घर के कुछ नहीं लगते ? क्या बसंती हमारी कुछ नहीं लगती ? फिर आप लोगों ने हमसे ये बात क्यों छिपाई ? ”
कहते हुए चौधरी रामलाल की पलकें भीग गई थीं ,” बहुत ही भयानक मंजर देखा है बेटा इन बूढी आँखों ने ! जिस फूल सी बच्ची को बड़े नाजों से पाला था अपने कंधे पर पूरे गांव में घूमाया था उसी की अर्थी को कंधा देना पड़ा था । तुम समझ सकते हो बेटा कि हमारी क्या दशा रही होगी । खैर ! हम जो कर सकते थे , हमने किया लेकिन वो शहरी सब बहुत रसूख वाले थे शायद । हमें ताउम्र यह जख्म कुरेदता रहेगा कि हम अपनी गुड़िया का बदला नहीं ले सके उन पापियों को उनके पाप के लिये सजा नहीं दिला सके । ”

” मैं समझ सकता हूँ काका आपकी उस समय क्या मनोदशा रही होगी । दरअसल मैं वह पूरा वाकया समझना चाहता था काका ताकि आपकी कुछ मदद कर सकूँ । मुजरिम कितना भी बड़ा और रसूखदार क्यों न हो कानून के लंबे हाथों से ज्यादा देर तक बचा नहीं रह सकता । बस जरुरत होती है सोये हुए कानून को जगाने की । अंधे कानून को सबूतों की रोशनी में ही किसी का जुर्म दिखाई पड़ता है । और अगर एक बार कानून जाग गया और अपनी पर आ गया तो उसके सामने बड़े से बड़ा अपराधी भी बौना ही साबित होता है । मुझे पता है काका मैं तुम्हें कुरेदकर तुम्हारे जख्मों को हरा कर रहा हूँ लेकिन यह भी जरुरी है बसंती को न्याय दिलाने के लिए । जब तक ये जख्म हरे रहेंगे बसंती को न्याय मिलने की उम्मीद भी हरी रहेगी । मुझे पूरी घटना जो भी और जितना भी जानते हो बसंती के साथ हुई उस दरिंदगी के बारे में सिलसिलेवार बता दो । दिन तारीख महीना वगैरह और अपराधियों के हुलिए वगैरह सब । ” अमर ने एक बार फिर बसंती के साथ हुई दरिंदगी के बारे में जानना चाहा था । ” शायद तुम ठीक ही कह रहे हो बेटा ! बसंती को न्याय दिलाने के लिए ये अभागा बाप बड़े से बड़ा दुःख झेलने को तैयार है । सुनो ! ” और फिर चौधरी रामलाल ने शून्य में देखते हुए कहना शुरू किया , ” वह 25 जनवरी की शाम थी । दिन छोटा ही होता है अमूमन उन दिनों ..शाम के छह बज चुके थे । अँधेरा घिरने को था । गांव की औरतें अपने चूल्हे चौके में व्यस्त थीं । बसंती भी अपनी मां के साथ रसोई में हाथ बंटा रही थी । ………” और फिर चौधरी रामलाल के सामने वह पूरी घटना जिवंत हो उठी ” सोलह वर्षीया बसंती अपनी माँ के साथ आंगन में चुल्हे पर रखी सब्जी चला रहा थी कि तभी पड़ोस की महिला आईं और उसकी मां से बोली ,” दीदी ! अभी तक तुम्हारा भोजन तैयार नहीं हुआ ? ”
” हो तो गया है । चावल और दाल पका लिया है । सब्जी लागभग तैयार है । रोटी तो मर्द जब खाने बैठेंगे तभी बनेगी । दो मिनट रुको मैं भी चलती हूँ । ” कहकर उसने बसंती से सब्जी को थोड़ा पकाकर चुल्हे पर से उतार देने के लिए कहा और उस महिला के साथ बाहर की तरफ निकल गईं । यह उनकी नित्य की दिनचर्या थी । वह महिला चौधरी के घर आती और फिर बसंती की माँ के साथ आसपड़ोस की और भी महिलाओं को साथ लेकर गांव से बाहर खेतों की तरफ शौच के लिए जातीं । उत्तर भारत के अधिकांश गांवों में आज भी यही तस्वीर बदस्तूर जारी है ।

क्रमशः

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।