कविता

खोए ख़ुद में कभी कवि होते !

खोए ख़ुद में कभी कवि होते,
भाव अपने में विचरते रहते;
किसी आयाम और ही जाते,
वहाँ से देखे वे कवित रचते !

व्यक्त वे उर की लखी कर जाते,
सुर में वे आ के सुधा दे जाते;
सुधि में रहते कभी ना रहते,
क्षीर सागर में देह नहलाते !

पैठ जितने भी गहरे वे पाते,
उतनी गुणवत्ता रचना ले आते;
आत्म रस जितना चाख वे पाते,
उतना आनन्द यहाँ बिखराते !

मानसिक जगत जो रमण करते,
रचने में वक़्त बहुत ले लेते;
छंद मात्राएँ गिने वे रहते,
काव्य गुण गहरा कहाँ दे पाते !

ध्यान औ समाधि परे जाके,
सृष्टि को गोद बिठा सहलाके;
प्रभु के ‘मधु’ दग्ध मन करके,
विश्व जो देखते कहे चलते !

✍🏻 गोपाल बघेल ‘मधु’